सन् 1885। पूना के न्यू इंग्लिश हाई स्कूल में समारोह के समय प्रमुख द्वार पर स्वयं सेवक को इसलिए नियुक्त किया गया कि वह आने वाले अतिथियों के निमन्त्रण-पत्र देखकर सभा-स्थल पर यथास्थान बिठा सके। उस समारोह के मुख्य अतिथि थे चीफ जस्टिस महादेव गोविन्द रानाडे। जैसे ही वह विद्यालय के फाटक पर पहुँचे वैसे ही स्वयं सेवक ने अन्दर जाने से रोक दिया और निमन्त्रण पत्र की माँग की।
बेटे! मेरे पास तो कोई निमन्त्रण-पत्र है नहीं। रानाडे ने कहा। तब आप अंदर प्रवेश न कर सकेंगे। स्वयंसेवक का नम्रता पूर्ण उत्तर था।
द्वार पर रानाडे को रुका देख स्वागत समिति के कई सदस्य आ गये और उन्हें अन्दर मंच की ओर ले जाने का प्रयास करने लगे। पर स्वयं सेवक ने आगे बढ़कर कहा- ‘श्रीमान! मेरे कार्य में यदि स्वागत-समिति के सदस्य ही रोड़ा अटकायेंगे तो फिर मैं अपना कर्तव्य कैसे निभा सकूँगा? कोई भी अतिथि हो उसके पास निमन्त्रण-पत्र होना ही चाहिए। भेद-भाव की नीति मुझ से नहीं बरती जायेगी। यह स्वयं सेवक आगे चलकर गोपालकृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुआ और गोखले ने देश की बड़ी सेवा की।