सत्संग और वातावरण का प्रभाव

April 1948

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(श्री आदित्य प्रसाद कटरहा दमोह)

भौतिक जगत में हम देखते हैं कि जब एक वस्तु दूसरे के साथ रहती है तब उन वस्तुओं में उनके गुणों का परस्पर आदान प्रदान होता है। अग्नि जल को गर्म करती और जल अग्नि को ठंडा करता है। उसी प्रकार सत्संग द्वारा भी परस्पर गुणों का आदान-प्रदान होता है।

एक साधारण पुरुष जब महात्माओं के बीच में पहुँच जाता है तब वह क्रमशः शुद्ध होने लगता है। उसका वातावरण बदल जाता है और वह बदली हुई परिस्थिति में स्वयं भी बदल जाता है। मनुष्य अपनी परिस्थितियों से प्रभावित रहता है। यदि वह छली, कपटी और धूर्त लोगों के बीच में पड़ जाता है तो वह प्रत्येक व्यक्ति को सन्देह भरी दृष्टि से देखने वाला बन जायेगा। उसे सब लोग कपटी और स्वार्थी प्रतीत होंगे और वह किसी के साथ स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहार न कर सकेगा। किन्तु यदि वही व्यक्ति महात्मा पुरुषों के बीच में रहने लगे तो उनके त्यागपूर्ण व्यवहारों से उसे यह अनुभव होगा कि मनुष्य का स्वभाव दिव्य है। उसे उनके साथ किसी तरह का सन्देह न होगा एवं वह सबके साथ खुलकर व्यवहार करेगा। इस तरह का वातावरण जीवन के लिए एक विडम्बना है और हम देखते हैं कि मनुष्य या इस तरह के लोगों के बीच में रहता है। उसकी धारणाएं तदनुकूल हो जाती हैं और उसे व्यवहार से हम पता लगा सकते हैं कि वह किस प्रकार के वातावरण में पला है।

यदि कोई व्यक्ति ऐसे वातावरण में पहुँच जाये जहाँ लोग उसे मूर्ख, अस्पृश्य और घृणास्पद समझने लगें तो उसके चित्त में आत्महीनता की ग्रंथि का निर्माण होने लगेगा और उसकी शक्तियाँ कठिन होने लगेंगी। वह अपना आत्म विश्वास, आत्म-गौरव और निर्भीकता खो बैठेगा और दुखी बन जायेगा। भारतवर्ष के अछूतों का यही हाल हुआ है। उन्हें जन्म जन्मान्तर से बुरे संकेत दिए गए हैं, जिन्हें हम पुनर्जन्म के सिद्धान्त की आड़ में उचित और पाप-परिक्षालक कहते रहे हैं। इस संकेतों ने ही उन्हें दास-स्वभाव वाला बनाया है। ऐसा वातावरण सचमुच जीवन के लिए एक अभिशाप है।

जिन्हें अपनी श्रेष्ठता का अभिमान होता है उनके बीच में रहना मानो अपने जीवन को दुखी बना लेना है। किन्तु यदि हम महात्मा श्री के बीच में रहें तो निश्चय ही हमारे अन्तस्तल में उनके सद्व्यवहारों के कारण आत्म-हीनता की ग्रंथि का निर्माण नहीं हो सकता। उनके साथ रहने से तो उल्टे ही ये ग्रंथियाँ मिट जाती हैं। जिस तरह कोई मनः शास्त्र विशेषज्ञ अपनी सहानुभूति के द्वारा चिकित्सा करते समय रोगी के गुप्त मनोभावों और रहस्यों को उससे कहलवा लेता है और ग्रंथि पड़ने के कारण को जानकर उसका निराकरण कर देता है उसी तरह सन्त-समाज में हमारे हृदय की ग्रंथियाँ उनके प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण खुल पड़ती हैं और हम अनुभव करते हैं कि हमारा हृदय हल्का हो गया और हमारे दीर्घ रोग की चिकित्सा हो गई।

संतों के समागम में रहकर हमें जीवन के प्रति स्वास्थ्य प्रद दृष्टिकोण प्राप्त होता है। उद्देश्यहीन जीवन के स्थान में हमारा जीवन उद्देश्य-युक्त हो जाता है और हम दूसरों का अन्धानुकरण नहीं करते।

