धर्म्माविरोधी यो धर्म्मःस धर्म्मः सत्यविक्रमः

April 1988

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संसार में कितने ही सद्ग्रंथ हैं, कितने ही धर्म और दर्शनशास्त्र हैं, कितने ही मत, पँथ और सम्प्रदाय है। अधकचरे ज्ञानी अथवा सर्वथा अज्ञानी मनुष्यों के मन इन सबमें ऐसी अनन्य बुद्धि और आवेश से अपने आपको बाँधे हुए हैं कि जो कोई जिस ग्रन्थ या मत को मानता है उसी को सब कुछ जानता है। यह देख भी नहीं पाता कि उसके भी परे कुछ है। वह अपने चित्त में ऐसा हठ पकड़े रहता है कि बस यही या वही ग्रन्थ भगवान का सनातन वचन है और बाकी सब ग्रन्थ या तो केवल ढोंग हैं या यदि उनमें कही कोई भगवत्प्रेरणा या भाव है तो वह अधूरा है।

इसी निषेधात्मक चिन्तन के कारण अधिकाँशतया धार्मिक होने के नाम पर इधर-उधर भटकते और अँधेरे में ठोकरें खाते फिर रहे है। बड़े मजे की बात तो यह है कि बड़े-बड़े बुद्धिमान लोग भी प्रायः इन पक्षपातपूर्ण आग्रहों और व्यर्थ के झगड़ों में पड़कर इन्हें पुष्टि देते रहे हैं कोई तमोभाव ही उनके बौद्धिक प्रकाश में मिलकर उसे अहंकार या आध्यात्मिक अभ्मान से ढक कर भटकता रहा है।

इस निषेधात्मक चिन्तन पूर्वाग्रही बौद्धिकता से कैसे उबरा जाय? क्या कोई ऐसा सूत्र है, जो विविध धर्म मतों सम्प्रदायों तथा दर्शनों के मूल तत्त्व को अपने में पिरोता है? ये प्रश्न ऐसे हैं जिनके समाधान से विश्व मनीषा को नूतन दृष्टि मिलेगी। चिन्तन के नए आयाम का विकास होगा। एक ऐसा सेतु विनिर्मित होगा जिसके सहारे सभी पार हो सकेंगे।

ऐसे आधार के लिए जिसमें “सर्वमिदें प्रोक्त” हो आर्यावर्त के चिन्तनागर में दृष्टि डालनी होगी। इस आगार का सर्वाधिक मूल्यवान मणि भगवद्गीता आज भी अपने स्निग्ध प्रकाश से मानवता का पथ प्रदर्शन कर सकने में सक्षम है। महर्षि कृष्ण द्वैपायन द्वारा सम्पादित यह ग्रन्थ काल की दृष्टि से भले ही लगभग .... वर्ष प्राचीन हो गया है किन्तु उसमें पूर्व की ही भाँति आज भी समन्वय सामंजस्य की अद्भुत क्षमता विद्यमान है।

इस समन्वय क्षमता के कारण ही विश्व चिन्तन के अनेकानेक उड़गनवृन्दों के मध्य शशि के सदृश वह सुशोभित है। इसमें साम्प्रदायिक जातिगत, देशगत कट्टरता की प्रखरता न होकर- सामंजस्य की स्निग्ध छटा है। इसका दिव्य सन्देश सार्वभौमिक रूप से उपादेय है। पूर्व में आचार्य शंकर के पूर्ववर्ती चिन्तक बोधायन उपषर्ष, टंक, सुन्दुरपाण्ड्य से लेकर परवर्ती अध्येता पद्मपाद वाचस्पति, मधुसूदन, अरविन्द आदि ने एकमत से उसकी उपादेयता को स्वीकारा है।

इसका समन्वयात्मक सूत्र न केवल अपने में भारतीय षड़दर्शनों के मूल तत्त्वों को पिरोता है अपितु मसीही-इस्लाम आदि धर्मो के मूल तत्व भी इसमें उत्कृष्टता के साथ गुथे हुए हैं। इसी कारण पश्चिमी जगत के डील्स, काण्ट, फिक्ते, शेलिंग, हेंगल, डायसन, तथा राल्फ वाल्डो इमर्सन आदि चिन्तक अपने धर्म के मूल तत्त्व तथा उसकी गवेषणात्मक पद्धति को पाकर कृतकृत्यता की अनुभूति कर सके।

इस्लाम धर्म के अनुयायी तथा मुगल युवराज दाराशिकोह ने अपने धर्म के मूलतत्वों के पाने के कारण ही फारसी में इसको अनूदित कराया था। इसमें प्रकारान्तर से मोतजला, करामी, अशआरी सम्प्रदायों के आधार समाए हुए हैं। इतिहास के अधिकारी विद्वानों ने इसी कारण इस्लामी दर्शन पर अरस्तु, फिला, पलोटिनस जोरोस्टर, भनी के विचारों का प्रभाव स्वीकारने के साथ वेदान्त के साथ सामंजस्य बिठाने में भी संकोच नहीं किया है।

कुरान में परमात्मा के सर्वतत्व की चर्चा करते हुए कहा गया है कि परमात्मा की दृष्टि से अपने को कोई बचा नहीं सकता ( कुरान सुरा 89, 26 सूरा 57, 6 10 ) परमात्मा के सर्वज्ञत्व का विचार गीता हृदि सर्वस्य विष्ठितम कहकर प्रतिपादित करती है। इसमें परमात्मा के सर्वज्ञत्व का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। ब्रह्म को एकमात्र परमार्थिक सत्ता स्वीकार करते हुए जगत को अनित्य बताया गया है। भाष्यकार शंकर ने जगत की उपमा इन्द्रजाल से की है। इसी प्रकार कुरान में भी एक स्थल पर कहा गया है कि जान लो कि यह साँसारिक जीवन खेल-तमाशा है। यहाँ का बाह्य आडम्बर अन्दर में मिथ्या अहं को जन्म देने वाला है।

