(महात्मा गाँधी)
स्वदेशी व्रत इस युग का महाव्रत है। जो वस्तु आत्मा का धर्म है, लेकिन अज्ञान या दूसरे कारण से आत्मा को जिसका भान नहीं रहा, उसके पालन के लिये व्रत लेने की जरूरत पड़ती है। जो स्वभावतः निरामिषाहारी है, उसे आमिषाहार न करने का व्रत नहीं लेना रहता। आमिष उसके लिये प्रलोभन की चीज़ नहीं होती, उल्टे आमिष देखकर उसे उल्टी आती है।
स्वदेशी आत्मा का धर्म है, पर वह बिसर गया है, इससे उसके विषय में व्रत लेने की जरूरत पड़ती है। आत्मा के लिये स्वदेशी का अन्तिम अर्थ सारे स्थूल सम्बन्धों से आत्यन्तिक मुक्ति है। देह भी उसके लिये परदेशी है। क्योंकि देह अन्य आत्माओं के साथ एकता स्थापित करने में बाधक होती है, उसके मार्ग में विघ्न रूप है। जीव-मात्र के साथ ऐक्य साधते हुए स्वदेशी धर्म को जानने और पालने वाला देह का भी त्याग करता है।
यह अर्थ सत्य हो तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि अपने पास-पड़ोस की सेवा में ओत-प्रोत हुए रहना स्वदेशी धर्म है। ऐसी सेवा करते दूर वाले बाकी रह जाते हैं अथवा उनको हानि होती है, ऐसा आभासित होना सम्भव है। पर वह आभास-मात्र होगा। स्वदेश की शुद्ध सेवा करने में परदेशी की भी शुद्ध सेवा हो ही जाती है। जैसा पिंड में वैसा ब्रह्माण्ड में। इसके विरुद्ध दूर की सेवा करने का मोह रखने में वह तो होती नहीं और पड़ोसी की सेवा छूट जाती है। यों न इधर के रहे न उधर के ही, दोनों बिगड़ते हैं। मुझ पर आधार रखने वाले कुटुम्बी जन और ग्रामवासियों को मैंने छोड़ दिया तो मुझ पर उनका जो आधार था वह चला गया । दूर वालों की सेवा करने जाने में उनकी सेवा करने का जिसका धर्म है, वह उसे भूलता है। वहाँ का वातावरण बिगाड़ा और अपना तो बिगाड़ कर चला ही था। ऐसे अनगिनत हिसाब सामने रख कर स्वदेशी-धर्म सिद्ध किया जा सकता है। इसी से स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः’ वाक्य की उत्पत्ति हुई है, इसका अर्थ यों किया जाय तो ठीक होगा कि ‘स्वदेशी पालते हुए मौत भी हो तो अच्छी, परदेशी तो भयानक ही है,” स्वधर्म अर्थात् स्वदेशी।
स्वदेशी न समझने में ही गड़बड़ होती है। कुटुम्ब पर मोह रख कर मैं उसे पोसूँ, उसके लिये धन चुराऊँ, यह स्वदेशी नहीं है। मुझे तो उनके प्रति मेरा जो धर्म है, उसे पालना है। उस धर्म की खोज करते और पालते हुए मुझे सर्वव्यापी धर्म मिल रहता है। स्वधर्म के पालन से पर धर्मी को या परधर्म को कभी हानि पहुँच ही नहीं सकती, न पहुँचनी चाहिये। पहुँचे तो माना हुआ धर्म स्वधर्म नहीं, बल्कि वह स्वाभिमान है। इससे वह त्याज्य है।
स्वदेशी का पालन करते हुए कुटुम्ब का बलिदान भी देना पड़ता है। पर वैसा करना पड़े तो उसमें भी कुटुम्ब की सेवा होनी चाहिये। यह सम्भव है कि जैसे अपने को खोकर अपनी रक्षा कर सकते हैं, वैसे कुटुम्ब को खोकर कुटुम्ब की रक्षा कर सकते हैं। मानिए, मेरे गाँव में महामारी हो गई। इस बीमारी के चंगुल में फँसे हुओं की सेवा में मैं अपने को, पत्नी को, पुत्रों को, पुत्रियों को लगाऊँ और सब इन रोग में फँस कर मौत के मुँह में चले जाएं तो मैंने कुटुम्ब का संहार नहीं किया, मैंने उसकी सेवा की है। स्वदेशी में स्वार्थ नहीं है अथवा है तो वह शुद्ध स्वार्थ है। शुद्ध स्वार्थ माने परमार्थ, शुद्ध स्वदेशी माने परमार्थ की पराकाष्ठा।
इस विचार-धारा के अनुसार मैंने खादी में सामाजिक शुद्ध स्वदेशी धर्म देखा। सब की समझ में आने योग्य, सभी को जिसके पालने की भारी आवश्यकता हो, ऐसा इस युग में, इस देश में कौन-स्वदेशी-धर्म हो सकता है? जिसके अनायास पालन से भी हिन्दुस्तान के करोड़ों की रक्षा हो सकती है ऐसा कौन सा स्वदेशी धर्म हो सका है? जवाब है चरखा अथवा खादी।
कोई यह न माने कि इस धर्म के पालन से परदेशी मिल वालों को नुकसान होता है। चोर को चुराई हुई चीज़ वापस देनी पड़े या वह चोरी करते रोका जाय तो उसमें उसे नुकसान नहीं है, फायदा है। पड़ोसी शराब पीना या अफीम खाना छोड़ दे तो इससे कलवार को या अफीम के दुकानदार को नुकसान नहीं लाभ है। वे वाजबी तरह से जो अर्थ साधते हों, उनके इस अनर्थ का नाश होने में उनको और जगत को फायदा ही है।
पर जो चरखे द्वारा जैसे-जैसे सूत कात कर खादी पहन-पहना कर स्वदेशी धर्म का पूर्ण पालन हुआ मान बैठते हैं, वे महामोह में डूबे हुए हैं। खादी यह सामाजिक स्वदेशी की पहली सीढ़ी है, इस स्वदेशी धर्म की परिसीमा नहीं है। ऐसे खादीधारी देखे गये हैं, जो और सब सामान विदेशी रखते हैं; वे स्वदेशी का पालन करने वाले नहीं कहे जा सकते, वे तो प्रवाह में बहने वाले हैं। स्वदेशी व्रत का पालन करने वाला बराबर अपने आस-पास निरीक्षण करेगा और जहाँ-जहाँ पड़ोसी की सेवा की जा सकती है अर्थात् जहाँ उनके हाथ का तैयार किया हुआ आवश्यक माल होगा वहाँ वह दूसरा छोड़ कर उसे लेगा फिर चाहे स्वदेशी वस्तु पहले महँगी और कम दर्जे की हो। व्रत धारी इसे सुधारने और सुधरवाने का प्रयत्न करेगा। कायर बन कर, स्वदेशी खराब है, इससे विदेशी काम में नहीं लाने लग जाएगा।
किन्तु स्वदेशी धर्म जानने वाला अपने कुँए में डूबेगा नहीं। जो वस्तु स्वदेश में नहीं बनती अथवा महा कष्ट से ही बन सकती है उसे परदेश के द्वेष के कारण अपने देश में बनाने बैठ जाए तो उसमें स्वदेशी धर्म नहीं है। स्वदेशी धर्म पालने वाला कभी परदेश का द्वेष करेगा ही नहीं। अतः पूर्ण स्वदेशी में किसी का द्वेष नहीं है। यह संकुचित धर्म नहीं है। वह प्रेम में से, अहिंसा में से पैदा हुआ सुन्दर धर्म है।