अहंभाव का प्रसार करो

March 1941

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(ले.—श्रीशिवानायण शर्मा हैडमास्टर, आगरा)

(ब्राह्मण)

पृथ्वी पर यदि कोई देवता है तो ब्राह्मण (भूसुर) ही हैं, इसी से वे भूदेव नाम से प्रसिद्ध हैं। जगत के हित के लिये जो आत्म समर्पण करे जगत उनके चरण-प्रान्त में पड़कर कृतार्थ हो; चन्दन मान कर उनकी चरण-रज द्वारा देह आच्छादित करने को व्याकुल होता है, एवं अमृत के समान जानकर उनका चरणोदक पान के लिये लोलुप रहता है, चाहे चक्रवर्ती राजा हो सके, कुबेर से भी अधिक धनवान हो सके, परन्तु यदि आप में परोपकार वृत्ति न रहे तो जगत् कभी आप के समीप शिर न झुकाएगा। आप चाहे रावण की तरह देव देवियों को दास दासी बना कर रख सकें, चाहे जरासन्ध की तरह राजाओं को कैद में रख सकें, किन्तु यदि आप में परोपकार वृत्ति न रहे और अहंभाव का प्रसार न हो तो छोटे से छोटा मनुष्य भी आपके सामने शिर न झुकाएगा। राज महल निवासी भी पर्ण कुटीर वासी के चरणों पर शीश झुकाकर आनन्द से विह्वल होते हैं, मर्त्य में स्वर्ग का अनुभव करते हैं, अपने को दासानुदास जान कर भी तृप्त नहीं होते, इसका गूढ़ रहस्य क्या है? जो उत्तम प्रकार से भोजन करके भी तृप्त नहीं होते, वे हविष्यान्न भोजी के प्रसाद के इच्छुक, राजाधिराज भिक्षुक के पैरों पर लोटते हैं, इस का गूढ़ रहस्य क्या है?

पाठक! एक बार विचार कर इसका रहस्य देखिए? यदि कोई हम से पूछे कि भारतवासी पराधीन क्यों हैं? तो इसके उत्तर में हम यही कहेंगे कि भारतवासियों में से ब्राह्मणता लुप्तप्राय हो जाने से लाखों भारतवासी आज जो अन्न के प्रभाव से काल के ग्रास हो रहे हैं, लाखों भारतवासी आज जो मलेरिया, हैजा, प्लेग आदि रोगों से आक्रान्त होकर मृत्यु मुख में पड़ते हैं, निश्चय समझिये कि वे केवल भारत में ब्राह्मणों के प्रायः न होने से। केवल ब्राह्मणों का अभाव ही इस दुर्गति का कारण है। ज्ञान विज्ञान, धन, स्वास्थ्य, प्राचीन समय में सब ब्राह्मणानुगत थे, एक के अभाव से भारत में सब का अभाव हुआ है। जब भारत में ब्राह्मण थे, तब धन, विद्या, बल, आयु, स्वाधीनतादि सब कुछ था वृक्ष की जड़ कट जाने पर क्या कभी डाली और पत्ते जीवित रह सकते हैं? समाज के जीवन स्वरूप ब्राह्मण न रहने से समाज क्या कभी जीवित रह सकता है?

ब्राह्मणों के अभाव से समग्र हिन्दू समाज मृतप्राय है। इस मृत समाज को ब्राह्मण के सिवाय और किसी की सामर्थ्य नहीं जो फिर जीवित कर सके, मृत संजीवन मन्त्र द्वारा यदि ब्राह्मण इस मृत भारत को फिर जीवित कर सके तो ही भारत फिर जागृत होकर सभ्य समाज के शीर्ष स्थान पर अधिकार कर सके ।

स्वयं भगवान विष्णु ने भी ब्राह्मण के चरण छाती पर धारण कर अपने को पवित्र माना है, पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में ब्राह्मण के पाँव धोने का कार्य भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं स्वीकार किया था। ब्राह्मण मर्त्य में केवल देवता ही नहीं हैं बल्कि यह “साक्षात् ब्रह्म हैं। ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति” ब्रह्मवित् स्वयं ही ब्रह्म है। जिसको ब्रह्म साक्षात्कार हुआ है। जो अपने “मैं” में सारे विश्व का मैं देखता है, और जो विश्व के “मैं” में अपना मैं देखता है, वह यदि मानव का आराध्य न होगा, तो फिर आराध्य होगा कौन?

मानव यदि उनका पादोदक न पान करे, उन की पदरज शिर पर धारण न करे, तो फिर मानव और पशु में भेद ही क्या ? निर्गुण ब्रह्म की उपासना नहीं होती, ब्रह्मविद् ब्राह्मण ही सगुण ब्रह्म स्वरूप हैं, अतएव ऐसे ब्राह्मण ही मानव के पूज्य भूदेव हैं। ब्राह्मण का उच्च आदर्श अनुसरण कर के ब्रह्म के समीप गमन करते हैं। जब भारत में ब्राह्मण थे तब यही विधि प्रचलित थी। ब्राह्मणों का अभाव होने पर ही प्रतिमा पूजा का नियम प्रचलित हुआ। हाय हिन्दू समाज! तुमने ब्राह्मणों का तत्त्व न समझ कर, ब्राह्मण का ध्वंस साधन करके, यह काल और प्रकाल दोनों ही गँवा दिये। विचार देखिये कि आपकी क्या दशा है? आप क्या थे और अब क्या हो गये हैं?

