(श्री हरि गणेश गोडबोले बी.ए.)
बुद्धि और विचारवान मनुष्य यह जान कर कि देहेन्द्रियादि सब अनात्म वस्तु हैं, केवल परमात्मा में लीन होकर रहता है। जो मनुष्य देहेंद्रियादि आत्म भाव से ग्रहण नहीं करता, वह पहले इस संसार के दुःख से मुक्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि उसके अन्तःकरण में काम, क्रोधादि विकार उत्पन्न नहीं होते। तीसरे वह अमरत्व को पहुँच जाता है। अन्तिम और सब से श्रेष्ठ लाभ यह है कि आत्म प्राप्ति के लिए उसको इधर उधर नहीं भटकना पड़ता । यदि कोई ज्ञान प्राप्ति के हेतु से एक ही स्थान पर बैठा रहे और सदैव शुभ संकल्प करता रहे, तो कुछ समय से उसका मन परिपक्व हो जाएगा और इस छोटे से प्रयत्न से ही अमरत्व को प्राप्त कर लेगा।
यद्यपि जरा और मृत्यु देह के धर्म हैं तथापि इनके ऊपर योगाभ्यास से बहुत कुछ विजय प्राप्त की जा सकती है। हमारा मानवी जीवन सर्वथा हमारे वीर्य (शुक्र अथवा रेतस) पर अवलंबित है और वीर्य चित्त पर अवलंबित रहता है। अतएव जिन उपायों से शुक्र और मन की रक्षा होगी, उन्हीं के द्वारा यौवन और दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकेगा। हठ योग के आचार्यों ने इस विषय को बहुत स्पष्ट कर दिया है, वे कहते हैं कि-मनुष्यों का जीवन वीर्य पर निर्भर है और वीर्य केवल मन के अधीन रहता है, इसलिये हर प्रयत्न से मन की रक्षा करनी चाहिए, मन की स्थिरता से प्राण वायु स्थिर हो जाता है और प्राण वायु की स्थिरता हो जाती है। जब वीर्य स्थिर हो जाता है, तब शरीर में बल उत्पन्न होता है और साहस आता है। उस समय मनुष्य सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। योगीजन वीर्य की रक्षा से मृत्यु को जीतते हैं। वीर्यपात ही मरण और वीर्य धारण ही अमरत्व है।