‘ओउम्’ परिचय

April 1948

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(श्री स्वामी सर्वदानन्द जी)

यदि इन अर्थों का व्याकरण की रीति से विस्तार किया जाये जो यह ‘ओम्’ शब्द अनन्तार्थ का द्योतक हो सकता है।

किसी भी पुरुष में इन अर्थों का समावेश नहीं हो सकता, क्योंकि वह अल्पज्ञ, एकदेशी, न्यूनता सहित और पूर्णता रहित है, अतएव पूर्ण परमात्मा का ही यह मुख्य नाम है। इस ‘ओम्’ शब्द का विभक्ति से भेद, वचन से व्यत्यय और लिंग सूचक प्रत्यय से परिवर्तन कभी भी नहीं हो सकता है। यह वृद्धि-ह्रसशून्य-सदा एक रस रहने से अव्यय संज्ञक है। इसके आगे विभक्ति आते ही अपने रूप खो देती है, अतएव यह अभेद्य है।

‘अ’ से विराट् अग्नि और विश्व का ज्ञान, ‘उ’ से हिरण्य गर्म वायु और तेजस का बोध, ‘म्’ से ईश्वर आदित्य और प्राज्ञ का परिज्ञान होता है। यह परमात्मा से पवित्र नाम ‘ऊँ’ विद्यमान है।

यजुर्वेद 40 वे अध्याय के 15 वे मंत्र का एक अंश है- ‘ओउम् स्मर’ ओम् का स्मरण कर। कठोपनिषद् में नचिकेता ने यमराज से ब्रह्म के संबन्ध में पूछा कि वह क्या है? इसका उत्तर देते हुए यम ने कहा ‘ओम् इमेत्नम’ अर्थात् वह ओम् नाम वाला परमेश्वर है।

गीता ने ‘ओम् इत्येकाक्षरं ब्रह्म’ एकाक्षरी ॐ को ब्रह्म कहा है।

तैत्तरियोपनिषद् में ‘ओउम् इति ब्रह्म’ ओम् ब्रह्म बताया है। आगे चलकर वहीं ‘ओउम् इति सर्वम्’ पद आता है। जिसमें सर्वव्यापी परमात्मा को ओम् कहा है। हमें परमात्मा के इस वैदिक नाम ‘ओउम्’ का नित्य जप करना चाहिए।

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