मनुष्य को कितनी ही वस्तुओं की आवश्यकता रहती है। उसका दैनिक कार्य-क्रम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये होता है। भोजन वस्त्र ही मनुष्य की आवश्यकता नहीं हैं, इनकी पूर्ति तो बड़ी ही आसानी से और कुछ ही घंटे परिश्रम करने पर हो सकती है, इन्हें कमाने में ही वह सारी आयु नहीं लगाता, वरन् वह अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाता है, और उनकी विस्तृत पूर्ति के प्रयत्न करने में अपनी आयु का अधिक भाग लगाता है। इन आवश्यकताओं में कुछ तो उचित भी होती हैं, परन्तु इनमें से काल्पनिक होती हैं और उनकी पूर्ति प्रायः किसी प्रकार नहीं हो पाती, जितनी ही उनकी पुष्टि की जाती है, उतना ही वे और अधिक तीव्र हो जाती हैं। रहने के लिए मकान चाहिए, जब मिल जाता है और बढ़िया के लिए मन चलता है, कपड़ा चाहिए, परन्तु मिल जाने पर उससे अधिक मूल्यवान की इच्छा होती है, सवारी चाहिए, घोड़ा मिलने पर मोर की जरूरत मालूम पड़ती है, भोजन चाहिए परन्तु उसके बाद षट्रस व्यंजन और बहुमूल्य पदार्थ मिलने चाहिए। इसी प्रकार सन्तान की वृद्धि अपेक्षित होती है, धन तो कहना ही क्या, जितना मिल जाए उतना ही कम है। यश और कीर्ति से कोई नहीं अघाता, अधिक बलवान, अधिक सुन्दर अधिक बुद्धिमान बनने की इच्छाओं की पूर्ति के लिए साधक और सुविधाएं। जुटाते हैं, शक्ति भर प्रयत्न करते हैं, दिन रात जुटे रहते हैं, परन्तु जो फल प्राप्त होता है बहुत ही तुच्छ जान पड़ता है, उससे बिलकुल सन्तोष नहीं होता। असन्तोष और अभाव के कष्ट से वे सदा व्यथित बने रहते हैं।
बहुत प्राप्त करने की व्यथा जब मनुष्य की मर्यादा से बाहर चली जाती है, तो वह बड़ी ही क्रूर रूप धारण करती है, धन की लोलुपता जब बढ़ती है तो मनुष्य भेड़िया बन जाता है, हत्या, चोरी, छल, अत्याचार जो कुछ भी वह जितनी भी मात्रा में कर सकता है, करता है। धन हरण करने के लिए डाकुओं द्वारा निरपराध व्यक्तियों को जो यंत्रणायें दी जाती हैं,उनके संवाद नित्य हमारे कान फिरते रहते हैं, अपनी अमूल्य व्यय करके एक एक पैसा बचाकर कोई व्यक्ति अपनी सन्तान की शिक्षा बुढ़ापे की सहायता के लिए कुछ धन जोड़ता है, परन्तु दूसरा मनुष्य उसे चुराकर छलपूर्वक या अत्याचार से हरण कर लेता है। इस पर उस कमाने वाले व्यक्ति को कितना दुख होता है। इसे वही जानता है, किन्तु चोर तो भेड़िया बन चुका है उसे अपनी रक्त पिपासा शान्त करने के लिए इस बात से कूद प्रयोजन नहीं कि जिसका रक्त मैं पान कर रहा हूँ, वह भी मेरे ही समान जीवधारी है, वह भी समान दुख में छटपटाता है, मनुष्य की यह अतृप्ति सभी दिशाओं में बढ़ती है। अपनी काम-वासना की तृप्ति के लिये असंख्य वृद्ध पुरुष पुष्प जैसी सुकुमार कन्याओं का जीवन पैरों तले कुचल डालते हैं, फुसला कर, धोखा देकर, विवश करके, एवं बलात्कार पूर्वक नारी जाति को पीड़ायें दी जा रही हैं, उन्हें देख कर निर्दयता भी पसीज उठती है। जब अतृप्त आवश्यकताएं सामूहिक रूप धारण करके राजनीति या कूटनीति का भड़कीला जामा पहिन कर बाहर आती है तो वे विद्या और बुद्धि की चमचमाहट से लोगों की आँखों को चौंधिया देती और बड़े-बड़े सामूहिक शोषण एवं रक्तपात की सृष्टि करती हैं। हम देखते हैं, कि आज एक देश दूसरे देश का शोषण करने के लिये जोंक बनकर चिपटा हुआ है। महायुद्ध का राक्षस असंख्य निरपराध व्यक्तियों के पावन शरीरों को काटे डाल रहा है, और रक्त की नदियाँ बहा रहा है। सामूहिक रूप से या अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा निजी तौर पर चाहे किसी तरह सही एक ही कार्य को दुहराया जाता है। हम देखते हैं, कि लोग अपने सगी कन्याओं को पैसे के बदले बेच कर उन्हें जीवन भर तिल तिल करके जलने के लिए असहाय छोड़ देते हैं। भाई का भाग मुझे मिल जाय इसलिए सगे भाई की हिंसात्मक या अहिंसात्मक हत्याएं होती हुई चारों ओर दिखाई देती हैं। मनुष्य का निजी पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन अतृप्ति के कारण उद्विग्न हो रहा है। आवश्यकताएं पूरी ही नहीं होती। असंतोष के धुंऐ से यह विश्व-विपिन काला हो रहा है। अशान्ति के अग्नि से संसार की शान्ति जली जा रही है।