मानव मानव का पूज्य है कैसे? आप दस हज़ार हाथी का बल रखते हैं, परन्तु यदि आपका बल जगत के उपकार में सहायक न हो बल्कि जगत को पीड़ा देने में नियोजित होने लगे, तो आप की कौन पूजा करेगा? पाशव बल ही यदि जगत में पूज्य होता तो सिंह, व्याघ्र, हाथी, गेंडा, आदि भी देवताओं के सिंहासन पर अधिकार कर लेते। परोपकार वृत्ति ही पूज्य होने का अधिकार प्रदान करती है। आकाश मण्डल में सूर्य से बहुत बड़े-बड़े ज्योतिषीय मण्डल हैं, किन्तु वे सूर्य की तरह पूज्य क्यों नहीं हैं? सूर्य जिस तरह जगत का कल्याण करने में नियुक्त है; वे उस तरह न होने से। सूर्य कभी आपसे पूजा नहीं चाहते, किन्तु सूर्य की परोपकार वृत्ति स्मरण करके आप स्वतः प्रवृत्त होकर उनके लिये शिर झुकाते हैं, शिर झुकाने को तुम्हें कोई बाध्य नहीं करता, कोई बाह्य बल प्रयोग नहीं करता।

आप वृहस्पति से भी बढ़कर शास्त्र भिज्ञ हो सकते हैं, किन्तु आप का ज्ञान यदि संसार चक्र के आवर्तन के अनुकूल न हो तो आपके ज्ञान का फल क्या हुआ। बन्ध्या स्त्री क्या कभी पुत्रवती के स्थान पर अधिकार पा सकती है? पत्नी रूप गुण सम्पन्न होने पर भी यदि बन्ध्या हो तो स्वामी के चित्त का अभाव दूर नहीं होता। पुत्र के अभाव से पत्नी पत्नी तुल्य नहीं है। बड़े यत्न से पाले हुए वृक्ष पर यदि फल न आवें तो मनुष्य उसे कुठार से कटवा डालते हैं। अतएव परोपकार वृत्ति ही जगत में आहत और जगत में पूज्य होने का एक स्पष्ट कारण हैं। आपके भण्डार में यदि अक्षय धन रहे, पर वह दीन दुखियों के दुख निवारण में न खर्च किया जाय, तो आपके धन का मूल्य क्या? सागर गर्भ अथवा खान में भी तो धन रत्न निहित हैं। खान का धन यदि खान में ही रह जाए, मनुष्य यदि उसे जगत के व्यवहार में न ला सके तो वह धन न रहने के समान है दरिद्रता सदा ही धनवान कृपण के पूज्य हुआ करते हैं। परोपकार वृत्ति अहंभाव का प्रसार ही मनुष्य से मनुष्य की पूजा कराता है। अहंभाव के प्रसार के कारण ही मनुष्य पशु पक्षियों से श्रेष्ठ है, पशु पक्षी वृक्षादि से श्रेष्ठ हैं। और वृक्षादि प्रसार आदि से श्रेष्ठ हैं। अहंभाव के प्रसार के कारण ही वैश्य शूद्र से, क्षत्रिय वैश्य से और ब्राह्मण क्षत्रिय से श्रेष्ठ है। जो जितना अपना पराया भेद ज्ञान नष्ट कर सके, जो जितना पर को अपना जान सके, जो जितना अपने को भूलकर पर के साथ अपने को मिला सके, जो जितना तामसिक “मैं” को राजसिक “मैं” और राजसिक “मैं” को सात्विक “मैं” कर सके, वह उतना ही पूज्य है। जो अब्राह्मण चाण्डाल पर्यन्त किसी के भी पद प्रान्त में पड़ने से कुण्ठित न हो, कभी पराया पूज्य होने की उच्च अभिलाषा न करे, जो कभी पूजा न पाने से उद्विग्न चित्त न हो और पूजा पाने पर भी कभी उन्मत्त चित्त न हो, उसके पाँवों पर पड़ने में, पदरज शिर पर धारण करने में, उसका पादोदक पान करने में किसी को भी आपत्ति न होगी।

फिर जिज्ञासा करते हैं कि ब्राह्मण जो हिन्दू समाज में देव तुल्य पूज्य हैं, परब्रह्म के अवतार भगवान श्री कृष्ण के भी आराध्य थे, उनका गूढ़ रहस्य क्या है? इसका कारण परोपकार वृत्ति, इसका कारण अहंकार का नाश, इसका कारण सब भूतों में आत्मदर्शन और आत्मा में सर्वभूत-दर्शन, इसका कारण “ब्रह्म विद ब्रह्मैव भक्ति” इसका कारण है एक प्रकार से अहंभाव का प्रसार।


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