निष्ठा आत्मशक्ति की निर्झरिणी

April 1988

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त्रिपदा कहीं जाने वाली गायत्री के तीन चरण हैं। उन्हें वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता कहा जाता है। इन्हीं के सहारे मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार बन पड़ता हैं। अध्यात्म भाषा में इन्हीं को प्रज्ञा, श्रद्धा और निष्ठा के नाम से जाना जाता है।

प्रज्ञा अर्थात्-दूरदर्शी विवेकशीलता, श्रद्धा अर्थात् आदर्शों के प्रति सघन भाव-संवेदना, निष्ठा अर्थात् उत्कृष्टता की पक्षधर अविचल साहसिकता। इन तीनों का समन्वय ही अन्तरंग क्षेत्र का त्रिवेणी संगम बनता हैं। ऐसा तीर्थराज संगम जिसमें स्थान करके कौए को कोयल और बगुले को हंस बनना संभव है। इसी परिवर्तन को आत्मिक काया-कल्प भी माना गया है। आत्मिक काया-कल्प अर्थात्-नर बानर में देवत्व का उदय अवतरण

प्रज्ञा और श्रद्धा की विवेचना पिछले अंकों में हो चुकी है। निष्ठा पर प्रकाश डालना इन पंक्तियों में समीचीन है।

निष्ठा सामान्यतया निश्चयात्मक बुद्धि को कहते हैं। ऐसी निश्चर्यातक जिसमें संकल्प, साहस और पराक्रम का सुस्थिर समावेश हो, जो प्रलोभनों, आकर्षणों और दबावों से भी अपने स्थान से विचलित न हो। चट्टान की तरह सुदृढ़ और सुनिश्चित बनी रहे। जिसे निरन्तर अपनाये रहने पर भी ऊब या उदासीनता आने न पाये। सरसता,

तन्मयता और तत्परता में किसी प्रकार कमी न आने पाये। ऐसी सुदृढ़ और सुनिश्चित मनःस्थिति को निष्ठा के नाम से जाना जाता है।

देखा गया है कि मानवी मन चंचल स्वभाव का हे। उसकी उपमा बानर वृत्ति से दी जाती रही है। बानर एक जगह नहीं बैठता, इस डाली से उस डाली पर अकारण उचकता, मचकता रहता है। चित्र-विचित्र आकृतियां बनाता रहता है। अकारण निर्रािक हरकतें करता रहता है। न तो एक मुद्रा में रहता है और न एक जगह बैठता है। चंचल प्रकृति की यह सहज प्रतिक्रिया है। मन की स्थिति भी लगभग ऐसी ही मानी गई है। अनगढ़ स्थिति में वह अस्त-व्यस्त कल्पनाएँ करता रहता है। वे कल्पनाएं भी किसी दिशा विशेष की ओर चलती नहीं। हिरन की तरह चौकड़ी भरती रहती है। ऐसी दशा में लम्बे समय तक की जाती रही कल्पनाएँ भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचती। किसी काम नहीं आती। समय गुजर जाता है। चिन्तन चेतना का एक बड़ा भाग ऐसे ही बरबाद हो जाता है। उस बहुमूल्य शक्ति का प्रतिफल कुछ भी हाथ नहीं लगता। इस प्रकार होती रहने वाली बरबादी को निष्ठा का अभाव ही कहा जा सकता है।

किसी निश्चय पर हर परिस्थिति में जमे रहने की संकल्प शक्ति को निष्ठा कहते हैं। उसके बिना महत्वपूर्ण कार्य तो क्या छोटे और सामान्य कार्य भी पूरे नहीं हो सकते। देर तक एक दिशा अपनाये रहने में ऊब आने लगती है। नवीनता की खोज और चाह रहती है। प्रदर्शनियों में दर्शक एक स्थान पर खड़े नहीं रहते। वे जल्दी-जल्दी इधर से उधर चलते रहते हैं। एक के बाद दूसरी वस्तु देखने को कौतुक पूरा करते है। नवीनता के अवलोकन का मनोरंजन करते है। इसी प्रकार अपने हाथ में लिए कार्यों के बारे में, लिए हुए संकल्पों के बारे में भी अस्थिरता बनी रहती है। चित्त चंचल होता रहता है। नवीनता खोजता रहता है। नये के आकर्षण में पुराने पर से मन उचट जाता है। लम्बे समय तक एक कार्य को करते हुए ऊब आने लगती है और मन कुछ नया जैसा खोजने लगता है। नया न भी मिले तो भी पुराना नीरस लगने लगता है और उसे छोड़ बैठने जैसी उदासी छा जाती है।

