मन के संयम का अनुभव

March 1941

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(ले. आनन्द कुमार चतुर्वेदी “कुमार”, छिबरामऊ)

संसार में कई प्रकार के बल परमात्मा ने बनाये हैं, यथा आत्मबल, मनोबल, विद्याबल, बुद्धिबल, धनबल इत्यादि आज मैं पाठकों को मनोबल लेख लिख कर उत्साह दिलाना चाहता हूँ।

मन एव मनुष्याणाँ कारणं बंध मोक्षयोः।

बंधाय विषयासक्तं ,मुक्तौ निर्विषयं स्मृतम्॥

मनुष्यों की पराधीनता तथा स्वतन्त्रता का कारण केवल मन ही है, जो मनुष्य संसारी भोग विलासों में आसक्त हैं, वह पराधीन हैं, तथा जो भोग विलासों में अनासक्त है, वही स्वतन्त्र हैं। मनुष्य जब सिंह तथा हाथी को अपने वश में कर लेता है, तब उनसे चाहे जो कुछ काम ले सकता है, कठिन से कठिन कार्य करा सकता है, जैसा कि प्रायः सरकसों में देखने में आता है। यदि सिंह तथा हाथी बेकाबू हो जाते हैं, तो सरकस के खिलाड़ी को मार डालते हैं। इसी प्रकार इस मन रूपी सिंह या हाथी को आप वश में करके इससे कठिन से कठिन काम ले सकते हैं, अपितु परमात्मा को भी प्राप्त कर सकते हैं। यदि आप मन के वश में हो गये तो यह भूत मार कर ही पीछा छोड़ता है, यथा रौरव नर्क की यातनाएँ भुगता है, मनोबल से ही मनुष्य दूसरों के हृदय की बात तुरन्त जान लेता है, तथा दूर देश का हाल कह देता है, भविष्य वक्ता भी हो सकता है। मनोबल से ही एक साधु ने रेलगाड़ी को चलने से रोक दिया था, मैस्मरेजम, मेन्टल टेलीग्राफी इत्यादि मनोबल से ही सफल होती हैं, पाश्चात्य देश निवासी जन आविष्कारों को दिखा कर मनुष्यों को अचम्भे में डाल रहे हैं महात्मा संजय धृतराष्ट्र को इन्द्रप्रस्थ (देहली) में बैठे हुये कुरु क्षेत्र के महाभारत का युद्ध समाचार प्रतिदिन सुनाते थे। इसी से राजर्षि विश्वामित्र ने दूसरी सृष्टि रच दी थी, मनोबल से ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जंगली रीछ को अपने सामने से भगा दिया था। मनोबल से ही महात्मा गाँधी की आज्ञानुसार करोड़ों भारतवासी उनकी आज्ञा पालन करने को तैयार हैं।

अब यह प्रश्न उठता है, कि मनोबल प्राप्त हो कैसे? इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है, कि मन को स्थिर करके उसे बलवान बनाना चाहिये क्यों कि मन की चंचलता मन को कमजोर बनाती रहती है। मन की चंचलता विशेष कर प्राणायाम ही से दूर होता है, परन्तु और भी ऐसे साधन हैं, जिन से मन की चंचलता न्यून हो सकती है। मैं स्वयं 9 वर्ष से (Bone T.B,) से प्रसिद्ध हूँ, परन्तु अपने मनोबल ही से इस शत्रु से संग्राम कर रहा हूँ। उसका अपने ऊपर काबू नहीं होने देता, उससे महीने दो महीने में तुमुल युद्ध हो ही जाता है, पर मैं तनिक भी परवाह नहीं करता, कारण यही है कि मैंने अपने मन को अधीन कर रक्खा है, पूर्ण संयम से रहता हूँ, मन को किन-किन उपायों से तथा साधनों से काबू में किया है, उन्हें पाठकों की भेंट करता हूं। मैं पालती ही मार कर बैठता हूँ। अपने मेरुदण्ड (रीढ़) को सदैव सीधा रखता हूँ अर्थात् गर्दन और पीठ तथा उदर बराबर सीधे रख कर अपनी दृष्टि को नाभिस्थल (टुँडी) पर जमाये रहता हूँ, उस समय अपने इष्ट देव कृष्णा भगवान का ध्यान करता हूँ, जब मन अपने स्वभावानुसार किसी संसारी विषय में चलायमान हो जाता है, तब मन जिस विषय को दौड़ता है, उसी विषय में मन को लगातार भगवान का ध्यान करने लगता हूँ। इस से मनकों शान्ति हो जाती है। प्रति दिन के छोटे-2 कामों के करते समय उसी कार्य में चित्त की वृत्ति रखता हूँ, फिर दूसरी तरफ वृत्ति को नहीं जाने देता। जब स्नान करता हूँ, तब वही विचार रखता हूँ कि स्नान से मेरा शरीर शुद्ध हो रहा है और रोमरन्ध्र स्वच्छ हो रहे हैं जिन से दूषित विकार निकल रहे हैं। जब भोजन करता हूँ तब विचार करता हूँ, कि श्रीकृष्ण भगवान का अमृतोमय प्रसाद पा रहा हूँ, जिससे मुझे शान्ति प्रदान होगी। मुझ में बल वीर्य बढ़ेगा। इत्यादि। इससे मन को रोकने की आदत पड़ गई है, उनकी चंचलता कम हो गई है।

यत्र यत्र मनोयाति ब्रह्मणस्थत्र दर्शनात, ।

मनसो धारणश्चैव धारणा सा परा मता॥

(त्रिपंचाग योग)

अर्थ—मन जिस-2 विषय में दौड़े उसी-2 विषय में श्री भगवान का दर्शन करे, आत्मानुभाव में समरस ज्ञान करते हुए सर्वत्र भगवान का विचार कर मन में धारणा करनी चाहिये, यही सुगम उपाय मन को काबू में करने के हैं। मेरे स्वयं अनुभव में आ रहे हैं, मैं आशा करता हूँ कि पाठक इससे लाभ उठायेंगे जैसा कि मैं उठा रहा हूँ।


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