मनुष्य पदार्थों का पिटारा नहीं, भावनाओं का समुच्चय है।

April 1988

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देखने में मनुष्य एक चलता फिरता हाड़-माँस का पुतला दिखाई देता है और आज का वैज्ञानिक बुद्धिवादी समाज ऐसा मानता भी रहा है कि मनुष्य कुछ तत्वों के मिलन संयोग से विनिर्मित शरीर मात्र है। वैज्ञानिकों के अनुसार अति प्राचीन काल में कुछ रसायनों के सम्मिश्रण से एक ऐसी वस्तु उत्पन्न हुई जिसे जीवित कहा जा सके। संभवतः यही अमीबा या अमीबा जैसे एककोशीय जीव का कारण हुआ। इस धारणा की पुष्टि के लिए अनेक प्रयोग- परीक्षण किये गये। सन् 1953 में स्टेनले मिलर नामक एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने प्रयोगशाला में वैसी संभावित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जैसी कि आरंभिक काल में पृथ्वी पर रही होगी। अमोनिया, मिथेन आदि गैसों से युक्त वातावरण में जब विद्युत स्फुल्लिंग (स्पार्क) गुजारे गये, तो बहुत से अमीनो अम्ल प्राप्त हुए। अमीनों सभी जीवधारियों के शरीरों के अविच्छिन्न घटक माने जाते हैं। इस प्रकार इस प्रयोग से रसायनों के संभावित संयोगों द्वारा जीवन की उत्पत्ति हुई माना जाना सरल हो गया।

विशेषज्ञों का कहना है कि जब किसी प्रकार जीवन की उत्पत्ति रसायनों से हो गई, तो इसके बाद उसका विकास स्वयमेव होता चला गया। डार्विन के अनुयायी विकासवादियों के अनुसार रसायनों का यही सम्मिश्रण विकास करता गया और लाखों वर्षों के उपरान्त मनुष्य बन गया।

वैज्ञानिकों के मत में मानवी विकास की यही कथा-गाथा है। वे मानव को मशीन मात्र मानते है। मशीन जटिल जरूर होती है, पर मशीन ही। उसमें रसायनों के अतिरिक्त कोई जीवित तत्त्व नहीं होता है। अमरीकी शरीर-क्रिया विज्ञानी आर्थर जे0 वेनुर ने अपनी “ह्यूमन फिजियोलॉजी” पुस्तक में इस बात को और स्पष्ट कर कहा है कि “पदार्थ तथा ऊर्जा से भिन्न जीवनीशक्ति जैसी कोई चीज जीवन को समझाने के लिए आवश्यक नहीं है।” स्पष्ट है यह कह कर उनने भी उपरोक्त मान्यता का ही समर्थन किया है। लगभग इसी स्तर के प्रतिपादन अन्यान्य भौतिक विज्ञानियों ने भी किये हैं।

इन वैज्ञानिक प्रतिपादनों के आधार पर जब मनुष्य रसायनों का एक पुँज मात्र ही है, तो उसमें होने वाली अव्यवस्था (व्याधि) भी मात्र रसायनों में होने वाली कुछ हेर-फेर ही होनी चाहिए। रसायनों की इस हेर-फेर को उस अव्यवस्था का निराकरण या चिकित्सा कार्य भी फिर सरलता से रसायनों द्वारा ही सम्पन्न होता रह सकता है।

किन्तु वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इस सरल भौतिकवादी प्रतिपादन के आधार पर शायद ही कोई रोग पूर्णरूप से समझा जा सके। प्रथम तो व्याधि की उत्पत्ति समझना ही कठिन है। जब रसायन ही रसायनों से निश्चित रासायनिक नियमों के अनुसार मिल रहे हैं, तो उसमें व्यतिरेक की कहीं कोई गुँजाइश ही नहीं है। हाइड्रोजन के दो परमाणु ही ऑक्सीजन के एक परमाणु से मिलकर पानी बनाते है। इस शाश्वत नियम में कभी कोई व्यतिक्रम होता आज तक नहीं देखा गया। एक रसायन दूसरे रसायन से निश्चित बाह्य परिस्थितियों में निश्चित अनुपात में मिलता है। इस व्यवस्था में अव्यवस्था (रोग) की कहीं कोई गुँजाइश नहीं है। यदि मनुष्यों की तरह रसायन भी मनमानी करने वाले स्वेच्छाचारी होते, तभी रोग की उत्पत्ति संभव थी। मज। का होना स्वयं इस भौतिकवादी प्रतिपादन का खण्डन करता है।

इससे भी बड़ी मुश्किल वहाँ खड़ी होती है जहाँ मस्तिष्क की कार्य प्रणाली के अध्ययन का प्रश्न उठता है। मन में उठने वाले संकल्पों, विचारों, इच्छाओं आदि का मस्तिष्क से क्या संबंध है तथा ऐसी कौन-सी संभावित रासायनिक प्रक्रियाएँ हो सकती हैं, जो इस प्रकार की मानसिक हलचलों को समझा सकें।

