ब्रह्मचर्य से बल प्राप्ति

April 1948

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(श्री अशर्फीलाल जी मुख्तार, बिजनौर)

संसार की प्रत्येक वस्तु तीन गुणों से युक्त है, तम, रज, और सत। जो पदार्थ भी हम खाते हैं। उसके तम भाग से स्थूल शरीर यानी हड्डी माँस आदि बनती हैं और शक्ति लेती हैं। रजो गुण भाग से कर्म इन्द्रियाँ बनती हैं और सतोगुण भाग से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बनते व पुष्ट होते हैं। हमारी स्थूल दृष्टि सूक्ष्म की ओर न जाकर स्थूल तक ही सीमित रहती है। इसलिए हम वर्तमान स्थिति में इसको असाध्य समझ बैठते हैं। ऐसा नहीं है। हम देखते हैं कि किसी-2 मोटे ताजे आदमी में कुछ भी शक्ति नहीं होती, पतला आदमी उससे अधिक काम कर लेता है। इससे यह निश्चय हो जाता है कि बल शरीर के मोटे या पतले होने पर निर्भर नहीं है तो फिर बल किन-किन बातों पर निर्भर है। यह पता लग जाने पर वर्तमान समय में भी बल प्राप्त हो सकता है। बल और उसका सही प्रयोग दोनों ही विचारणीय हैं। जिस मनुष्य की ज्ञान इन्द्रियाँ मन, बुद्धि और अहंकार आदि निर्बल हैं उसकी कर्मेन्द्रियाँ और शरीर मोटा ताजा होने पर भी असमर्थ होता है। इसलिए इन 10 इन्द्रियों की शक्ति की रक्षा और प्राप्ति आवश्यक हो जाती है। इन इन्द्रियों की शक्ति वीर्य पुष्टि और रक्षा पर निर्भर है। जिसकी ओर हमारा बिल्कुल भी ध्यान नहीं है। प्राचीन समय में वीर्य रक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था आरम्भ के 25 वर्ष तक बच्चों को ऐसे वातावरण में रखा जाता था कि जहाँ उनके विचार वीर्यपात के विषैले कारणों से बिल्कुल सुरक्षित रहते थे। यह समय ब्रह्मचर्य आश्रम का कहलाता था इसके पश्चात वह गृहस्थ आश्रम में भी सीमित मात्रा में केवल संतानोत्पत्ति के लिये स्त्री भोग करते थे और 50 वर्ष की उम्र में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर इस ओर से फिर सदा के लिए सुरक्षित हो जाते थे। यह वीर्य रक्षा ही उनको शक्तिशाली बनाये रखती थी और अब वीर्य जैसे इस अनमोल रत्न को बेदर्दी के साथ बर्बाद करने से हम निर्बल और शक्तिहीन हो रहे हैं। प्राचीन समय में खाने को खूब मिलता था और उससे पैदा हुए वीर्य को सुरक्षित रखा जाता है। आजकल खाने को कम और वीर्य की बर्बादी ज्यादा- बिल्कुल उल्टा हो रहा है, तो काम कैसे चले। पौष्टिक खाना खाने की तो सबकी शक्ति नहीं है हाँ वीर्य की रक्षा अपने वश की चीज है तो हमको उसकी ओर खास ध्यान देने की आवश्यकता है। एक डॉक्टर साहब ने मुझसे पूछा कि “मुख्तार साहब! हमारे शास्त्र यह कहते है कि काम को काबू में करो क्या यह सम्भव है?” मुझे एक डॉक्टर के मुख से ऐसी बात सुनकर बड़ी हँसी आई मगर मैंने इसी को रोक लिया। डॉक्टर साहब का ख्याल यह था कि काम शक्ति तो कन्ट्रोल होनी असम्भव सी है। मैंने डॉक्टर साहब से कहा कि आप दवाई देकर सुस्ती के रोगी की काम इच्छा तीव्र कर देते हैं या नहीं? वह बोले हाँ ऐसा तो होता है। मैंने उनसे कहा कि इससे यह सिद्ध होता है कि काम शक्ति को तीव्र करने की शक्ति खाद्य पदार्थों में है। यदि तीव्र करने वाले पदार्थों का सेवन न करे तो काम शक्ति स्वयं ही दब जायेगी किसी भी परिश्रम की आवश्यकता नहीं होगी इसलिए यदि तीसरा पदार्थ और वह सब पदार्थ जो काम शक्ति को उत्तेजित करते हैं खाना छोड़ दे तो स्वयं ही वीर्य की रक्षा हो जायगी इन पदार्थों का खाना जारी रहा तो वीर्य की रक्षा हो ही नहीं सकती। इससे नतीजा यह निकला कि आहार शुद्ध और सात्विक होना पहली शर्त है। उसका बनाना और खाना भी गुरुजनों की बताई हुई विधि से होगा तो सोने में सुहागा हो जायगा। इस तरह से जो खाना हम खाते हैं उसे उत्तेजित वस्तुओं से मिश्रित कर लेते हैं इसलिये वह खाना जितना वीर्य बनाता है उससे अधिक वीर्य को बर्बाद करने का हेतु बन जाता है और नहीं तो स्वप्नदोष से ही वीर्य नष्ट होने लगता है। ऐसा भोजन शक्ति बढ़ाने की बजाय उल्टा शक्ति क्षीण करता है। यदि हम उसमें मिर्च मसाले आदि तीक्ष्ण पदार्थ न मिलावें और दूसरे उत्तेजित पदार्थों का भक्षण छोड़ दें तो वीर्य की रक्षा स्वयं ही हो जायगी और शारीरिक शक्ति का चमत्कार सामने आने लगेगा।

यह है शारीरिक बल प्राप्त करने की कुँजी। थोड़े दिनों रसना इन्द्री पर थोड़ा सा कन्ट्रोल करना पड़ेगा। काम शक्ति अपने अधीन हो जायगी। आग में ईंधन डालते रहोगे तो परिश्रम से भी नहीं बुझ सकेगी। इसलिए हमें बलवान बनने के लिए वीर्य रक्षा करनी चाहिए और वीर्य रक्षा तभी संभव है जब हमारा आहार विहार सात्विक हो।

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