माँस से दूर रहिए

April 1948

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(डॉ. पी. आर. जैन)

मानव शरीर की बनावट और अवयवों को देखकर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि माँसाहार उसके लिए उपयोगी नहीं है। माँसाहार की बुराइयां सभी ने स्वीकार की हैं, चाहे हमारे प्राचीन महापुरुषों को ले लीजिये या वर्तमान पूर्वी और पश्चिमीय विद्वानों को। माँस खाने से दाँत में रोग तो उत्पन्न हो ही जाता है साथ ही सन्धि-वात आदि रोगों का कारण भी माँस ही है शरीर के अतिरिक्त माँसाहार से मन पर भी बहुत असर पड़ता है और क्रोध की भावना माँस खाने वाले व्यक्तियों में अधिकता से पायी जाती है। क्रोध हमारे स्वास्थ्य को नष्ट करता है वह भी एक मानी हुई बात है। यही कारण है कि माँस खाने वाले व्यक्ति कभी भी नीरोग नहीं रहते और माँस से जो विकार पैदा होता है वह बराबर स्वास्थ्य को गिराता रहता है।

संसार में जितने भी महान् पुरुष हुए हैं सभी ने माँसाहार की बुराई की है। भारतीय ऋषियों महात्माओं के अतिरिक्त भगवान बुद्ध, महावीर, सम्राट अशोक आदि ने भली भाँति इसकी बुराई की है। विदेशी महान पुरुषों में सुकरात, अरस्तू, पैथागोरस मैथ्यू, गैरीबाल्डी मिल्टन, नेलसन, शेली, पोप, जेम्स, पीटर आदि ने इसे बुरा बताया है। महात्मा, टॉलस्टाय ने माँसाहार के सम्बन्ध में लिखा है-

कुछ लोग कहते हैं कि माँसाहार अनिवार्य नहीं तो किन्हीं दशाओं में आवश्यक है। मैं कहता हूँ कि यह आवश्यक नहीं है। माँसाहार से मनुष्य की पाशविक वृत्ति बढ़ती है, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने एवं शराब पीने की इच्छा होती है।’

बहुधा लोग यह कहा करते हैं कि माँसादि खाने से मनुष्य में विशेष रूप से ताकत आती है। यह भी एक बड़ा भारी भ्रम है। कितने ही जानवर या पक्षी जिनका माँस खाकर शक्ति बढ़ाने की बात कही जाती है वे सभी घास खाते हैं। क्या माँस खाकर कोई मनुष्य हाथी के समान ताकतवर हो सकता है? कदापि नहीं। इसके विपरीत जितने पहलवान हुए है वे विशेष रूप से दूध और फल का ही सेवन करते हैं मरुभूमि में ऊँट ही जीवनदाता सवारी है और उसके बिना वहाँ काम ही नहीं चल सकता। उसकी सहिष्णुता और ताकत देखकर दंग रह जाना पड़ता है। लेकिन क्या वह कभी माँस खाता है? गाय के दूध और घी में कितनी शक्ति है लेकिन क्या वह कभी माँस छूती है? लेकिन माँस खाने वालों में शेर का गोश्त भी कोई खाता है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति है जो शरीर की ताकत बढ़ाने के लिये शेर आदि खूँखार जानवरों का माँस खाये? कदापि नहीं। इससे यह निश्चित है कि मनुष्य क्या जानवर तक को भी माँस उपयोगी नहीं है। स्फूर्ति में घोड़े, मृग आदि पशु केवल तृण खाते हैं।

कुछ समय पूर्व अमेरिका के येल विश्व विद्यालय के एक विद्वान प्रोफेसर ने इस सम्बन्ध में अनुसंधान किया था और उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि माँसाहारी पहलवानों की अपेक्षा शाकाहारी पहलवान अधिक बली थे और उनमें सहिष्णुता कहीं अधिक थी। बैठक करने में माँसाहारी पहलवान अधिक से अधिक 400 और शाकाहारी पहलवान 700 से भी अधिक बैठक कर सके। अन्य यूरोपीय देशों में भी इसकी परीक्षा की गयी है और यह परिणाम निकाला गया कि शाकाहारी पहलवान अधिक ताकतवर होते हैं और उनमें कही अधिक सहिष्णुता होती है। लम्बी दौड़ में भी जितने विजयी होते हैं, वे अधिकाँश में फलाहारी होते हैं। खासकर अण्डा खाने वाला व्यक्ति तो अधिक दौड़ ही नहीं सकता क्योंकि उसके शरीर में तुरन्त गर्मी भर जाती है। अनेक बार ऐसी परीक्षा की गयी और सदैव यही परिणाम निकला कि वास्तविक ताकत शाक, फल और दूध से मिलती है- माँस, मछली और अण्डे से नहीं।

