(ले. पं. तुलसीराम शर्मा वृन्दावन)
पिता की मृत्यु के कारण दुखित भरत को श्री रामचन्द्र जी समझाते हैं-
तमेवदुखितंप्रेक्ष्य विलपंतयशस्रिनम्।
रामः कृतात्माभरतं समाश्वासयदात्मवाम्।
(वा0रा0 अयो0)
धीर और पवित्र हृदय वाले श्रीरामचन्द्रजी ने विलाप करते हुए यशस्वी भरत जी को समझाया।।
सर्वेक्षयान्ता निश्चयाः पतनान्ताः समुच्छ्र वाः संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं चं जीवितम्।।
जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है जहाँ उन्नति है वहाँ अवनति है जहाँ संग्रह है वहाँ नाश है जहाँ जीवन है वहाँ मरण है।।
यथा फलानाँ पकवानाँ नान्यब पतनाद् भयम्। एवं नरस्य जातस्य नान्यत्र मरणाद्भयम्।।
जिस प्रकार फल पक कर गिरता अवश्य है उसी प्रकार जन्म वाले का मरण निश्चित है।।
यथा गाँरदृढ स्थूलं जीर्णं भूत्वावमीदति। तथा व सीदन्ति नरा जरा मृत्यु वशंगताः।।
जिस प्रकार मजबूत खंभे वाला मकान भी पुराना होने पर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जरा और मृत्यु के वश पड़े हुए मनुष्य नष्ट हो जाते हैं।
अहोरात्राणि गच्छन्ति सर्वेषाँ प्राणिनामिह। आयूँषिक्षप यन्त्याशु ग्रीष्मेजलमिवाँशवः।।
दिन रात बीत रहे हैं और संसार में सभी प्राणियों की आयु का नाश कर रहे हैं जैसे ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें जल का नाश करती हैं।।
आत्मान मनुशोच्त्वंकिमन्य मनुशोचसि। आयुस्तुहीयते यस्य स्थितस्यार्थं गतस्य च।।
हे भरत! तुम अपने लिए (अपने आत्मा के उद्धार के लिए) सोचो, दूसरों के लिए क्यों सोचा करते हों। आयु तो सबकी घटती रहती है चाहे कोई चलता रहे चाहे बैठा रहे।।
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयाताँ महार्णवे। समेत्यतुव्यपेयाताँ कालंमासादय कंचन।। एवं भार्याश्च पुत्राश्च ज्ञातयश्च वसूनि च। समेत्य व्यवधावन्ति ध्रुवोयेषाँ बिनाभवः।।
जैसे समुद्र में बहते हुए दो काष्ठ कभी मिल जाते हैं कभी अलग हो जाते हैं उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब और धन कभी मिल जाते हैं कभी बिछुड़ जाते हैं इनका वियोग अवश्यंभावी है
मात्रकश्चिद्यथाभावंप्राणी समतिवर्तते। तेनतस्मिन्न सामर्थ्यं प्रेतस्यास्त्यनुशोचतः।।
हे भरत! इस संसार में कोई भी प्राणी यथा भिलाष (अपनी मर्जी तक) अपने भाई बन्धुओं के साथ सदा नहीं रह सकता। मौत पर किसी का वश नहीं। अतः मरे के लिये शोक करना व्यर्थ है।।
यथाहिसाथं गच्छन्तः व्रूयात् कश्चित्पथि स्थितः। अहमप्या गमिष्यामि पृष्ठतो भवता मिति।।
जिस प्रकार यात्रियों का दल रास्ते पर चला जाता है और राह में बैठा हुआ मनुष्य कहे कि तुम्हारे पीछे हम भी आते हैं।।
एवं पूर्वैर्गतोमार्गः पैतृ पितामहै ध्राव्म्। तमापन्न कथंशोचेद्यस्य नास्तिव्यतिक्रमः।। वयसः पतमानस्य स्रोतसोवानिवर्तिनः। आत्मासुखे नियोक्तव्यः सुखभाजः प्रजास्मृताः।।
