क्या हम अभागे हैं?

April 1948

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मानव जीवन एक अमूल्य सुअवसर है। सृष्टि के समस्त जीव जन्तुओं की स्थिति पर दृष्टिपात कीजिए, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसे मनुष्य के समान ऊँची स्थिति प्राप्त हो। बहुत थोड़े प्राणी ऐसे हैं जो शारीरिक दृष्टि से मनुष्य से अधिक सक्षम हैं। जो हैं उनकी आयु थोड़ी है। घोड़ा, गधा, बैल, भैंस, हिरन, रीछ, प्रायः बीस पच्चीस वर्ष से अधिक नहीं जीते। छोटे दर्जे के लोमड़ी, खरगोश, भेड़, बकरी, आदि पशु तो दस वर्ष से भी पहले मर जाते हैं। हाथी, सर्प, गिद्ध, कछुआ सरीखे दस पाँच प्राणी ही ऐसे ही जो मनुष्य से अधिक जीवित रहते हैं। कीट, पतंग, उद्भिज, अंडज, जीव जन्तुओं की आयु और शारीरिक शक्ति तो मनुष्य की तुलना में अत्यन्त ही न्यून है।

सभी पशु पक्षियों की अन्तः चेतना मनुष्य की अपेक्षा कम है। मन बुद्धि, चित्त, अहंकार का चतुष्टय इतना अद्भुत है कि इस विशेष उपहार के द्वारा मानव जीवन की सरसता अनेक गुनी बढ़ गयी है। बेचारे पशु पक्षी भोजन, निद्रा, प्रजनन तथा शरीर रक्षा के अतिरिक्त और कोई विशेष इच्छा आकांक्षा नहीं करते और न इसके अतिरिक्त अन्य किसी विषय में उन्हें आनन्द आता है। यह चार बातें ही उनका सारा जीवन काल समाप्त कर देती है। मनुष्य को इससे अनेक गुनी सुविधा मिली हुई है। उसका मन सुविकसित होने के कारण आनन्द और मनोरंजन के सैकड़ों मार्ग खुले हुए हैं। संगीत, साहित्य, कला, निर्माण, अन्वेषण, इन्द्रिय तृप्ति, पर्यटन, निरीक्षण, क्रीड़ा, विनोद, संगीत, मैत्री, नेतृत्व, कल्पना, संचय, उपार्जन, प्रशंसा, उपकार आदि नाना प्रकार से मनोरंजन कर सकता है। उसमें इतना बुद्धि कौशल मौजूद है कि स्थूल शरीर की साधारण समस्याओं को आसानी से हल कर लेता है। आठ घण्टे के परिश्रम में एक अशिक्षित मजदूर भी उतना कमा लेता है कि उसका तथा उसके आश्रित कई परिजनों का जीवन निर्वाह हो जाता है। शेष सोलह घण्टे उसे अन्य मार्गों से जीवन का आनन्द प्राप्त करने के लिए बच जाते हैं। चतुर मनुष्य तो इससे भी कम समय में स्वल्प श्रम से इतना अधिक कमा लेते हैं कि वे उनकी साधारण एवं स्वाभाविक आवश्यकता से वह कहीं अधिक होता है। यह सुविधा सृष्टि के किसी अन्य प्राणी को प्राप्त नहीं है। उन्हें तो शरीर यात्रा में ही समय बिताना पड़ता है और क्षुधाओं के निवारण की तृप्ति से ही संतुष्ट होना पड़ता है।

हममें से कई व्यक्ति अपने से अधिक धनी, सम्पन्न, शिक्षित, चतुर, सशक्त, सुन्दर, व्यक्तियों से तुलना करके अपने आपको दीन, दरिद्र, दुखी अनुभव किया करते है। सोचने का वह तरीका बहुत की गलत, दूषित एवं भ्रमपूर्ण है। इस दृष्टि से तो ईर्ष्या का कभी अन्त न होगा। जैसे जैसे अधिक सम्पन्नता बढ़ेगी वैसे वैसे तृष्णा और दीनता का दर्द भी अधिक होगा। कभी शान्ति न मिलेगी। सम्पत्तियों का कोई अन्त नहीं। एक से एक बड़े पड़े हुए हैं, उनसे अपनी तुलना करके दीन भाव मन में लाने की आवश्यकता नहीं, मानव प्राणी किसी भी दशा में दीन हीन नहीं है।

परमात्मा ने हमें सर्व श्रेष्ठ मानव जीवन प्रदान किया है। इसके आनन्दों का ठिकाना नहीं, इसके द्वारा आत्म कल्याण का सर्वोपरि मार्ग उपलब्ध होता है। गरीब से गरीब आदमी भी अपने अन्तःकरण चतुष्टय द्वारा इतने अधिक आनन्दों को प्राप्त करता है जिनके कारण उसे एक स्वर से सौभाग्यशाली, सम्पन्न तथा ऐश्वर्यवान् कहा जा सकता है। इतने ऊँची स्थिति को प्राप्त करके हमें प्रसन्न होना चाहिए। इतना महत्व प्राप्त करने पर भी जो अपने की गिरी हुई स्थिति में अनुभव करता है, भाग्य को कोसता है, ईश्वर को दोष लगाता है, उसे क्या कहा जाय?

एक बार गंभीरतापूर्वक सृष्टि के समस्त जीव-जन्तुओं की स्थिति पर एक एक करके विचार कीजिए। केंचुआ, मछली, मक्खी, मकड़ी, मेंढक, कछुआ, कबूतर, सारस, बकरी, गधा, बैल आदि की कठिनाईयों पर अपनी कल्पना शक्ति को केन्द्रित कीजिए, उनकी दिनचर्या कठिनाई, असुविधा, विवशता तथा आनन्द की तुच्छता पर विचार कीजिए तब आपको प्रतीत होगा कि मनुष्य की अपेक्षा कितने पिछड़े हुए हैं यदि वे बेचारे ईर्ष्या कर सकते तो हमारे लिए कहते कि उनकी अपेक्षा हम उतने सुखी एवं उन्नत हैं जितना कि हम अपने से ऊँचा स्वर्ग लोग के देवताओं को समझते हैं।

इतना आगे बढ़े चढ़े होते हुए भी सिर्फ इसलिए अपने को अभागा मानना कि चार आदमियों के पास हमसे भी अधिक धन या चतुरता या सुविधा है- कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। हमें चाहिए कि अपने मनुष्य जीवन की महानता को पहचानें। अपनी शक्तियों सम्पत्तियों और सुविधाओं को अनुभव करें। अपने सौभाग्य को सराहें और इस सुअवसर का अधिक उत्तम सदुपयोग करने का प्रयत्न करें। जिससे और भी आनन्द मय भविष्य का निर्माण हो।

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