भक्ति-योग

March 1941

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(स्व. श्री. विवेकानन्द जी महाराज)

एक जिज्ञासु अपने गुरु के पास गया और उनसे कहा—महाराज मैं धर्म प्राप्त करना चाहता हूँ। गुरु जी उस युवक जिज्ञासु की ओर देख कर जरा सा मुस्करा भर दिये, मुँह से कुछ न बोले। उस दिन से युवक प्रतिदिन ही आना और धर्म प्राप्ति के लिये आग्रह पूर्वक निवेदन किया करता। परन्तु गुरु जी बड़े ही चतुर थे, वे प्रति दिन ही युवक को टाल दिया करते थे। एक दिन धूप बड़ी तेज थी। गर्मी के मारे चित्त व्यग्र हो रहा था। उसी समय युवक फिर आया और गुरु जी से धर्म की प्राप्ति का उपाय पूछने लगा। गुरु जी ने युवक से कहा—बच्चा, आओ चलें, नदी में स्नान कर आवें। गुरु जी की आज्ञानुसार युवक नदी तट पर गया और पहुँचते ही जल में कूद कर गोता लगाया। युवक के पीछे ही गुरु जी भी कूद पड़े। युवक ने गोता लगाया ही था, कि गुरु जी ने उसे जोर से दबा लिया। उसे वे बड़ी देर तक पानी के नीचे दबाये रहे। जरा देर तक छटपटाने के बाद गुरु जी ने युवक को छोड़ दिया। युवक ने जब पानी से ऊपर सिर निकाला, तब गुरु जी ने उससे पूछा कि जब तक तू पानी में डूबा था, तुझे किस चीज की सबसे अधिक आवश्यकता मालूम पड़ रही थी? युवक ने उत्तर दिया कि साँस लेने के लिये जरा सी हवा की। यह सुन कर गुरु जी ने पूछा—उस समय हवा के लिये तू जितना व्यग्र था, क्या तुझे उतनी ही व्यग्रता ईश्वर के लिये भी है? यदि तुझे ईश्वर की प्राप्ति के लिये भी वैसी ही उत्कंठा है तो उसे एक क्षण में पा जाएगा। परन्तु जब तुझे उस तरह की उत्कंठा, उस तरह की पिपासा न होगी तो धर्म को, ईश्वर को प्राप्त करने में समर्थ न हो सकेगा। चाहे अपनी बुद्धि को कितना ही क्लेश क्यों न दे? चाहे कितनी ही पुस्तकें क्यों न रट डाल, चाहे जीवन पर्यन्त कितना ही पूजा-पाठ क्यों न करता रह, ईश्वर की प्राप्ति के लिये जब तक उस तरह की पिपासा न उत्पन्न हो जाए, तब तक तू एक नास्तिक के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, नास्तिक में और तुझ में अन्तर केवल इतना ही है कि उसकी भावना दृढ़ है और तू सन्देह में पड़ा है।

एक बहुत बड़े ऋषि थे। वे कहा करते थे कि—मान लीजिए किसी कमरे में एक चोर बैठा है, उसे यदि किसी तरह पता चल जाए कि पास वाले कमरे में अपरिमित स्वर्ण राशि भरी है। दोनों कमरों के बीच की दीवार भी इतनी मोटी और दृढ़ नहीं है कि उसमें नकाब लगाने में कठिनाई हो, तब चोर की क्या दशा होगी? उसे नींद न आवेगी। न तो वह भोजन कर सकेगा। उसका मस्तिष्क बार-बार इसी चिन्ता में लगा रहेगा कि यह सोना किस तरह मेरे हाथ लग सके। ऐसी परिस्थिति में संसार में जितने भी मनुष्य हैं, उन सबको यह विश्वास हो जाएगा कि वास्तविक सुख का, परमानंद का, ऐश्वर्य का आभार वर्तमान है, तो क्या वे उस सब ऐश्वर्य परमानन्द ईश्वर की प्राप्ति के लिये किसी तरह का उद्योग न कर केवल संसार के तुच्छ सुखों के ही फेर में पड़े रह जाते? जैसे ही किसी के हृदय में ईश्वर के प्रति विश्वास उत्पन्न होने लगता है, वैसे ही वह उसकी प्राप्ति के लिये उन्मत्त हो उठता है। दूसरे लोग अपनी-अपनी राह चले जावेंगे। परन्तु किसी व्यक्ति को जैसे ही इस बात का निश्चय हो जायगा, कि यहाँ हम जीवन का जो उपयोग कर रहे हैं, उससे भी अधिक महत्व का अधिक सुखमय कोई जीवन है, जैसे ही वह निश्चित रूप से यह अनुभव करने लगेगा कि यह इन्द्रिय सुख ही सब कुछ नहीं है, जब उसके हृदय में यह धारणा बद्धमूल हो जायगी कि यह तुच्छ भौतिक शरीर आत्मा के उस अविनाशी शाश्वत और अपरिसीम सुख की तुलना में कुछ भी नहीं है, तब वह उस अनन्त सुख को जब तक नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक पागल हुआ रहता है। यह उन्माद ही, यह पिपासा ही, यह अत्यासक्ति ही वह वस्तु है जो कि धर्म के उद्बोधन के नाम से अभिहित है। यह उद्बोधन आते ही मनुष्य धार्मिक होने लगता है, परन्तु इसके लिये बहुत समय अपेक्षित है। यह सब मूर्ति पूजा, पाठ-विधि, अनुष्ठान, स्तुति, तीर्थ-यात्रा, धर्मग्रंथ, घंटा, आरती तथा पुरोहित आदि तो प्रारम्भिक उपक्रम हैं, ये सब आत्मा की अपवित्रता और कल्मष नष्ट करने के लिये हैं। आत्मा जब निष्पाप एवं पवित्र हो जाता है, तब वह अपने आप पवित्रता के आभार, साक्षात् परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति के लिये सचेष्ट होता है। मान लीजिये कि चुम्बक के समीप ही लोहे का एक टुकड़ा पड़ा है, उसमें सदियों का मोर्चा लगा है। उस मोर्चा के ही कारण चुम्बक आकर्षित नहीं करता। परन्तु मोर्चा के छूट जाने पर जैसे ही वह लोहा साफ हो जाता है, वैसे ही चुम्बक उसे आकर्षित कर लेता है। इसी तरह मनुष्य की आत्मा जो कई युगों की मलीनता, अपवित्रता, दुराचार तथा इस तरह के पापों से आच्छादित रहता है, जब सतत् प्रयत्न से यह मलीनता छूट जाती है, तो प्राणी का आकर्षण आध्यात्म पथ की ओर होता है। जन्म जन्मान्तरों के शुभ संस्कार जब एकत्रित हो जाते हैं, तो मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति के लिये व्यग्र भाव से प्रयत्न करना आरम्भ करता है।


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