मनुष्य के आचार-विचार के लिए उसका वातावरण बहुत अधिक अंशों में उत्तरदायी है। अतएव यदि मनुष्य अपने वातावरण को बदल डाले तो उसके आचार-विचार और स्वभाव में परिवर्तन सहज ही हो जायेगा। किन्तु वातावरण को बदलना, कहने में जितना सरल है, वास्तव में वह उतना सरल नहीं। सच तो यह है कि वातावरण को बदलना ही परोक्ष रूप से अपने आचार-विचार को बदलना है अतएव उसका बदलना उतना ही कठिन है जितना कि आचार-विचारों का। उदार-हृदय सहृदय व्यक्तियों का संग सबके लिए सुलभ है। गीता आदि धर्मपुस्तकों का संग सबको सुलभ है। प्रत्येक व्यक्ति वे-रोकटोक उनका सत्संग कर सकता है। किन्तु फिर भी उनके सत्संग से अनेकों प्राणी वंचित रहते हैं। उनका चित्त ही उन्हें उस सत्संग से वंचित रखता है। उनके हृदय में जो पूर्व संस्कार हैं वे ही बाधा डालते हैं और उन्हें सत्संग रुचता नहीं। बिना आचार-विचार बदले न तो हम सत्संग के योग्य बनते हैं और न बिना संगी साथियों को बदले हमारे आचार-विचार ही बदल सकते हैं। हमारे आचार-विचार और परिस्थितियाँ परस्पर एक दूसरे के परिणाम अथवा प्रतिबिम्ब हैं। अतएव अच्छे आचार-विचार वाला व्यक्ति ही सत्संग कर सकता है और हम कह सकते हैं कि जो महात्माओं का संग करता है उसका मानसिक धरातल निश्चय ही उच्च होना चाहिए।

सत्संग द्वारा आचार-विचार बदलने से मनुष्य के जीवन का दृष्टिकोण भी बदलना अनिवार्य है। जो व्यक्ति आज प्रत्येक कार्य करते समय व्यक्तिगत लाभ का लेखा जोखा करता है वही व्यक्ति सत्संग के प्रभाव से उन्हीं कार्यों को सामाजिक लाभ अथवा लोक-संग्रह की दृष्टि से करने लगे, यह भी सम्भव है। गाँधी जी के प्रभाव में आकर अनेकों धनियों ने अपने दृष्टिकोण को बदला यह तो सभी जानते हैं।

सत्संग से हमें अपने ध्येय की ओर तीव्रगति से बढ़ने के लिये प्रेरणा मिलती है। अपने आध्यात्मिक विकास के लिए साधन करना जिनका सहज स्वभाव हो गया है, उनके लिए सत्संग की आवश्यकता भले ही न हो किन्तु इतने जनों के लिए यह उत्साहवर्द्धक है। जिस विद्यार्थी ने व्यायाम करना अभी अभी शुरू किया है वह घर पर नित्य नियमित रूप से अकेले ही कितने दिनों तक व्यायाम करेगा। किन्तु यदि वही विद्यार्थी, अन्य व्यायाम-प्रिय विद्यार्थियों का संग पा जाये, तो उसके उत्साह में शिथिलता न आने पायेगी और धीरे धीरे व्यायाम करना उसका सहज स्वभाव हो जायेगा और फिर वह अकेले रहने पर भी उसी उत्साह से व्यायाम करता जायेगा। अतएव यदि आरम्भिक अभ्यासी को तीव्रगति से उन्नति करना है तो उसके लिए उत्साह अनिवार्य है।

जिस तरह कीड़े पर भृंगी का प्रभाव पड़ता है। इसी तरह सत्संग के द्वारा भी साधकों पर श्रेष्ठजनों का प्रभाव पड़ता है। यदि आप एक साधारण लौकिक प्राणी हैं और आपको किसी महात्मा-पुरुष की कृपा प्राप्त है तो उससे पत्र व्यवहार करने में और उसके दर्शन करने में आपको जो समय बिताना पड़ेगा उसके कारण आपके विचार बहुत कुछ उसकी ओर खिंचे रहेंगे और आपके जीवन का एक पर्याप्त हिस्सा उनके सत्संग सम्बन्धी विषयों के विचार में ही व्यतीत होगा और आप भृंगी-कीट-न्याय की नाईं धीरे-धीरे उनके ढाँचे में ही ढलते चले जायेंगे। इसलिए कहा है “महत्संगो दुर्लभश्चामाधश्च।”


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