अभेद्य रक्षित दुर्ग

March 1941

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बड़े-बड़े राजा नरेश अपने रहने के लिए किले बनवाते हैं। उनकी मजबूती पर पूरा ध्यान देते हैं ताकि कोई शत्रु उन पर हमला न कर सके और करे तो उस मजबूत किले की दीवारें उसे राजा तक न पहुँचने दें। जिसका किला जितना ही मजबूत होता है, वह अपने को उतना ही अजेय समझता है। अपनी रक्षा के निमित्त अन्य प्राणी भी निवास गृह बनाते हैं। बहुत से जीवन भूमि में छेद करके बिल या गुफा बना लेते हैं और उसमें सुरक्षित रूप में निवास करते हैं। जब कोई विपरीत परिस्थिति सामने आती है तो दौड़ कर उस गुफा में चले जाते हैं। मनुष्य अपने को ऋतुओं के प्रभाव से तथा चोर, शत्रुओं के आक्रमण से बचने के लिए घर बार बना कर रहता है और रात्रि के समय जब भय की आशंका होती है, दरवाजे बन्द करके सोता है। ऐसा ही एक घर या किला आत्मा के पास भी है। उसके ऊपर यदि बुरे विचारों, दुर्गुणों, या रोग शोकों का आक्रमण हो तो इस में छिप कर अपनी पूरी तरह रक्षा कर सकता है।

यह पूर्णतः रक्षित और अभेद्य दुर्ग हमारा हृदय है, इसमें सदा अखण्ड शाँति का साम्राज्य रहता है और सब प्रकार के विश्राम की व्यवस्था है। जब तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति आवे, किसी दुख में चिन्तातुर हो रहे हो और दुनिया में कहीं शाँति प्राप्त न हो रही हो, तो अपनी हृदय गुफा में उतरो। किसी एकान्त स्थान में आँखें बन्द करके बैठो और अपने हृदय मंदिर में धीरे-धीरे उतर जाओ। हृदय आत्मा का मंदिर है, इसलिए परमात्मा का मंदिर भी है। किसी बड़े भारी धनी व्यक्ति के सब से बहुमूल्य कमरे की कल्पना करो। यह बहुत ही उत्तम वस्तुओं से सजा होगा, इसमें बैठने के लिए बहुत ही कोमल बिछौने बिछे होंगे। शीतल वायु, सुगंधित द्रव्यों एवं मंद प्रकाश की भी इसमें व्यवस्था होगी। दुनिया में सब से अधिक मोहक और आराम देने लायक जो कमरा तुमने देखा हो उससे हजारों गुना आनन्दप्रद इस हृदय को अनुभव करो। बाहरी दुनिया का ध्यान छोड़कर जितना ही इसमें एकाग्रता पूर्वक प्रवेश करोगे, उतना ही आनन्द अधिक आवेगा। हृदय आत्मा का पवित्र मन्दिर होने के कारण इसके अन्दर संसार का एक भी विकार किसी प्रकार प्रवेश नहीं कर सकता। जब तुम इस मन्दिर में घुस जाते हो तो तुम्हें बुरी तरह सताने वाले दुष्ट स्वभाव, एवं पापकर्म बाहर ही खड़े रह जाते हैं। चाहे तुमने कितने ही बुरे कर्म क्यों न किये हों और अपनी कुत्सित आदतों के कारण कितने ही उद्विग्न क्यों न रहते हो परन्तु जैसे ही हृदय मन्दिर के दरवाजे पर पैर रखते हो वैसे ही वे सब दुष्ट निशाचर बाहर खड़े रह जावेंगे। तुम परमात्मा के पुत्र हो, इस लिए केवल तुम्हें ही अपने पिता के राजा प्रसाद में प्रवेश करने की आज्ञा है। पाप रूपी दुष्ट चाण्डालों को द्वारपाल किसी भी प्रकार भीतर जाने नहीं दे सकते।

