विरोधी से भी शत्रुता न पालें!

April 1988

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मैत्री में यह विशेषता है कि जिसके साथ प्यार किया जाता है उसकी छवि आँखों में बसी रहती है। उसका व्यक्तित्व अपने आपे के साथ जुड़ जाता है, भली ही वह दूर देश में निवास करता हो। बार-बार उसका स्मरण आता है और खाली समय में उसकी प्रतिमा आँखों के सामने घूमती रहती है। ईश्वर से भक्ति के नाम मैत्री इसीलिये की जाती है कि वह अपना निकटतम सम्बन्धी प्रतीत होने लगे। शरीरों की दूरी गहन, घनिष्ठ मैत्री में बाधक नहीं होती, वरन् वह विछोह बनकर और भी अधिक हृदय की गहराई को शूलने लगती है। मीरा, कबीर और सूर के गीतों में घनिष्ठता की स्थिति का अच्छा उभार हुआ है।

मैत्री का एक विपरीत भाव भी है- शत्रुता। उसमें भिन्नता स्तर की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करने की क्षमताएँ है। दोनों के बीच अन्तर तो है, पर वह ऐसा नहीं है जो अपना प्रभाव न छोड़े। मित्र से कुछ पाने की आशा होती है। भले ही वह भावात्मक प्रतिदान ही क्यों न हो? इसे पाने के लिए घाटा भी उठाया जा सकता है।

शत्रुता में भय, क्रोध प्रधान रहते हैं। इनमें भी वे विशेषताएँ विद्यमान है जो किसी को विपक्षी, विरोधी मानते हुए भी उसके साथ एकात्मकता जोड़े रहते ही है जिस प्रकार मित्र को नहीं भुलाया जा सकता, उसी प्रकार शत्रु भी उपेक्षित नहीं होता। वह भी आये दिन सिर पर चढ़ा रहता है। भले ही उसे हानि पहुँचाने, बदला लेने, नीचा दिखाने के भाव ही क्यों न हो? भले ही प्रतिपक्षी का भय, आतंक अपने ऊपर सवार क्यों न रहे? पर स्मृति क्षेत्र में सघनता तो बनी ही रहेगी। स्मृति में स्थान पाने की दृष्टि से मित्र की भाँति ही शत्रु भी अपना स्थान अन्तराल की गहराई में बना लेते है। यह भी उपासक का एक तरीका है।

भृंग कीट की किंवदंती प्रसिद्ध है। भृंग अपने गुँजन से झींगुर को अपनी खाल में बदल लेता है। टिड्डे हरी घास पर रहते हुए हरे रहते है और सूखी घास पर पीले पड़ जाते है। यह संगति का फल है। सुगंध और दुर्गन्ध की उपमा देते हुए सत्संग और कुसंग के लाभ-हानि का बखान किया जाता है।

शत्रुता एक प्रकार का कुसंग है जो अनचाहे ही हमारे पीछे लग लेता है। मित्र का चिन्तन करते रहने पर उस भावनात्मक सान्निध्य का प्रतिफल यह होता है कि उनकी विशेषताएँ अपनी ओर आकर्षित होती रहती है और धीरे-धीरे ऐसा प्रभाव डालती है कि दोनों के मन एवं व्यक्तित्व अधिकाधिक एकता बनालें। अनुकूल अनुरूप बन जायें। शत्रु के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया ऐसी ही होती है। जो दोष दुर्गुण उस पर आरोपित किये गये है, वे अपनी मान्यता के अनुरूप यथार्थता जैसी प्रतिक्रिया दिखाने वाले बन जाते है। जिस प्रकार प्रेमी के सद्गुणों को अपने में समाविष्ट करते है, उसी प्रकार शत्रु पर आरोपित दुर्गुण भी एक तथ्य बन जाते है और अपनी दुष्प्रवृत्ति का अनुदान उसे अनायास ही देते रहते है, जिसने शत्रुता परिपक्व की हुई हैं। यह दुहरी हानि है। भय, आक्रोश, प्रतिशोध, कुचक्र आदि की विचारधाराएँ अपने मन में आरम्भ होती हैं और सर्वप्रथम उसी क्षेत्र पर कब्जा करती एवं प्रभाव दिखाती हैं। उस प्रकार शत्रु की क्रियाएँ अपनी उतनी हानि करती है उसकी तुलना में वे मान्यताएँ अधिक हावी होती है जो शत्रुता के कारण किसी व्यक्ति पर आरोपित की गई हैं।

शत्रु के सुधारने के लिए अनेक प्रयत्न किये जा सकते हैं। उनको सफलता मिले या मिले। कम से कम शत्रु भाव मन से तो निकाल ही देना चाहिये। इससे उस प्रभाव से बचा जा सकता है जो शत्रु की दुष्टता का चिन्तन करते रहते अपने ऊपर भी सवार हो जाता है और दुहरी हानि पहुँचाता है इनमें से अपने दुर्भाव हटा कर शत्रु की आक्रामकता को आधी तो हम स्वयं ही घटा सकते है। निपटने के लिये आधा भाग ही शेष रह जाता हैं।


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