इन सब प्रश्नों से पुनः एक बार यह सवाल पैदा होता है कि क्या सचमुच मनुष्य रसायनों का समुच्चय मात्र है? इस दृष्टि से यदि उसका मूल्यांकन किया जाय तो वह मात्र 32 रुपये का साबित होगा। उसमें जितना कार्बन कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा आदि तत्व हैं, उनकी कुल जमा कीमत इससे कोई बहुत अधिक नहीं होगी। अब प्रश्न उठता है कि यदि वह सिर्फ रसायनों का ही जखीरा है, तो क्या उनके समन्वय से मनुष्य बनाया जा सकता है? उत्तर होगा-नहीं ठीक भी है। आखिर इन निर्जीव द्रव्यों से सजीव मानव कैसे बनाया जा सकता है? उसमें फिर प्राण-चेतना भाव-संवेदना कहाँ से आयेगी? निश्चय ही मानव रसायनों के अतिरिक्त भी और कुछ है। इसे ही चेतना, भावना, संवेदना कहा गया है। काया की रचना तो जड़ पदार्थों से हुई मानी जा सकती है; पर उसे चलाने वाली शक्ति उनसे नहीं मिल सकती। बिजली के यंत्र उपकरणों की उपयोगिता तभी समझी जाती है, जब तक बिजली हो। इसके अभाव में उनके स्वयं के अस्तित्व में होने पर भी वे निरर्थक और अनुपयोगी ही सिद्ध होते हैं। इस प्रकार देखा जाय तो ज्ञात होगा कि विद्युत ही वह प्रमुख आधार है जिसके कारण यंत्रों की महता आँकी जाती है। ऐसे ही मानवी-संरचना में काया का महत्व तो है; पर उसका मुख्य उपादान चेतना है इसकी अनुपस्थिति में शरीर जड़वत बन जाता है। इस चेतना की परिष्कृति ही उच्चस्तरीय भाव-संवेदना के रूप में सामने आती है। यही मानवी प्रगति-समृद्धि का प्रमुख कारण है। देखा जाता है कि सभी को समान आकार-प्रकार की काया मिलने के बावजूद भी प्रगति के सर्वोच्च शिखर तक कुछ इने-गिने ही पहुँच पाते हैं। अधिकाँश उस ऊँचाई को छू पाने में असफल होते हैं। इसका कारण भावना और उसका स्तर ही है। भाव-संवेदनाएँ यदि श्रेष्ठ रही, तो व्यक्ति प्रगति करता चलता है और निकृष्ट होने पर अवगति के गर्त में समा जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवी जीवन में काया गौण और भावना प्रमुख है।

आये दिन इसके उदाहरण भी देखने को मिलते रहते हैं। कई बार देखा जाता है कि क्रिया की दृष्टि से, शारीरिक हलचल की दृष्टि से घटनाओं में एकरूपता दिखाई पड़ने के बावजूद भी भावनात्मक दृष्टि से उनमें जमीन-आसमान जितना अन्तर होता है, फलतः परिणाम में भी भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। उदाहरण के लिए हत्या के दो मामलों को लिया जा सकता है। एक व्यक्ति जानबूझ कर किसी की हत्या कर देता है, जबकि दूसरे से यह घटना अज्ञानतावश घट जाती है। प्रथम प्रकरण में हत्यारा मृत्युदण्ड की कठोरतम सजा पाने का अधिकारी है; जबकि दूसरे केस में न्यायाधीश यह जानने का प्रयास करता है कि अभियुक्त की ‘नीयत’ क्या थी? यदि यह सिद्ध हो जाये कि अभियोक्ता की मृत्यु हुई तो अभियुक्त के हाथों ही है; पर वस्तुतः वह उसे माना नहीं चाहता था, असावधानी या अज्ञानतावश ही वह मारा गया, तो यह मामला हत्या का नहीं बनता। उस पर दण्ड संहिता की अन्य धारा लागू होती है जिसमें अभियुक्त को मृत्युदण्ड की कठोर सजा न मिलकर हल्की सजा दी जाती है। कृत्य की दृष्टि से देखा जाय, तो दोनों घटनाएँ एक-सी लगती हैं। इतने पर भी उनकी परिणतियों में अन्तर आ जाता है; क्योंकि दोनों के पीछे जुड़ी भावनाओं में अन्तर है। इस प्रकार यहाँ भी कृत्य को नकारा और भावनाओं की प्रधानता को स्वीकारा गया है। एक अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य है। यदि कोई अभियुक्त अभियोक्ता पर घातक आक्रमण करता है; पर निशाना चूक जाने के कारण वह अपने उद्देश्य में असफल रहता है। उधर अभियोक्ता उसकी नीयत को पहिचान कर उस पर उल्टा वार कर देता है जिसमें अभियुक्त मारा जाता है, तो न्यायशास्त्र की दृष्टि में वह अभियोक्ता हत्यारा नहीं कहलायेगा। उसका आक्रमण आत्मरक्षा की दृष्टि से हुआ हत्या करने की दृष्टि से नहीं इस प्रकार यहाँ भी भाव-चेतना को ही प्राथमिकता दी गई है।

