सद्बुद्धि की अवधारणा

April 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

*******

सद्बुद्धि का विकास किये बिना मानव जाति का उद्धार नहीं। मनुष्य की नियति यह है कि वह अपने को दूरदर्शी विवेकशीलता के साथ जोड़े शालीनता अपनाये और सज्जनों का तरह जिये।

दुराग्रह और पक्षपात मनुष्य को उद्दंड बनाते हैं। अहंकारी अपने ही चिन्तन और कर्तव्य को सबसे ऊंचा और बढ़कर मानता है। उसे यह स्वीकार नहीं कि अपनी मान्यताओं और आकाँक्षाओं का औचित्य की कसौटी पर कसे और यह देखे कि वे न्यायसंगत हैं या नहीं। जो चाहा सो कर गुजरना मनुष्य के अन्दर काम करती पशु प्रवृत्ति है। मनुष्य को यह सोचना होता है कि वह जो जानता, मानता हैं, चाहता और कहता है वह सार्वजनिक हित में हैं या नहीं? धर्म और कर्तव्य उसे करने की छूट देते हैं या नहीं?

बुद्धि की महिमा है और चतुरता की भी; किन्तु सबसे बड़ी बात है विवेकशील न्याय निष्ठा। हम अपने साथ न्याय करें और दूसरों के साथ भी। पर यह बन तभी पड़ेगा जब सद्बुद्धि की अवधारणा हो। हम आग्रह छोड़े और सत्य को अपनायें।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118