नैतिकता को ऊँची उठाओ।

April 1948

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(श्री दौलतराम जी कटरहा वी.ए.दमोह)

महात्मा एप्क्टेटस कहा करते थे कि भेड़ें जो घास-पात खाती हैं उसका ऊन बनाती हैं और अगर इंसान अन्न खाकर कुछ भी पैदा न करे तो वह पशुओं से भी बदतर है। संसार में जो प्राणी अपने आपको जीवित रहते हुए अधिक उपयोगी सिद्ध करते हैं उनकी नस्ल बनी रहती है और दूसरे काट डाले जाते हैं। बकरे को ही लीजिए। बकरा न तो दूध देने के काम का है और न बोझा ढोने का, इसलिए वह काट डाला जाता है पर बकरी दूध देती है इसलिए बकरियाँ कम काटी जाती हैं। अतएव यदि हम चाहते हैं कि हम संसार में भली भाँति बने रहें तो हमें चाहिए कि हम अपने आपको दूसरों के लिए उपयोगी साबित करें और अपनी उपयोगिता तथा सेवा -शक्ति को दिन प्रति दिन बढ़ाते रहें।

यदि हमारा जीवन उपयोगी है और जनता भी हमारी उपयोगिता को स्वीकार करती है तो हमें अपनी जीवन यात्रा के लिए सम्भल (पाथेय) कहीं भी मिल जायगा। उपयोगी व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है वहीं उसे उसकी जीवन यात्रा के लिए मार्ग-व्यय मिल जाता है। उसके लिए उसे चिन्ता करने की जरूरत नहीं। आप यदि अपने पास की वस्तु दूसरों को देने के लिए सदा उत्सुक रहेंगे तो आपको बदले में जीवन-यात्रा के लिए कुछ मिलता भी है इसकी चिंता करने की अधिक जरूरत न पड़ेगी। आप अपना कार्य करते जाइये, जो कुछ बने समाज को भेंट करते जाइये, आपको गुजर के लिए पैसा मिलता जाएगा। क्योंकि जैसा कि महात्मा इमरसन ने कहा है कि “उपयोगी मनुष्य की संसार को इतनी जरूरत है कि यदि वह जंगल में भी डेरा डालेगा तो लोग जंगल तक एक पक्का रास्ता तैयार कर लेंगे” तो क्या फिर भी उस व्यक्ति को उदरपोषण की चिन्ता से परेशान होना पड़ेगा?

लोग कहेंगे कि महाशय यह आपका कोरा आदर्शवाद है। यथार्थता की कसौटी पर कसे जाने पर यह बात खरी नहीं उतरती। इस आक्षेप को हम स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि बहुधा संसार का हित करने वाले लोग सूली पर चढ़ाए जाते हैं और मक्कारों की आव-भगत होती है। पहले जमाने में सुकरात, ईसा, मुहम्मद और दयानन्द जैसे समाज- सुधारकों के साथ लोगों ने जैसा व्यवहार किया वह तो लोग जानते ही हैं पर आज भी हम देखते हैं कि जिनका सिद्धान्त है कि ‘रोटी खाओ शक्कर से और दुनिया लूटो मक्कर से’ वे ही लोग संसार में ऐश आराम करते हैं और दूसरे सत्य-प्रिय लोगों को खड़े होने के लिए भी जगह नहीं मिलती। वेश्याएं जो दुनिया को बिगाड़ती हैं मजे मारती हैं पर सती स्त्रियों को भोजन वस्त्र भी कठिनता से मिलता है। जनता को उसकी लाचारी के कारण लूटने वाले लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं पर जी तोड़कर रात दिन परिश्रम करने वाले लोगों को मुँह के नेवाले भी नसीब नहीं होते। लोग कहेंगे की यह अपना अपना भाग्य है- पर हम पूछते हैं कि क्या यह दरअसल में अपना अपना भाग्य है अथवा भाग्य और ईश्वर की आड़ में समाज का पाप है? हम तो समझते हैं कि वेश्या इसलिए ऐश लूटती हैं कि समाज में पाप-प्रबलता अधिक है। ईमानदार व्यवसायी की अपेक्षा नशीली वस्तुएं बेचने वाला इसलिए अधिक धन-धान्य सम्पन्न है कि समाज का नैतिक धरातल अत्यन्त नीचा है, वह नादान है और हितप्रद वस्तुओं की अपेक्षा अपना नाश करने वाली वस्तुओं का अधिक मूल्य चुकाता है। समाज अपने अभिषेक के कारण जिन दूषित वस्तुओं में सुख मानता है उसकी ये लोग पूर्ति करते हैं इसलिए ये लोग ऐश लूटते हैं। समाज को यदि व्यभिचार-सुख और नशीली वस्तुओं की आवश्यकता न रह जावे तो आपको सती स्त्रियाँ कंगाल और ईमानदार व्यवसायी कभी गरीब न दिखाई देंगे। ‘उपयोगी व्यक्ति सुखी होता है’ यह सिद्धान्त तो अक्षरशः इनके सम्बन्ध में भी सत्य उतरता है। प्रश्न केवल यह रह जाता है कि समाज द्वारा उपयोगिता का अर्थ क्या लगाया जाता है। समाज जिसे अधिक उपयोगी समझता है उसे अधिक धन-सम्पन्न कर देता है।

