आत्मा का यथार्थ ज्ञान संपादन करना प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक कर्तव्य है। आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म, अचल, शुद्ध और सच्चिदानन्द रूप है। जो मनुष्य यथार्थ ज्ञान दृष्टि से आत्मा को नहीं जानता, किन्तु भ्रम व अज्ञानवश होकर उसको कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुखी, स्थूल, कृश, अमुक का पिता, अमुक का पुत्र, अमुक की स्त्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इत्यादि भिन्न भिन्न प्रकार का समझना है, वह बड़ा अपराधी है।
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बीते हुए की चिन्ता न करो, जो अब करना है उसे विचारो और विचारो कि बाकी सारा जीवन केवल उस परमात्मा के ही काम में आवे।
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पराये पापों के प्रायश्चित की चिन्ता न करो, पहिले अपने पापों का प्रायश्चित करो।
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