(डॉ. कौशिक)
समानी प्रपा सहवोऽन्नभागः समाने योक्त्रे सहवो युनज्मि। सम्यञ्चेःग्निं सपर्य तारा नाभिमिकाभितः॥
अथर्व0 3।30।6
तुम्हारी जल-शाला एक सी हो, अन्न का विभाजन साथ-साथ हो, एक ही जुए में मैं तुमको जोड़ता हूँ। जैसे पहिये के अरे नाभि में चारों ओर जुड़े होते हैं, वैसे ही तुम सब मिलकर ज्ञान रूप प्रभु की पूजा करो।
संगच्छध्वं संवदध्वं सवो मनाँसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते॥
ऋग॰ 10।191।2
आपस में मिलों, संवाद करो, जिससे तुम्हारे मन एक ज्ञान वाले हों, जैसा कि पहले देवता (सूर्य-चन्द्रादि) एक मन होकर अपने-अपने भाग का सेवन कर रहे हैं, अर्थात् अपना कर्तव्य करते हुए विश्व की स्थिति के कारण बने हुए हैं।
स्वस्ति पन्था मनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव।
पुनर्ददताऽघ्रनता जानता संगमें यहि॥
ऋग॰ 5। 51।15
सूर्य और चन्द्र की भाँति हम कल्याणकारी मार्ग पर चले और दानी, अहिंसक तथा विद्वान् पुरुषों का साथ करें।
ते दृहं मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि सभीक्षन्ताम्। मित्रस्याँ चक्षुशा सर्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा समीक्षा महे॥ यजु. 36-18
हे दृढ़ बनाने वाले मुझे ऐसा दृढ़ बना कि सब प्राणी मुझे मित्र दृष्टि से देखें। मैं स्वयं सब प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखता हूँ (और चाहता हूँ कि) हम सब आपस में एक-दूसरे को मित्र दृष्टि से देखें।