(ले.—श्री रामकरणसिंह वैद्य जफरपुर)
धर्म प्रचारकों की साधना बड़ी कठिन और ऊँचे दर्जे की होती है। वे अपनी जिन्दगी में आप बहुत कम सफलता देख पाते हैं। दूसरे प्रकार के काम करने वाले अपने परिश्रम का फल बहुत जल्द-अपनी आँखों के सामने देख लेते हैं, परन्तु धर्म प्रचार ‘गंगा में जौ बोना’ है। पेट काट कर बचाये हुए जौ साधक गंगा के पानी में डालना है, वह बीज बह जाते हैं। पानी के साथ वे किस भूमि में पहुँचेंगे, किस-किस प्रकार उगेंगे, उससे किसका पेट भरेगा, इस बात को वह नहीं देखना चाहता या नहीं देख सकता। धर्म प्रचारक को साधारण जीवन में कष्ट ही कष्ट भोगने पड़ते हैं, पर उसे त्याग और सदुद्देश्य के कारण जो आत्म शान्ति मिलती है, उसी से तृप्त हो जाता है।
भगवान् बुद्ध अपने जीवन में अपने उद्देश्यों का प्रचार न देख सके। उनकी मृत्यु के बहुत दिन बाद राजा अशोक के जमाने में उनके सिद्धान्त कहीं फैले। महात्मा ईसा जब फाँसी पर चढ़ाये गये तब उनके अनुयायी गिने-चुने थे। धर्म का पौधा उनके रक्त से सींचा गया तब कहीं फल-फूल सका। मुहम्मद साहब ने जन्म भर कितने कष्ट सहे। नानक, कबीर, दयानन्द सदा कष्ट ही पाते रहे।
धर्म प्रचारक का जीवन यथार्थ में त्याग और तपस्या का जीवन है, समाज में जो कुरीतियाँ फैली होती हैं, वह उनके विरुद्ध आवाज उठाता है। अन्धी दुनिया को प्राचीनता पसन्द है, नयेपन से वह डरती है। आपरेशन करने वाला डॉक्टर नित्य ही रोगियों के कडुए शब्द सुनता है। अच्छे होने पर आशीर्वाद पाने का जो अवसर आता है उस वक्त डॉक्टर हाजिर नहीं रह सकता, और न रहना चाहता है, क्योंकि उसे तो अपना कर्तव्य पूरा करके ही संतोष मिल जाता है। यही उसकी दृष्टि में भरपूर नफे का काम है।