माधव!

March 1941

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(ले0—मास्टर उमादत्त सारस्वत, कविरत्न बिसवाँ, सीतापुर)

(1)

बढ़ पाप का राज्य गया महि पै,

ऋषियों के सुकर्म हैं ध्वंस हुये।

शुचिधर्म का अंकुश जाता रहा,

नर-नारी सभी हैं नृशंस हुये।

इससे बढ़ क्या परिवर्तन जो,

खल-काग भी उज्ज्वल हंस हुये?

अब माधव! आकर रक्षा करो,

वसुधा पै अनेक हैं कंस हुये।

(2)

तब कालिया-नाथना झूठ न है,

मन-चंचल को यदि नाथ सको।

तब जानूँ सुदामा-कथा सच जो,

इस दीन का भी निभा साथ सको।

सच पाँडवों को भी कथा तभी है,

कर जो मुझको भी सनाथ सको।

तब माधव! मानूँ तुम्हें सच जो,

भव-सागर में गह हाथ सको।

(3)

तब द्रौपदी की कथा सत्य कहुँ,

इन इन्द्रियों की जब लाज बचाओ।

गिरि था जो उठाया कभी तो उठो,

गिरे मानवता का न ताज बचाओ।

कुरु-वंश को मेट बचाया सुधर्म तो,

डूबता देश -जहाज बचाओ।

यदि माधव! हो वही रक्षक तो,

‘अहंमन्यता’ से प्रभो! आज बचाओ।


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