इसी प्रकार बापदादे परदादों के चले हुए मार्ग पर आरुढ़ मनुष्य को क्यों शौच करना चाहिये। क्योंकि उस मार्ग पर चलने के अतिरिक्त और कोई गति नहीं।।
जिस प्रकार नदी की धार आगे ही बढ़ती है पीछे नहीं लौटती उसी प्रकार आयु घटती ही है बढ़ती नहीं यह देखकर आत्मा को सुख के साधन भूत धर्म कृत्यों में लगना उचित है क्यों कि यह प्रजा धर्म कृत्य करते हुए सुख भोगने के लिए है।।
सर्वेक्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रया। संयोगाविप्रयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्।।
संचय के साथ क्षय अवश्य है जहाँ उत्थान है वहाँ पतन है जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है जहाँ जीवन है वहाँ मरण है।।
पिता के शोक से दुखी भरत को श्री वशिष्ठ जी ने इस प्रकार समझाया।
शरीरं जड मर्त्यथ सपवित्रं विनश्वरम्। विचार्यमाणेशोकस्यनावकाश कथश्चन।।
शरीर जड़ अपवित्र नाशवान् है विचार करने पर इसके नाश होने में शोक के लिए कोई स्थान नहीं।।
तंशोचसि वृथैवत्व मशोच्यं मोक्षभाजनम्। आत्मानित्योऽव्ययः शुद्धोजन्म नाशादिवर्जितः।।
वे सर्वथा अशोचनीय मोक्ष के पात्र थे उनके लिये तुम वृथा शोक करते हो। आत्मा तो नित्य, अविनाशी, शुद्ध और जन्म नाशादि से रहित है।
पिता वा तनयोवापि यदि नृत्युवशंगतः मूढास्तमनुशोचन्ति स्वात्मताडनपूर्वकम्।।
यदि कोई पिता या पुत्र मर जाता है तो मूर्ख उसके लिए सिर फोड़ते हुए रोते हैं।।
निःसारेखलु संसारे वियोगो ज्ञानिनाँयदा। भवेद् वैराग्यहेतुः स शान्ति सौख्यं तनोति च।।
इस असार संसार में यदि ज्ञानियों को किसी से वियोग होता है तो वह उनके लिए वैराग्य का हेतु होता है सुख तथा शान्ति का विस्तार करता है।
जन्मवान्यदि लोकेऽस्मिंस्तर्हितंमृत्युरन्वगात्। तस्माद परिहार्योऽयं मृत्युँजन्मवताँसदा।।
यदि किसी ने इस लोक में जन्म लिया है तो मृत्यु भी अवश्य ही उसके साथ लगी है।
स्वकर्म वशतः सर्वजन्तूनाँ प्रभवाप्ययौ। विजानन्न प्यविद्वान्यः कथंशोचतिवाँधवान्।।
अपने कर्मानुसार ही सब जीवों के जन्म मरण होते हैं यह जानकर भी मूढ़ लोग बंधु बाँधवों के लिये क्यों शोक करते हैं।
ब्रह्माण्डकोटयोनष्टाः सृष्टयो बहुशोगतः। शुष्यन्ति सागराः सर्वे कै वास्थौ क्षणजीविते।
करोड़ों ब्रह्मांड नष्ट हो गए अनेकों सृष्टियाँ बीत गयीं। सम्पूर्ण समुद्र एक दिन सूख जायेंगे फिर इस क्षणिक जीवन में क्या आस्था की जाय।।
चलपत्रान्त लग्नाम्बु विन्दुवत्क्षणभंगुरम्। आयुस्त्यज्यत्यवेलायाँ कस्तत्रप्रत्ययस्तव।।
यह आयु हिलते हुए पते की नोंक पर लटकती हुई जलबिन्दु की समान क्षणभंगुर है। असमय छोड़कर चली जाती है उसका तुम क्या विश्वास करते हो।।
देही प्राक्तन देहोत्थ कर्मणा देहवान् पुनः। तद् देहोत्थेन च पुनरेवंदेहः सदात्मनः।।
