शिष्टाचार सज्जनता का प्रथम चरण

April 1988

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विनम्रता और उद्दंडता मनुष्य में आदत के रूप में धीरे-धीरे विकसित होती हैं। पर जब वे जड़े जमा लेती हैं, तो स्वभाव बन जाती है और बिना विशेष प्रयत्न किये बदलती नहीं।

दूरदर्शी अभिभावक अपने आश्रितों को सद्गुणों की सम्पदा हस्तगत करते रहते हैं। भले ही वे कोई बड़ी धन दौलत उनके लिए न छोड़ सकें। इस गुण सम्पदा के आधार पर ही मनुष्य प्रगतिशील बनता है।

सज्जनता का प्रथम चरण विनम्रता से आरम्भ होता हैं। वह बड़ों के साथ तो बरती ही जानी चाहिए। समान आयु के यहाँ तक कि छोटों के साथ भी वार्त्तालाप एवं व्यवहार इस प्रकार किया जाना चाहिए, मानो उनका महत्व स्वीकारा जा रहा है। उन्हें सम्मान दिया जा रहा है। इसके लिए प्राथमिक प्रयोग यह है कि वाणी से मधुर वचन बोले जायें। किसी को यह अनुभव न होने दिया जाय कि उसकी उपेक्षा की जा रही है या तिरस्कार की दृष्टि से देखा जा रहा है, इससे उसे चोट लगती है। उस की कटु प्रतिक्रिया को भूल नहीं पाता और अकारण शत्रु बन जाता है।

हर व्यक्ति अपना सम्मान चाहता है। यह उसकी आत्मिक आवश्यकता है। आत्मा महान है। उसका अपना गौरव है। भले ही दुर्गुणों के कारण उसे धूमिल कर लिया गया हो। फिर भी यह भौतिक प्रवृत्ति बनी ही रहती है। और उस ओर आकर्षित होती है जहाँ उसे सम्मान मिलता हैं।

आवश्यक नहीं कि किसी की सहायता की जाये और उसकी इच्छानुसार सहयोग दिया ही जाये। यदि कोई गलत इच्छा लेकर आया है तो उसी मना भी किया जा सकता हैं पर इसके लिए उसे लताड़ने बुरा-भला कहने की आवश्यकता नहीं है। इसमें अपनी विवशता बताते हुए भी इनकार किया जा सकता है और उसे इस योग्य समझ कर आशा लेकर आने के लिए धन्यवाद भी दिया जा सकता है।

किसी आगन्तुक के आने पर उसे बिना छोटे-बड़े का ख्याल किये नमस्कार करना, बैठने के लिए आसन देना और आगमन की प्रसन्नता चेहरे की मुस्कान द्वारा प्रकट करते हुए कुशल समाचार पूछना यह एक सामान्य शिष्टाचार है। इतना बरताव तो हर किसी के साथ होना ही चाहिए। आगमन को अनुग्रह मानते हुए पूछा जाना चाहिए कि किस कारण आगमन हुआ? मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ? आगन्तुक को आधा सन्तुष्ट कर देने के बराबर है। इसमें कुछ पूँजी नहीं लगती और न बड़ा सा समय जाता है, पर अपनी छाप दूसरों पर पड़ती है। आतिथ्य के लिए कोई महंगी चीजें न दी जा सकती हों तो पानी पिलाने का उपक्रम तो किया ही जा सकता है। लोक व्यवहार की दृष्टि से भी सज्जनोचित शिष्टाचार का परिपालन आवश्यक है। इससे दूसरे व्यक्ति को अपनी सज्जनता की छाप स्वीकारते बनती है और मित्र बनते हैं। यह सामान्य शिष्टता भी समय पड़ने पर बड़ा काम देती है और प्रशंसा भरा प्रचार करती है।

उद्धत व्यक्ति अशिष्ट होते हैं और अहंकारी भी वे अपने आपको बड़ा और दूसरों को छोटा समझते हैं। अस्तु उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं। यह उपेक्षा भी संवेदनशीलों को अखर जाती है और वे उसे अपना अपमान तक मान बैठते हैं। फलतः मन खोल कर बात भी नहीं कर सकते और मूड देख कर निराश वापस लौट जाते हैं। इस प्रकार खिजाये हुए व्यक्ति से प्रशंसा किये जाने तथा सहयोग मिलने की आशा चली जाती है।

कोई व्यक्ति एकाकी जीवन नहीं जी सकता। उसे दूसरों की कृपा न सही अनुकूलता की तो जरूरत पड़ती ही है। इस आवश्यक वस्तु को खरीदने के लिए यदि सौजन्य दर्शाया जा सके तो व्यक्ति नफे में ही रहता है। यह लाभदायक सौदा आरम्भिक जीवन से ही घर परिवार के बीच ही सीखा और सिखाया जाना चाहिए।


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