मानवता का क्रन्दन

April 1948

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घोर हाहाकार मिट जाएगा धरातल का, पारावार दुख का अपार पट जाएगा?

हास बिखराएगा दिनेश का विकास मंजु, दामिनी का कुटिल विलास हट जाएगा।

गूँजेगी मधुर स्वर लहरी स्वमण्डल में, घन की घटा का कटु रोर मिट जाएगा।

छाएगा प्रभाव का प्रकाश मेदिनी में कब, तम-तोम-जाल यामिनी का कट जाएगा?

जाएगी अतल को जगत, की अशान्ति कब, भूतल पै शान्ति की पताका फहराएगी?

हिंसा वसुयाम रक्त-धारा है बहानी जहाँ, भ्रातृ-भाव-शीतल-समीर लहराएगी?

ग्राम, पुर, सरिता, विपिन, शैल, सिन्धु पर,नव्य भव्य युग की प्रभा अनूप छाएगी?

कब एक डोर में बँधेगी ये सकल सृष्टि, हर्ष की हिलोर चारों ओर सरसाएगी

भाई का बनेगा रक्त-शोषक न भाई कब, छल-छन्द की न भावना ये रह जायगी?

कब आँख खोलेगी मदान्ध ये मनुष्य-जाति, छोड़ेगी कुमार्ग,सत्य के सुगीत गाएगी?

अपने विनाश हेतु ज्ञान के विधान कर, रक्त ही से प्यास कब तक ये बुझाएगी?

कालिमा सकल मिट जाएगी हृदै की कब, दिव्य ज्ञान-ज्योति सुख-शान्ति सरसाएगी

घोर अविवेक की निशा में हो रहा है भ्रान्त, फूल क्या मिलेंगे तुझे शूल जब बोएगा?

भाव क्रूर आसुरी हृदै में भरे मानव! ये, कब तक नर-मुण्ड-माल तू पिरोएगा?

कब तक सोता तू रहेगा मोह-शय्या पर, पाएगा विषय फल, तब मूढ़ रोएगा।

सूखा जा रहा है अनजान रस जीवन का, चेत कब तक ये अमूल्य क्षण खोएगा?

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*समाप्त*


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