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April 1948

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(डॉ. गोपाल प्रसाद ‘वंशी’, बेतिया)

बाहरी पदार्थों को अपने प्रति अनुसरण कराने के बजाय अपने मन को बाहरी पदार्थों के प्रति अनुसरण कराने का अभ्यास रखना यह सुख का सच्चा रहस्य है।

जिस प्रकार दिन के अन्त में रात और रात के अन्त में दिन आता है, उसी प्रकार हमेशा सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख होता है। जो इकट्ठा हुआ है, उसका क्षय होगा, जो ऊँचे चढ़ा है, वह नीचे गिरेगा, जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग होगा और जो जीता है उसका मरण होगा।

सारे भयों के ऊपर, निष्ठुर और निर्दय दैव के ऊपर और नीचे गरजती हुई अतृप्त तृष्णा के ऊपर ज्ञानी मनुष्य शान्त होकर स्थित रहता है।

बात बात पर विचार करो और सत्य को ढूँढ़ो।

सन्तोष जीवन का सबसे बड़ा धन है।

आकाँक्षा और इच्छा में अन्तर है। आकाँक्षा दया, प्रेम, सत्यता, पवित्रता आदि स्वर्गीय पदार्थों के लिये होती है, जिनसे आत्मिक सुख मिलता है। इच्छा- साँसारिक विषय वासनाओं और भोग-विलासों के लिये होती है, जिनसे इन्द्रिय-सुख मिलता है।

जहाँ वासना है वहाँ शान्ति नहीं। जहाँ शान्ति है, वहाँ वासना नहीं।

तुम अपनी स्थिति और अवस्था के स्वयं निर्माता हो। जितना तुम विषय वासनाओं में लिप्त होंगे और साँसारिक पदार्थों की इच्छा करोगे, उतना ही दुख उठाओगे और जितना तुम उनका त्याग करोगे, उतना ही सुख पाओगे।

स्वर्गीय राज्य के निवासी अपने जीवन से पहिचाने जाते हैं। प्रेम, हर्ष, शान्ति, संयम, नम्रता, दयालुता, सत्यता, सहनशीलता आदि गुण उनमें सर्वदा और सर्वत्र रहते हैं।

मन की वृत्तियों को रोकने का नाम मौन है।

अपने जीवन को स्वस्थ और सुखी रखना चाहते हो तो अपनी रुचि को स्वाभाविक और सरल बनाओ।

पवित्रता का जीवन सरोवर-सा शान्त, मन्द पवन-सा उन्मद और दुग्धफेन-सा उज्ज्वल होता है।

ईश्वर के लिये सम्पूर्ण जगत एक सुन्दर खेल मात्र है। जो निरा कंगाल है, उसे अपनी कंगाली को खेल समझना चाहिए। जो अमीर है, उसे अपनी अमीरी को खेल समझ कर भोगना चाहिये। विपद् आवे तो उसे भी मनुष्य सुन्दर खेल समझे और सुख मिले तो उसे भी सुन्दर खेल माने। जगत् केवल क्रीड़ा -क्षेत्र -खेल का मैदान है।

यदि तुम दुनिया को सुधारना और उसके दुखों एवं कष्टों को दूर करना चाहते हो, तो पहले अपने आपको सुधार लो।

जिस मनुष्य ने अपने हृदय को राग, द्वेष काम, क्रोधादि कषायों और कुत्सित इच्छाओं से रहित कर लिया है, उसके सुख और आनन्द की कोई सीमा नहीं।

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