(ले0—मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न बिसवाँ, सीतापुर)
(1)
बढ़ पाप का राज्य गया महि पै,
ऋषियों के सुकर्म हैं ध्वंस हुये।
शुचिधर्म का अंकुश जाता रहा,
नर-नारी सभी हैं नृशंस हुये।
इससे बढ़ क्या परिवर्तन जो,
खल-काग भी उज्ज्वल हंस हुये?
अब माधव! आकर रक्षा करो,
वसुधा पै अनेक हैं कंस हुये।
(2)
तब कालिया-नाथना झूठ न है,
मन-चंचल को यदि नाथ सको।
तब जानूँ सुदामा-कथा सच जो,
इस दीन का भी निभा साथ सको।
सच पाँडवों को भी कथा तभी है,
कर जो मुझको भी सनाथ सको।
तब माधव! मानूँ तुम्हें सच जो,
भव-सागर में गह हाथ सको।
(3)
तब द्रौपदी की कथा सत्य कहुँ,
इन इन्द्रियों की जब लाज बचाओ।
गिरि था जो उठाया कभी तो उठो,
गिरे मानवता का न ताज बचाओ।
कुरु-वंश को मेट बचाया सुधर्म तो,
डूबता देश -जहाज बचाओ।
यदि माधव! हो वही रक्षक तो,
‘अहंमन्यता’ से प्रभो! आज बचाओ।