भ्रम (चक्कर) रोग

April 1948

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(आयुर्वेदाचार्य पं. कृष्णाप्रसाद त्रिवेदी बी.ए.)

यह रोग आजकल हमारे नव शिक्षित तरुण पुरुष स्त्रियों में बहुतायत से प्रचलित हो गया है। इस रोग के रोगी के खड़े होने पर या किसी अन्यान्य प्रकार की तुच्छ शारीरिक चेष्टा करने पर, उसके नेत्रों के नीचे अन्धकार छा जाता है कभी कभी ऐसी अवस्था में रोगी चक्कर खाकर गिर भी पड़ता है। यदि रोगी इस दशा में गिरे नहीं, किन्तु चक्कर के भँवर में ही पड़ जाये तो उसको निकट की सारी वस्तुएं घूमती हुई दिखाई पड़ेंगी या मालूम होंगी।

इस रोग की प्रथमावस्था आँखों तले अन्धकार लाती है, दूसरी अवस्था मस्तक में चक्कर उत्पन्न करती है और तीसरी अवस्था पृथ्वी पर गिरा देती है। इस अंतिम अवस्था के बाद रोगी की दशा मृगी रोग के जैसी हो जाती है। दौरा भी आरम्भ हो जाता है। किन्तु मृगी रोग और इसमें अन्तर इतना ही पाया जाता है कि मृगी का रोगी अपने मुख से झाग गिराता हुआ हाथ पैर पटकता है, कभी-कभी कफ भी गिराता है और व्याकुलता प्रकट करता है। किन्तु इस प्रस्तुत रोग (भ्रम रोग) का रोगी, अन्तिम अवस्था के बाद से, केवल चुपचाप रहता है।

रोग का कारण- यह रोग प्रायः सर की कमजोरी के कारण उत्पन्न होता है। मादक द्रव्यों (गाँजा, चरस, सुपारी, पान, तमाखू, तेज चाय, शराब, मद्य आदि) के सेवन से, नजला या जुकाम के बाद किसी भूल से, मस्तक में अधिक ठंडी हवा लगने से, ठण्डे पदार्थों के अधिक सेवन से, प्राणवायु के बिगाड़ और दूषित मल से (दूषितमल से एक प्रकार की विषैली भाप निकलती है जो प्राणवायु से टकरा कर यह अवस्था उत्पन्न कर देती है, पित्त की अधिकता से, गर्मागर्म भोजन से और अधिक स्त्री प्रसंग करने से भी यह रोग पैदा हो जाता है।

रोग का स्वरूप और चिकित्सा-यदि कमजोरी, मादक, द्रव्य या शीत के कारण यह रोग हो तो इसकी आरम्भिक अवस्था में कानों में गुनगुनाहट, पेशाब में झागों का होना, पपोटे फड़कना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी अवस्था में सोना कम कर देना चाहिए छः घण्टे से अधिक नहीं सोना चाहिए। व्यायाम करना चाहिए। ठण्डी और अजीर्ण उत्पन्न करने वाली व भारी चीजें न खाना चाहिए। गुलबनपशाँ, कासनी के बीज और सोंफ 7-7 मासे, मुनक्का 6 नग और गाबजबाँ 5 मासे इन सबको रात्रि के समय गर्म पानी में भिगोकर तथा प्रातःकाल छानकर पीवे।

यदि यह रोग दूषित मल के कारण हो तो रोगी का चित्त हर समय चिंतितावस्था में रहता है। चुपचाप बैठे रहना अधिक पसन्द करता है। भयावने और झगड़ालू विचार उत्पन्न होते हैं, बुरे स्वप्न दिखलाई देते हैं, निद्रा बहुत कम आती है, कुपच होता है, अंधकार से भय मालूम देता है।

ऐसी अवस्था में समयानुकूल साधारण जुलाब लेना चाहिये। अजीर्ण पैदा करने वाले तथा मल संचय करने वाले पदार्थ जैसे शकरकन्द, अर्बी, लहसुन, प्याज, चने की दाल आदि नहीं खाने चाहिये। पित्तपापड़ा, चिरायता, सोंफ और गुलाब के फूल 7-7 मासे मुनक्का 9 नग से सब जल में मिला (जल 5 से 10 तोले तक) कुछ जोश देकर व छानकर तथा उसमें शरबत बनपशा 4 तोले मिला, आधा 2 प्रातः और संध्याकाल को पिलावे।

यदि यह व्याधि पित्त या गर्मी के कारण हो तो रोगी के सिर और आँखों में दर्द होता है आँखों में सूजन, मुख का वर्म पीलापन, प्यास की अधिकता, मुख का स्वाद कड़ुवा, पेशाब सुर्ख आदि लक्षण होते हैं। यदि रोगी का जी मचलता हो तो समझाना चाहिए कि असल कारण आमाशय में है। ऐसी अवस्था में पानी में नीबू का रस डालकर पिलाये। इससे यदि कैडडडडड हो जाय तो ठीक ही है। पित्त शीघ्र शाँत हो जाता है। गर्म पदार्थ न खायें। धूप में न फिरें, गुड़, तेल, लाल मिर्च, उड़द की दाल न सेवन करें। शारीरिक तथा मानसिक विशेष परिश्रम न करें।

इस पर कासनी बीज, खत्मीबीज, गुल बनफशा, नीम की कोफ्ल, नीलोफर और पित्त पापड़ा 7-7 मासे, उन्नाव 5 दाने, आलू बुखारा 5 नग इनको रात्रि के समय गर्म जल में भिगोकर प्रातः मल छानकर तथा उसमें शरबत नीलोफर दो तोला मिला सेवन करें। और श्वेत चन्दन को गुलाबजल में घिसकर कनपटी पर लेप करें।

यदि अधिक प्रसंग के कारण यह विकार हुआ हो तथा कुछ प्रमेह की भी शिकायत हो तो किसी सद्वैद्य द्वारा परीक्षा कराकर प्रमेद नाशक उपचार करें। ध्यान रहे वीर्यपात की अधिकता सैकड़ों रोगों की जड़ है। इस रोग का मूल कारण जो मस्तक की निर्बलता है वह भी प्रायः वीर्यपात ही से उत्पन्न होती है। अतः ब्रह्मचर्य धारण की परम आवश्यकता है।


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