इस जीवात्मा ने अपने पूर्व देह कृत कर्मों से यह शरीर धारण किया है और फिर इस देह के कर्मों से यह शरीर धारण करेगा। इसी प्रकार आत्मा को बार-बार शरीर की प्राप्ति होती है।
इतिसम्बोधितः साक्षाद् गुरुणा भरतस्तदा। विसृज्याज्ञानजं शोकं चक्रेस विधिवत् क्रियाम्
तब गुरु वशिष्ठजी के इस प्रकार समझाने पर भरत जी ने अज्ञानजन्य शोक छोड़कर पिता का अन्त्य कृत्य किया।।
हिरण्याक्ष के मारे जाने पर शोकाकुल माता दिति को हिरण्यकशिपु समझाता है कि-
भूतानामिहसंवासः प्रपायामिव सुब्रते। दैवे नैकत्रनीताना मुन्नीतानाँ स्वकर्मभिः।।
प्राणियों का जो समागम है वह प्याऊ पर इकट्ठे हुए पुरुषों के समान है। दैवयोग से इकट्ठे हो जाते हैं फिर बिछुड़ भी जाते हैं।
एक वृक्ष समारुढा नाना वर्णाविहड़्माः।
प्रभातेदिक्षु दशसु तत्रका परिदेवना।। चाणक्यनीति
सायंकाल को एक वृक्ष पर अनेक दिशाओं से आकर अनेक प्रकार के पक्षी इकट्ठे हो जाते हैं प्रातः काल होते ही चारों तरफ चले जाते हैं तो उसमें दुख किस बात का?
एकेऽद्य प्रातरपरे पश्चादन्येपुनः परे। सर्वेनिः सीम्नि संसारे यान्ति कः केनशोच्यते।।
कोई आज कोई कल कोई परसों इस प्रकार सब ही इस सीमा रहित संसार में चले जा रहे हैं तब कौन किसके लिए शोक करें?
येषाँनिमेषोन्मेषाँभ्याँ जगताँ प्रलयोदयौ। तादृशाः पुरुषा यातामादशाँ गण्नैबका।।
जिनके पलकों के खोलने मीचने से संसार की रचना व प्रलय होता है ऐसे पुरुष भी जब चले गये तब हम सरीखे पुरुषों की क्या कथा।
पृथिवी दह्यते पत्र मेरुश्चापि विशीर्यते। सुशोषसागर जलं शरीरे तत्रकाकाषथा।।
जहाँ प्रलय काल के समय पृथिवी जल जाती है सुमेरु पर्वत खण्ड-2 हो जाता है समुद्रों का जल सूख जाता है तब इस शरीर की क्या कथा।
एकासार्थ प्रयातानाँ सर्वेषाँ तत्रगामिनाम्। यद्यके स्त्वरितं यातस्तत्र का परिदेवना।।
किसी स्थान को एक साथ जाने वालों में से कोई एक शीघ्रता से चला गया तो उसमें दुख किस बात का?
माता पितृ सहस्राणि पुत्रदार शतानिच। तवानन्तानि यातानि कस्यते कस्यवाभवान्।।
तेरे हजारों माता, पिता, स्त्री, पुत्र आदि अन्नत हो गये जिसका तू और वे किसके अर्थात् कोई किसी का नहीं।
माशोकं कुरुतानित्ये सर्वस्मिनप्राण धर्मणि। धर्म कुरुत यत्नेन यो वःसह गमिष्यति।।
सम्पूर्ण प्राणी अनित्य हैं इस कारण मृत्यु प्राप्त का शोक न करें। यत्न पूर्वक धर्म कार्य को करो यह धर्म ही तुम्हारे साथ जायगा।
गंत्रीवसुमतीनाश सुदघिदैवतानिच। के न प्रख्यः कथंनाशं मत्यलोको नयास्यति।।
पृथ्वी, समुद्र, देवता, जब सभी का नाश है तो इस मृत्युलोक में किसका नाश न होगा।
पंचधा संभृतः कायो यदि पंचत्वमागतः। कर्मभिःस्व शरीरोत्थैस्तत्रका परिदेवना।।
पंचभूतों से बना हुआ यह देह यदि देह धारण जनित कर्मों के फल में पंचतत्व को प्राप्त हो जाय तो इसमें शोक किस बात का