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April 1948

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‘मनुष्य का पहला कर्तव्य है- भय का नाश करना। हमें भय से मुक्त हो ही जाना चाहिये। जब तक निर्भय न होंगे, हम कुछ न कर सकेंगे। आदमी जब तक डर को अपने पैरों तले कुचल नहीं देता, उसके सभी कामों में गुलामों की-सी मनोवृत्ति और ऊपर का भपका- भरा रहता है, उसके विचार भी गुलामों और कायरों के से रहते है।’ - हीरोवशिंप कार्लाइल

मनुष्य निर्भय कैसे हो? इसका ठीक-ठीक जवाब तो वही दे सकता है, जिसने डर को भली भाँति जीता है। मैं अपने लिये इसका दावा नहीं कर सकता। फिर भी अपने जैसों के साथ विचार करने का यत्न करता हूँ।

एक किस्सा सुना है। किसी पंडित ने एक खलासी से पूछा-‘तुम्हारे बाप की मौत कैसे हुई?’ खलासी ने कहा- ‘एक बार जब वह जहाज पर सवार थे, जोरों का तूफान उठा और तूफान में जहाज के साथ वह भी डूब गये।’ पंडित न पूछा- और तुम्हारे दादा? खलासी- ‘सुना है, वह भी डूब ही गये थे, और उनके साथ मेरे दो चाचा भी मर गये थे।’ सुनकर पंडित तो दंग रह गये। कहने लगे-‘भले मानस, इतना होने पर भी तुम पानी का धन्धा नहीं छोड़ते? तुम्हें डर नहीं लगता?’ खलासी ने पूछा- ‘महाराज, आपके पिता जी की मौत किस तरह हुई थी’, पंडित ने कहा- ‘बहुत ही बूढ़े हो गये थे। कई दिनों तक बीमार रहे और घर में अपने बिछौने पर मर गये।’ खलासी- ‘अच्छा, और उनके पिता? पंडित- ‘वे भी उसी तरह बिछौने पर ही मरे।’ खलासी- ‘फिर भी आप बिछौने पर सोते हैं? आपको डर नहीं लगता?’

इन्हीं लोगों की विवाह-पद्धति का भी एक किस्सा सुना है। कहा जाता है, ब्याह के समय पुरोहित कन्या से पूछता है- ‘देखो बहन, यह दूल्हा दरिया में अपनी जिन्दगी बितायेगा, मस्तूल पर चढ़ेगा और वहाँ से गिरेगा। तूफान उठेगा और उसमें यह घिरेगा। बोलो, यह दूल्हा तुम्हें पसन्द है?” कन्या कहती है- “पसन्द है।” पुरोहित- “तो समझो, तुम्हारा ब्याह हो चुका आसीस देता हूँ।”

एक बनिये के लड़के को किसी ने कहा- ‘दो में से कोई एक चीज पसन्द कर लो- या तो अंधेरी रात में दस हजार रुपयों की थैली लेकर एक भयावने जंगल को पार कर आओ और थैली के मालिक बन जाओ, या पूर्वी अफ्रीका जैसे किसी कमाई वाले देश में हजार रुपये लेकर चले जाओ और अपनी तकदीर आजमा लो! बोलो, क्या पसन्द करते हो?’ लड़के ने छूटते ही कहा- ‘दूसरी चीज’। अंधेरी रात में इतनी बड़ी रकम के साथ अकेले जंगल पार करना उसे ज्यादा मुश्किल मालूम हुआ। अगर किसी राजपूत के लड़के से यही सवाल किया जाता, तो शायद वह पहली चीज पसंद करता। हजार रुपये की पूँजी पर रोजगार करने की बात में शायद उसे डर मालूम होता।

देहातियों को अंधेरी रात में बिना चिराग के कहीं भी जाने में कोई खतरा नहीं मालूम होता। शहर वाले अपने मकान के अहाते में भी बगैर चिराग के जाने की हिम्मत नहीं करते। जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले लोगों को शेर वगैरह का उतना डर नहीं लगता, जितना देहातियों और शहरियों को लगता है।

दूसरी तरफ, अगर किसी देहाती को कलकत्ता या बम्बई-जैसे शहर में लाकर अकेला छोड़ दिया जाय, तो वह इस कदर घबरा जायगा, मानो जंगली जानवरों के बीच छोड़ दिया गया हो!

इससे एक सबक यह सीखा जा सकता है कि जिस तरह के जीवन और परिस्थिति से हमें डर लगता हो, उसका हमें कुछ अनुभव कर लेना चाहिये। एक बार, दो बार, दस बार अनुभव करते करते डर कम हो जाता है।

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