सोचना चाहिए कि इस आध सेर अन्न से तृप्त हो जाने और दस गज कपड़े से ढ़क जाने वाले मनुष्य पर आखिर क्या विपत्ति टूट पड़ी, जिसके निवारण के लिए इतनी प्रचुर आवश्यकता उमड़ पड़ी। विवेक पूर्वक देखने-किसी डाकू आदि की वैयक्तिक जाँच करने पर मालूम पड़ता है कि उसे भोजन वस्त्र का अभाव नहीं है। यह कहना ठीक नहीं है कि भूखा चोरी करता है। देखा जाता है कि भूखा मजदूरी करता है, या उधार लेता है। चोरी करता है भरे पेट वाला, साहसी, अहंकारी, नास्तिक।
भरे पेट वाले को चोरी करने की जरूरत क्यों हुई? इसका कारण उसकी मानसिक स्थिति है। उन्नति के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का कर्तव्य है, परन्तु यह स्वाभाविक आकाँक्षा जब मर्यादा से बाहर चली जाती है, तो उसकी अवास्तविक काल्पनिक आवश्यकताएं उभर पड़ती हैं। दस फुट लम्बे चौड़े थाल में रखा हुआ थोड़ा सा भोजन बहुत ही कम मालूम पड़ता है। बहुत बड़े पात्र में भिक्षा की एक चुटकी पड़े तो उससे भला संतोष कैसे हो। अपनी इच्छाओं का पात्र जितना बड़ा होता है, उसी के अनुसार पात्र की वस्तुएं थोड़ी प्रतीत होती है, और उतना के प्राप्ति से संतोष नहीं होता। विचित्रता यह होती है कि प्राप्त के साथ-साथ पात्र का आकार भी बढ़ता जाता है। फूँक भरने पर गुब्बारा तब तक बराबर फूलता ही जायेगा जब तक की वह फूट न जाय। इस बढ़ती हुई ‘हाय’ को शान्त करने के लिए हमें अंतर्मुख होना चाहिए। अपनी दृष्टि को बाहर से हटा कर अन्दर डालना चाहिए अध्यात्म पथ का अवलम्बन लेना चाहिये। उत्तप्त जगत में इधर-उधर भटकने वाला प्राणी इसी शीतल वृक्ष के नीचे शान्ति प्राप्त कर सकता है।
जब बाहर की माया रूप वस्तुओं के भ्रम से विमुख होकर एक अंतर्मुखी होते हैं, आत्म चिन्तन करते हैं तो प्रतीत होता है,कि हम अपने स्थान से बहुत दूर भटक गये हैं। आवश्यकताएं कभी पूर्ण नहीं हो सकती है, उन्हें जितना ही तृप्त करने का प्रयत्न किया जायेगा उतना ही वे अग्नि में घृत डालने की तरह और अधिक बढ़ती जायेगी। इसलिए इस छाया के पीछे दौड़ने की अपेक्षा उसकी ओर पीठ फेरनी चाहिए और देखना चाहिए की हम कौड़ियों के लिए क्यों मारे फिर रहें हैं, जब कि हमारे अपने घर में भण्डार भरा पड़ा हुआ है। अन्तर में मुँह डालने पर परमात्मा के निकट उपस्थित होने पर वह ताली मिल जाती है,जिससे सुख और शान्ति के अक्षय भण्डार का दरवाजा खुलता है। अपनी वास्तविक स्थिति को जानने से, आत्म स्वरूप को पहचानने से, संसार के स्वरूप का सच्चा ज्ञान होने से शान्ति की शीतल धारा प्रवाहित होती है, जिसके तट पर असन्तोष की ज्वाला जलती हुई नहीं रह सकती। वह मृग तृष्णा को त्याग देता है, सच्चा संतोष उपलब्ध होने पर उसकी बाह्य आवश्यकताएं बहुत ही थोड़ी रह जाती है, और जब थोड़ा चाहने वालों को बहुत मिलता है, तो उसे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है।
यदि तुम असंतोष से असंतोष की ओर, अभाव से पूर्णता की ओर, भिक्षा से वैभव की ओर, दुख से सुख की ओर चलना चाहते हो तो हे पाठको! अन्तर में मुँह डालो! आत्म स्वरूप को पहचानो, आध्यात्म पथ की ओर चलो।
(इस मास यही लेख सम्पादकीय स्थान पर जाने को था पर कर्मचारियों की असावधानी से भ्रष्ट हो गया है। श्री राम शर्मा, सम्पादक )