बाल मनोविज्ञान का सार बताते हुए प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक डा. पीएगेट ने कहा है कि बाल तथा वयस्क मनोविज्ञान में मूलभूत अन्तर यह है कि बालक किसी कृत्य के पीछे छिपी भावना को प्रधानता न देकर भौतिक कृत्य को प्रमुखता देते है। जबकि वयस्क इसका ठीक उल्टा करते हैं। वे एक उदाहरण देते हैं कि यदि किसी व्यक्ति से भूल से तीन प्लेटें टूट जायें तथा एक अन्य व्यक्ति जानबूझ कर एक प्लेट तोड़ दे, तो एक बच्चे की दृष्टि में असावधानीवश तीन प्लेटें तोड़ने वाला व्यक्ति ज्यादा बड़ा दोषी होगा। यह वयस्क मनोविज्ञान से भिन्न दृष्टिकोण है; क्योंकि कोई भी प्रौढ़ जानबूझ कर प्लेट तोड़ने वाले को ही अधिक दोषी मानेगा, न कि उसे, जिससे कुछ प्लेटें अनजाने में टूट गई। स्पष्ट है, कृत्य के पीछे छिपी भावना ही प्रमुख है, अतः प्रधानता उसी को मिलनी चाहिए। जो भावना को महत्व न देकर कृत्य के पीछे भागते है, निश्चय ही बाल बुद्धि के परिचायक है।

कई बार देखने में आता है कि भावनाओं की पूर्ति न होने पर लोग शरीर त्याग कर देते है, बलिदान हो जाते है, फाँसी पर चढ़ जाते हैं। भगत सिंह जब फाँसी पर चढ़े तो उनकी देश प्रेम की भावना ने ही शरीर खत्म करके अपनी अभिव्यक्ति की। ऐसे ही गहरा भावनात्मक सदमा पहुँचने पर कितने ही लोग मरते देखे जाते है, तो कैसे कह सकते है कि भावना शरीर के लिए बनी है और प्रधान शरीर है व भावना गौण। वस्तुस्थिति पर विहंगम दृष्टि डालने के उपरान्त प्रगति एवं समृद्धि के जिस क्षेत्र पर दृष्टि जाती है, उसे आत्मिकी का क्षेत्र कहा गया है। यह कोई अद्भुत-अलौकिक नहीं, वरन् मानवी चेतना के साथ उसी प्रकार सुसंबद्ध है, जैसा कि काया के साथ भौतिक सुख-सुविधाओं का तारतम्य। मछली पानी में ही जन्मती बढ़ती और आदि से अन्त तक उसी पर निर्भर रहती है। काया के संबंध में भी यही बात है। वह भौतिक रसायनों, तत्वों, ऊर्जाओं एवं प्रवाहों के सहारे जन्मती, बढ़ती, जीती और प्रगति करती है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य स्थूल पदार्थों से निर्मित काया मात्र है, वरन् उसमें एक अन्य सूक्ष्म सत्ता भी विद्यमान है जो काया से भी अधिक उच्चस्तरीय ही नहीं, उसकी अधिष्ठात्री भी है। उसे भाव-चेतना के रूप में जाना जाता है। इसका अस्तित्व उस समय और भी सुस्पष्ट हो जाता है, जब इसके विलग हो जाने पर मृतक बनता-तत्काल सड़ता और अपना अस्तित्व स्वयं मिटा डालने के लिये मचलने लगता है।

चूँकि चेतना के संबंध में इस प्रकार विचार नहीं किया जाता, जिस प्रकार कि शरीर की सुख सुविधा पर, यही कारण है कि उस सत्ता के सर्वोपरि होते हुए भी उपेक्षा के कारण एक प्रकार से विस्मृति जैसी स्थिति ही बनी रहती है। स्पष्ट है कि विस्मरण से तो अति महत्वपूर्ण आधार भी विद्यमान रहकर अस्तित्वहीन स्थिति में जा पहुँचते है। मानवी चेतना को गुण कर्म, स्वभाव की दृष्टि से, भावना विचारणा, और जीवन-चर्या की दृष्टि से देखा जाना चाहिये। इन्हीं से व्यक्तित्व निर्मित होता है। जीवन में इनका स्तर जितना ऊँचा होता है। व्यक्तित्व भी उतना उच्चस्तरीय बनता है, अस्तु व्यक्तित्व की उत्कृष्टता काया की सुन्दरता में नहीं, भावनाओं की उदात्तता में देखी जानी चाहिये, क्योंकि मनुष्य भावनाओं का समुच्चय है, भौतिक पदार्थों से बना कोरा पिण्ड नहीं है।


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