साधु का शाप यों फलित हुआ

February 1970

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(गताँक से आगे)

साधु चले गए तब मेजर कुछ आश्वस्त हुए। हेकड़ी अभी भी गई नहीं थी। नौकर को डाँटते हुए बोले ‘मूर्ख तूने मेरी आज्ञा का पालन क्यों नहीं किया।’ नौकर पहले तो बंदरों की तरह खों-खों करने लगा फिर धीरे-धीरे वह मनुष्यों की सी भाषा में बोल पाया - ‘कैसी आज्ञा साहब! आपने मुझसे कुछ कहा था क्या?’

मेजर समझ गये। क्या साधु सचमुच इतना समर्थ था कि वह मनुष्य के मन, प्राण और चेतना पर पूरा अधिकार कर सकता था। जो कुत्ते अभी तक बुत बने खड़े थे, साधु के वहाँ से हटते ही चल-फिर सकने की स्थिति में आ सके। मेजर ने अपनी मेम साहब को सारी घटना सुनाई। वे बेचारी कोमल हृदय थीं, इसलिए एकदम भयभीत होकर बोलीं- ‘आपको इतना क्रोध नहीं करना था, मुझे बुला लिया होता, मैं ही साधु को कुछ खाने के लिए दे देती या फिर कुछ पैसे ही दे देती।’

जैसे-तैसे एक महीना बीता। मेजर डिक साहब उस दिन प्रातःकाल समय पर ही उठे पर वह हैरान थे कि आज न तो कोई नौकर ‘बेड-टी’ (सबेरे की चाय) ही लाया और न स्नान के लिए पानी ही, श्रीमती डिक ने बहुतेरी आवाज लगाई पर वहाँ कोई सुनने वाला हो तब तो। मेजर उठे नौकरों के कमरों में जाकर देखा तो सब खाली पड़े थे। एक ही नौकर बचा था, सो उसने भीतर से ही चिल्लाकर कहा- ‘साहब’! इधर मत आना, इस मुहल्ले में प्लेग फैल चुकी है। इन कमरों में भी चूहे मरे हैं, इसीलिए नौकर घर छोड़कर भाग गये। मुझे तो प्लेग हो गया है, इसलिए मैं तो भाग कर जा भी नहीं सका।’

मेजर ने पुलिस और स्वास्थ्य विभाग से सेवायें माँगी। नौकर को दवा का प्रबंध कराया और स्वयं सारा सामान बाँधकर बंगला छोड़ देने की तैयारी करने लगे।

सायंकाल होने से पहले ही वे डाक-बंगले पहुँच गये। इस आपा धापी में प्रातःकाल से चाय भी नहीं मिली थी। डाक-बंगले के नौकर को आदेश दिया - ‘तीन कप चाय लाना।’ चाय आई, मेजर साहब, उनकी धर्मपत्नी और पुत्री तीनों ने एक बार ही मुख लगाया और तीनों ने एक साथ अपने-अपने चाय के प्याले एक ओर सरका दिये। बात यह थी कि उनमें बुरी तरह मिट्टी के तेल की दुर्गंध आ रही थी।

अभी वे कुछ कहें इसी बीच सबका ध्यान कैप्टन स्मिथ नामक एक और अंग्रेज अफसर ने आकर बंटा दिया। पत्र निकालकर मेजर डिक को देते हुए स्मिथ ने बताया ‘छावनी के मेडिकल ऑफिसर ने कहा है कि चूँकि आप लोगों के बंगले में प्लेग फैल गई है, इसलिए आप सबको दूसरे एरिया से बाहर जाना पड़ेगा। मेजर स्मिथ का माथा ठनका। उन्हें एक माह पूर्व हुई दुर्घटना याद आ गई। साधु का श्राप क्या वस्तुतः सत्य होने जा रहा है, यह सोचते ही उनकी देह में पसीना फूट पड़ा।

अब जिस कोठी में उन्हें जाना था, उसका पता स्मिथ ने हाथ में थमा दिया। मेजर डिक बोले- ‘स्मिथ। मैं वहाँ अभी चला जाता हूँ, किन्तु हममें से किसी ने भी दिन भर हो गया, खाना नहीं खाया। पहले हमें खाना खा लेने दें।’

नौकरी तो नौकरी ठहरी। कोई उद्यम कर रहा होता तो भला अपने साथी को एक असहाय व्यक्ति को दो टूक उत्तर देने की नौबत क्यों आती। स्मिथ को नौकरी चले जाने का भय था सो उसने कहा- “मेजर साहब! आप उस बंगले पर अभी चले जायें, आपके लिए भोजन का प्रबंध हम पीछे से करके ला रहे हैं।”

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