पर छिद्रान्वेषण अर्थात् दूसरों के दोष देखना उनकी कमजोरियाँ निकालना, उनकी आलोचना करना मनुष्य को दोषी बनाता है किन्तु अपने दोषों को देखने और उनका निवारण करना आत्मोद्धार का अचूक उपाय है। महापुरुषों का वचन है-
यथाहि निपुणः सम्यक् परदोषेक्षणं प्रति तथाचेन्निपुणः स्वेषु को न मत्येत बन्धनात्।
अर्थात् “जैसे पुरुष परदोषों को निरूपण करने में अति कुशल हैं, यदि वैसे ही अपने दोषों को देखने में हों, तो ऐसा कौन है जो संसार के कठोर बन्धनों से मुक्त न हो जाय।” महापुरुष बनने का मार्ग आत्मशुद्धि है अतः चुन चुन कर अपने दोषों को निकाल डालिये। क्या आपके मन में दुर्बल विचार वासना से सनी हुई कुकल्पनाएँ आती हैं? क्या आप ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, व्यभिचार में लिप्त हैं? क्या शरीर के साज शृंगार के बन्धन आपको बाँधे हुए हैं? इन प्रश्नों का स्वयं उत्तर दीजिये। सचाई से आत्मविश्लेषण कीजिये।
अपने साथ कठोर रहिये, निष्पक्ष आलोचक बनिये। जो दोष हैं, उनके निवारण के लिए भीष्म प्रतिज्ञा कीजिये। उठिये, अपनी इन्द्रियों को वश में कीजिए और ब्रह्मचारी कह लाइए। अपनी इन्द्रियों की रखवाली वैसे ही करें जैसे एक कर्तव्यनिष्ठ सिपाही खजाने के दरवाजे की करता है। आत्मशुद्धि का मार्ग सर्वोत्तम है अतः इन्द्रियों पर पाप का कब्जा न होने पाये अन्यथा धर्म का खजाना रिक्त हो जायेगा। मन के संयम से स्वर्ग मिलता है, ब्रह्म के दर्शन होते हैं किन्तु अनियन्त्रित इन्द्रियाँ और विशेष कर कामेन्द्रियाँ तो प्रत्यक्ष नर्क की और दौड़ती हैं।
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