भजन से रोग मुक्ति

March 1941

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(ले.—श्री गणेशप्रसाद, मंझनपुर, इलाहाबाद)

मानव समाज में कुछ ऐसे नास्तिक एवं अभिमानी सज्जन अवश्य मिलेंगे, जो बहुधा अपने अहंकार में डूबे रहते हैं, यह उनकी मूर्खता के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। वास्तव में बिना ईश्वरेच्छा के डाली में लगा हुआ पत्ता तक नहीं हिल सकता। युद्धस्थल में सहस्रों, लाखों योद्धाओं में से एक वीर जिसमें विशेष शक्ति है, निकल कर विरुद्ध पक्ष के सैकड़ों योद्धाओं को मार-काट कर धराशायी बना देता है। संयोगवश जब वही वीर युद्धस्थल में मारा जाता है, तो उसे श्मशान तक पहुँचाने के लिये सहायकों की आवश्यकता होती है। भला सोचिये तो! अब उसकी शक्ति कहाँ अन्तर्ध्यान हो गई? जिससे उसमें उठने चलने तथा जन-संहार की सामर्थ्य जाती रही। इसी प्रकार जो राजा करोड़ों मनुष्यों पर कुछ समय पूर्व शासन करता था, मृत्यु प्राप्त होने पर उसकी सारी दशा में परिवर्तन हो जाता है। तब भी उसके लिये डॉक्टर, वैद्य प्रत्येक प्रकार की सामग्री, धन तथा जन सभी उपस्थित रहते हैं, किन्तु उन्हें ऐसा सामर्थ्य नहीं जो उसके पार्थिव शरीर में जीवन शक्ति उत्पन्न कर दें। क्या वैद्य, डॉक्टर की कुशलता राजा के उस मृत देह को देख कर कर्पूर बन जाती है अथवा औषधि का तत्व ही निकल जाता है? ऐसे समय में नास्तिकों और अभिमानी सज्जनों की आँख खुल जाती हैं तथा कोई उत्तर मुख से नहीं निकलता। माता के गर्भ में कलल तथा भ्रूण का पालन और उसकी रक्षा दश मास तक कौन करने जाता है? शिशु के उत्पन्न होते ही माता के स्तनों में दूध का प्रबन्ध करने वाला कौन है और उसे जन्म लेते ही स्तन पान करना कौन सिखाता है? बन्दर का बच्चा जन्म लेते ही डाल पकड़ना कैसा सीख जाता है? चट्टान के गर्भ में निवास करने वाले मेढ़क को भोजन देने कौन जाता है? उपरोक्त प्रश्नों पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने पर हृदय में यह बात अपने आप उत्पन्न हो जाती है कि इन सब कार्यों के सफल बनाने वाली कोई गुप्त शक्ति अवश्य है जो मनुष्य की शक्ति के परे है। मनुष्य उसमें बिना भगवत्—कृपा कुछ नहीं कर सकता। इस तरह संसार के प्रत्येक कार्य में ईश्वर की प्रेरणा उपस्थित रहती है, जिसे प्रत्येक मनुष्य हर समय अनुभव नहीं कर सकता।

मुझ जैसे संसारी एवं अज्ञानी मनुष्य को अब तक परमात्मा की सत् प्रेरणा या कृपा का विशेष अनुभव केवल आर्त होने पर हो सका है। इससे ऊँचे अधिकार का पात्र अभी परमात्मा ने मुझे नहीं बनाया। मैं स्वयं लगातार 3 वर्ष तक ञ्जह्वड्ढद्गह्ष्ह्वद्यड्डह् ्नड्ढह्यष्द्गह्यह्य वृणाक्षय से पीड़ित रहा। अनेक प्रसिद्ध 2 डाक्टरों, वैद्यों एवं हकीमों से औषधि कराने के लिये प्रदेश-2 मारा-2 फिरता रहा किन्तु मेरी दशा उत्तरोत्तर बिगड़ती ही चली गई। आत्मीय जन, मेरे इलाज में वर्षों से तन-मन और धन लगाकर असफलता ही का साक्षत्कार करते-2 निराश एवं दुःखी हो गये। प्रभावतः उन्होंने मुझ से अपने आन्तरिक भाव तक प्रकट कर दिया कि “मेरे शरीर की मृत्यु सन्निकट है, अब औषधि व्यर्थ है, केवल परमात्मा की ही शरण ग्रहण करना चाहिये। मनुष्य अपने शरीर को नश्वर समझता हुआ भी उसके विनाश के नाम से दुःखी होता है, अतएव मेरे हृदय में भी अज्ञानता से आत्म वेदना की टीस उठी। मैंने वृद्ध सज्जनों की आज्ञा शिरोधार्य कर अपने को ईश्वरार्पण कर दिया और यह विश्वास कर कि “सर्व शक्तिमान परमेश्वर मेरे हार्दिक करुण क्रन्दन तथा आत्म विश्वास को ठुकरा नहीं सकता वह जो कुछ करता है, सब अच्छा ही करता है और वह अवश्य ही मुझे अपनी विशेष कृपा का अधिकारी समझ अवश्यमेव रोग मुक्त करेगा।” मैं भी भगवद्-भजन में अपना अधिकाँश समय बिताने लगा, दुखी हृदय से ईश्वर से प्रार्थना करना आरंभ कर दिया। साथ ही इलाज भी करता रहा, अन्त में परमात्मा ने कुछ मास पूर्व मुझे दुःखावर्त से बाहर निकाल आरोग्य प्रदान किया।

अब इस समय मैं अपनी रोग मुक्ति के लिये परमेश्वर को कोटिशः प्रणाम करता रहता हूँ और जब कभी कोई ठोकर लगती या ज्वर आ जाता है, तो दुःखी हृदय से जगदीश्वर को स्मरण करता हूँ तथा उसकी कृपा समझ कर कहता हूँ कि “हे ईश्वर! तू मुझे इसी प्रकार सचेत करता रह, जिससे मेरे पापों या कुकृत्यों का खाका मेरे आँखों के सामने आता रहे और मैं भावी जीवन में उनसे बच कर जीवन लक्ष्य पर आत्म साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकूँ।”


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