परमात्म सत्ता की ही तरह जीव सत्ता का भाव भी गीता के अनुरूप ही है। इस्लामी दर्शन का प्रसिद्ध दार्शनिक गजाली ( 1059-11111ई॰) जीव का लक्षण बतलाते हुए कहता है- “व लेसल-वदनो मिन कदाये जातेका-फदन्ह दाम ले- वदने लय अद्योका” अर्थात् शरीर तेरे अपने लक्षणों में नहीं है, इसलिए शरीर का नष्ट होना तेरा नष्ट होना नहीं है। जीवन के अविनाशित्व का भाव गीता “अनोनित्यः शाश्वताऽयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे” कहकर प्रतिपादित करती है।

गजाली का परवर्ती दार्शनिक इष्नरोश्द परम विज्ञान की अवस्था का वर्णन करते हुए मावाद तबइयात में स्पष्ट करता है कि ईश्वर का ज्ञान ज्ञान के ज्ञान का नाम है, क्योंकि उस अवस्था में ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता में विभेद नहीं रहता। गीता इसी को ज्ञानज्ञेय ज्ञानगमयं कहकर स्पष्ट करती है। ईश्वर प्राप्ति के सम्बन्ध में गीता तर्क के स्थान पर श्रद्धा को महत्व प्रदान करती है। इसी तरह दार्शनिक अबुल हुसैन अलनूरी का कथन है कि ईश्वर को तर्क द्वारा नहीं प्राप्त किया जा सकता उसे ईश्वर द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। अलनूरी की ही तरह खल्दून का भी यही चार है कि तर्क ज्ञान को उत्पन्न नहीं करता।

गीता में जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया इन चार अवस्थाओं को निरूपित किया गया है। इस्लामी दर्शन में यही चार अवस्थाएँ चार मंजिलों के नाम से प्रसिद्ध हैं। पहली जागृत अवस्था को इस्लामी दर्शन में नासूत स्वप्नावस्था को “मलकूत’ सुषुपित को ‘जबरुत’ और तुरीया को “लाहूत” कहा गया है। तुरीयावस्था की अभेद स्थिति का अनुभव इस्लामी दार्शनिक की चौथी मंजिल लाहूत का अवलहक का अनुभव है।

इस प्रकार गीता एवं इस्लामी दर्शन में विभेद मात्र नाम का ही है। तत्व एवं सिद्धान्त की दृष्टि से सर्वथा अभेद ही है। उदाहरणार्थ गीता का अद्वैत इस्लाम में तौहीद गीता का परम सत्य इस्लाम का मुतलक गीता का सन्यस्य सत्यम् इस्लाम में हकीकत उलहकाहक और गीता की ज्योतिषाँ ज्योतिः इस्लाम में नूर अल नूरिन के नाम से प्राप्त है। गीता जिसको मिथ्या और माया इस्लामी दर्शन में उसे मअलूय हम अदम और मौजूद-इमौहूय कहते हैं। जिस प्रकार इसमें ईश्वर को व्यक्त–व्यक्त सर्वव्यापी, एवं अन्तर्यामी कहा गया है उसी प्रकार इसलामी दर्शन में ईश्वर को ‘बातिन’ और ‘जाहिर’ मुदीत और सादी बताया है।

उपर्युक्त विवेचन इस तथ्य को उजागर करता है कि इस्लाम के मूल तत्व किस तरह गीता के सामंजस्य सूत्र में पिरोए है। यह साम्य इन दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों की प्राचीनता को स्पष्ट करता है। इसी के आधार पर डा॰राममूर्ति शर्मा ने अपने शोध प्रबन्ध “अद्वैत वेदान्त में बताया है कि इस्लामी दर्शन पर गीता का किस कदर स्पष्ट प्रभाव है। इसीलिए ब्राउन, मैकस हार्टिल, गोल्ड जीहर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने अपने ग्रन्थों में स्पष्ट घोषित किया है कि इस्लाम की विचार धारा के प्रमुख तत्त्व भारतवर्ष से लिए गए हैं।

गीता का तात्पर्य प्रभाव से नहीं है। न ही यह अपने द्वारा प्रदान किए गए विचारों का बदला माँगती है। इसका सूत्र तो प्रेमयोग में अन्तर्निहित है इसी को अपनी भाषा में “ मयि सर्व भिदं प्रोक्त सूत्रे मणि गणंहवा” कहकर घोषित करती है।

इसमें निरूपित जीवन दर्शन के सिद्धान्तों को यदि हम सब व्यवहार में ला सकें। हमारे अपने जीवन में आचरण, व्यवहार तथा सिद्धान्त की एकरूपता स्थापित हो सके तो जिस गीता के सामंजस्य सूत्र में सभी धर्म-दर्शनों के मूल तत्त्व पिरोए हैं। उसी प्रकार सिद्धान्त और व्यवहार के एकरूपता के सूत्र में समूची मानव जाति आबाद हो जायेगी। साम्प्रदायिक कट्टरता की दीवारें ढह जाएँगी। हिंदू मुस्लिम का विभेद समाप्त हो जाएगा। कट्टरता और इससे विभिन्न उपद्रवों की कालिख से पुता धर्म का विकृत स्वरूप पुनः अपना वास्तविक सौंदर्य प्राप्त कर सकेगा। इसी वास्तविकता को प्राप्त करने, अपनाने के लिए गीता अपने सप्तशत मन्त्रों से निरन्तर सन्देश सूना रही है।


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