हृदय के इस सात्विक स्थान को ब्रह्म लोक या गौ लोक भी कहते हैं क्योंकि इसमें पवित्रता प्रकाश और शान्ति का ही निवास है। परमात्मा ने यह स्वर्ग सोपान हमें सुख प्राप्त करने के लिए दिया है किन्तु अज्ञानवश मनुष्य उसे जान नहीं पाते। आराम के लिए मनोरंजन के लिए होटलों और नृत्य गृहों में जाते हैं, पर वे नहीं जानते कि इनसे भी बहुत अधिक संतोष देने वाला एक विनोदागार हमारे अपने अन्दर है।

जब कभी किसी दुखद घटना से तुम्हारा मन खिन्न हो रहा हो, निराशा के बादल चारों ओर से छाये हुए हैं, असफलता के कारण चित्त दुखी बना हुआ हो, भविष्य की भयानक आशंका सामने खड़ी हुई हो, बुद्धि किंकर्तव्यविमूढ़ हो रही हो तो इधर उधर मत भटको। उस लोमड़ी को देखो, वह शिकारी कुत्तों से घिरने पर भाग कर अपनी गुफा में घुस जाती है और वहाँ संतोष की साँस लेती है। ऐसे विषम अवसरों पर सब ओर से अपने चित्त को हटा लो और अपने हृदय मन्दिर में चले जाओ। पाप तापों को द्वार पर खड़ा छोड़ कर जब भीतर जाने लगोगे तो मालूम पड़ेगा कि एक बड़ा भारी बोझ, जिसके भार से गरदन टूटी जा रही थी, उत्तर गया और तुम बहुत ही हलके—रुई के टुकड़े की तरह हलके हो गये हो। हृदय मन्दिर में इतनी शान्ति मिलेगी, जितनी ग्रीष्म तपे हुए व्यक्ति को बर्फ से भरे हुए कमरे में मिलती है। कुछ ही देर में आनंद की झपकियाँ लेने लगोगे। देखा गया है कि कई दिनों से व्यथा से पीड़ित मनुष्यों को जब इस रक्षित अभेद्य दुर्ग में प्रवेश करने को कहा गया तो वे आनंद की झपकियाँ लेने लगे और उनका बाहरी शरीर भी निद्रा के वशीभूत हो गया।

ऐसे शान्तिदायी स्थान में एकाएक प्रवेश पास करना कठिन होता है। इसलिए पहले ही इसका अभ्यास करना आरंभ कर दो। प्रातः सायं जब अवसर मिले, एकान्त स्थान में जाओ और किसी आराम कुर्सी या मसंद के सहारे शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ कर पड़े रहो। अपने हृदय मन्दिर के संबंध में ऊँची से ऊँची शाँतिदायक भावना करो। मानो जो कुछ भी शाँतिदायक वस्तुएं दुनिया में हो सकती हैं, वह इसके अन्दर भरी हुई हैं। हृदय मंदिर का तात्पर्य यहाँ माँस के लोथड़े से नहीं है वरन् सूक्ष्म हृदय से है, जो उसके आन्तरिक भागों में रहता है और ज्ञान चक्षुओं से ही देखा जा सकता है। अब अपने को बिलकुल अकेला अनुभव करते हुए संसार को पूर्णतः भुलाते हुए धीरे-धीरे नीचे उतरो और जैसे ही अन्तर प्रदेश में गहरे घुसने लगो वैसे ही अपने सब भले बुरे विचारों को बाहर छोड़ दो। मानो तुम बिलकुल विचार रहित हो गये हो, आनन्द के अतिरिक्त और किसी प्रकार का कोई संकल्प ही मत उठने दो। इस प्रकार तुम अपने अक्षय दुर्ग में बैठ कर कुछ क्षण के लिये—विषाक्त बंधनों से छुटकारा पा सकोगे और इन क्षणों में वृद्धि करते करते शाश्वत समाधि तक पहुँच सकोगे।


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