इसके अतिरिक्त डाक्टरों और आविष्कारक विशेषज्ञों ने लिखा है कि शारीरिक और मानसिक शक्ति के अलावा फलाहार से शरीर की सुन्दरता बढ़ती है और मुख पर कान्ति तो फल और दूध की देन है। स्त्रियों की सुन्दरता तथा बच्चों में स्फूर्ति, तेज और बुद्धि लाने के लिए फल और दूध का ही सेवन करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि माँस से शक्ति वृद्धि की दलील व्यर्थ है और उसमें कोई तर्क या आधार नहीं है।

फिर अहिंसा की रक्षा भी तो करनी है। अपना पेट भरने के लिये एक अन्य जीव की निर्दयतापूर्वक हत्या करना कहाँ का मनुष्यत्व है? जब नाना प्रकार के अन्न, शाक, फल और दूध मनुष्य के लिये हैं तो फिर माँसाहार की आवश्यकता ही क्या है। अधिकाँश में माँस उन्हीं पशुओं का खाया जाता है जो दूध देते हैं इससे दूध की कितनी कमी है यह भारतीय खूब जानते हैं। यदि आज घर घर में घी-दूध की कमी न हो तो फिर ताकत बढ़ाने के ढोंग को बनाये रखने के लिये माँस का आश्रय ग्रहण न करना पड़े। दूध और फल से चेहरे पर जो लाल और चमक आती है तथा दिमाग जितना तेज होता है माँसाहार से उतना ही शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न होता है। नीचता, क्रूरता, अत्याचारादि का कारण प्रधानतया माँसाहार और मद्यपान है। वास्तव में माँसाहार और मद्यपान मानवोचित कार्य नहीं है।

संसार-प्रसिद्ध निरामिष भोजी महात्मा गाँधी की मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति संसार भर में विख्यात है और आज तक जितने भी पहुँचे हुए महात्मा तथा मनुष्य को उन्नति पथ पर चलाने वाले नेता हुए हैं, वे सब निरामिष भोजी थे। आज हम जिन टॉलस्टाय, एमरसन, थ्योरो, एडवर्ड, कारपेण्टर, रोमाँ रोलाँ आदि विदेशी मनीषियों का नाम सुन रहे हैं वे सभी जन्म से माँसाहारी होने पर भी अन्त जाकर निरामिष भोजन के परिणाम पर पहुँचे हैं। इससे मालूम होता है कि मनुष्यों के लिए निरामिष भोजन ही उपादेय है।

शाकाहार निरापद है परन्तु माँसाहार से अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। गो- माँस, शू-माँस और भेड़-माँस में अक्सर कोढ़ और अन्य रोग के कीटाणु रहा करते हैं। हिन्दुस्तान में अक्सर लोग बीमार जानवरों को ही लालच में बेचकर अपना पिण्ड छुड़ाते हैं, जिससे माँस खाने वालों को अक्सर बीमार जानवरों का माँस खाने को मिला करता है।

माँस अप्राकृतिक भोजन है। यही कारण है कि इससे शरीर में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। कथित सभ्य समाज इसके सेवन से कैन्सर, क्षय, ज्वर, कृमि आदि भयानक रोगों से पीड़ित है और ये रोग एक से दूसरे में फैलता है। माँस, मछली, अण्डे आदि खाने से शरीर में भयानक रोग उत्पन्न होते हैं और यकृत, यक्ष्मा, राजयक्ष्मा, मृगी, फीलपाँव, संधिवात, नासूर और अन्य भीषण दोष उत्पन्न होते हैं।

पश्चिमीय वैज्ञानिक और डॉक्टर लोग अपने देशवासियों को माँसाहार का परिमाण घटाने की सलाह दे रहे हैं और यही कारण है माँस के बदले वहाँ दूध, फल, अनाज वगैरह का अधिकाधिक प्रचार होता जा रहा है। जब शीतप्रधान देशों में आमिष भोजन अनुपयोगी सिद्ध होता जा रहा है तब भारतवर्ष जैसे ग्रीष्म प्रधान देश के लिये तो माँसाहार और भी हानिकारक है।


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