आज हमारी निगाहों में चेतन की अपेक्षा जड़ का अधिक मूल्य है। हम आध्यात्मिक सुख की अपेक्षा भौतिक सुख को अधिक महत्व देते हैं और भौतिक ऐश्वर्य भोगने वाले का, आध्यात्मिक पुरुषार्थ करने वालों की अपेक्षा अधिक सम्मान करते हैं। अतएव यही कारण है कि भौतिक सुख सामग्रियों को उत्पन्न करने वाले लोगों की आर्थिक सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति अध्यात्म पुरुषार्थियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होती है। अतएव यदि किसी आत्म पुरुषार्थी का किसी समृद्धिशाली की अपेक्षा कम सम्मान होता है तो भूल समाज की है। इससे आत्म पुरुषार्थी की उपयोगिता कम नहीं होती। उसकी अवहेलना तो समाज की ही अज्ञानता का परिचालक है। अतएव केवल उपयोगी बनने से ही काम न चलेगा। आपको यह भी देखना होगा कि समाज का नैतिक धरातल ऊँचा उठता है और आपकी उपयोगिता समाज द्वारा स्वीकृत होती है। आप समाज को जो कुछ देते हैं समाज में उसको ग्रहण करने की योग्यता होने पर ही आप समाज द्वारा समाहृत हो सकते हैं। इसलिए समाज का नैतिक धरातल ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना भी आवश्यक है।

यदि समाज का नैतिक धरातल ऊँचा है तो उपयोगी बनना ही सच्चा धनी होना है। उपयोगिता एक ऐसी हुँडी है जिसे सर्वत्र भुनाया जा सकता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण इतना उपयोगी था कि उसके राज दरबार में हाजिर होते ही राजा खड़ा होकर उसका अभिवादन करता था। ब्राह्मण नंगे पैर यात्रा करता था पर क्या हम कह सकते हैं कि उसे धन-धान्य की कमी थी? राजा उससे धन-धान्य स्वीकार करने की याचना करता था पर यह उसे स्वीकार न था। वह साक्षात भू देव था। जहाँ वह जाता वहीं उसको लक्ष्मी मिल सकती थी इसलिए वह उसे लिए लिए फिरने की मूर्खता क्यों करता? इस तरह हम देखते हैं कि अच्छे समाज में हमारी सेवा-शक्ति व हमारी उपयोगिता ही हमारा सच्चा धन है। इस समय हम अपनी सेवाओं के मूल्य की चिंता न कर केवल उपयोगिता के सहारे ही निश्चित दुर्भाग्य से आज हम सच्चे अर्थ में धनी होना भूल गए हैं। हम आज अपने धन को अपने सच्चे पुरुषार्थ और योग्यता का माप दण्ड नहीं कह सकते। आज हम अपनी उपयोगिता के कारण धनी नहीं बल्कि लोगों को कष्ट दे सकने के कारण, अथवा खोटा माल दे सकने के कारण धनी बनते हैं। जिस अफसर से लोगों को अधिक हानि हो सकती है वह धनी बन जाता है। व्यापारी भी जनता को कष्ट देकर ही धनी बनते हैं। एक समृद्ध व्यापारी सारे देश का नमक खरीद लेता है और जब नमक की कमी के कारण भाव तेज हो जाता है तो बेच देता है। दूसरा व्यापारी घी में आलू या वनस्पति घी मिलाकर लाखों बना लेता है। इस तरह उपयोगी बनने के स्थान में जनता अभिशाप बनकर आज लोग धनी बनते हैं। ईश्वर वह दिन शीघ्र लावें जब लोग अपनी सेवा-शक्ति को ही अपनी अमूल्य सम्पत्ति मानेंगे।


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