उपासना के क्षेत्र में आमतौर से ऐसा होता है। कुछ दिन उत्साह चलता है। नवीनता जैसे-जैसे घटती जाती है, वैसे-वैसे उत्साह में भी कमी आने लगती है। प्रयास घटता है और कुछ समय में वह समाप्त प्रायः हो जाता हैं। एक पकड़ा दूसरा छोड़ा। दूसरा छोड़ा तीसरा पकड़ा, यह सिलसिला चलता रहता है और हाथ में लिये सभी कार्य प्रायः अधूरे रहते और छूटते जाते हैं। मन की चंचल वृत्ति अधिकाँश लोगों से यही कराती रहती है। उनमें स्थिरता और दृढ़ता का अभाव रहता है। फलतः किसी प्रयास को पूरा कर नहीं पाते। पानी में बबूले क्षण-क्षण में उठते और फूटते रहते हैं। ऐसा ही कुछ अस्थिर मति वाले भी करते रहते हैं। समय बीतता चला जाता है। जीवन के दीप का तेल चुक जाता हैं। कोई कहने योग्य सफलता नहीं मिल पाती। बार-बार रास्ता बदलते रहने वाले किसी लक्ष्य तक कहाँ पहुँच पाते है?

इस चंचल वृत्ति और ऊब से छुटकारा पाना आवश्यक है ताकि जिस कार्य पर भी जुटा जाये, जिस भी मान्यता को अपनाया जाये, उस पर स्थित एवं दृढ़ रहा जा सके। इसी आधार पर कार्य प्रणाली चलती और सफलता मिलती है। आदर्शवादी प्रयोजनों पर तो यह बात और भी अधिक लागू होती हैं। क्योंकि उनका लोक-प्रचलन नहीं के बराबर है। कोई विरले ही व्रतशील आदर्शों के जीवन में अपनी निष्ठा लम्बे समय तक बनाये रह पाते है। कारण कि उनके कारण आत्म-संयम बरतना पड़ता है। स्वेच्छाचारी चिन्तन पर लगाम लगानी पड़ती है। लोभ-मोह और अहंकार अपने आकर्षक रूप बना कर प्रलोभनों के सब्ज बाग दिखाते रहते है। अधिकाँश लोग भी उसी प्रकार का आचरण करते दिखाई देते हैं। अनुकरण की सहज वृत्ति भी बहुमत का अनुसरण करने के लिये फुसलाती और धकेलती रहती है। ऐसी दशा में कोई रिले ही अपनी आदर्शवादी रीति-नीति पर स्थिर रह पाते है।

पानी का स्वभाव नीचे ढलान की ओर बहने का है। मनुष्य के लिये भी संचरित्र स्थिर में यही कठिनाई सामने आती है। संचित कुसंस्कार और प्रचलन में कार्यान्वित होते प्रयास अधोगामी बनने के लिये धकेलते हैं और उनसे लोहा ले सकना कठिन पड़ जाता है कई व्यक्ति आदर्शों की दुहाई लेते देखे जाते है। उनके पक्ष में रहते और लिखते भी रहते हैं, पर जब निजी व्यवहार में आदर्शों को अपनाये रहने का सवाल आता है तो लड़खड़ाने लगते है वैसा ही कुछ करने लगते है, जिनसे तात्कालिक स्वार्थों की पूर्ति होती है। ऐसे डाँवाडोल मन में उत्कृष्टता की पक्षधर आदर्शवादिता कहाँ टिक पाती है?

कई बार कठिनाइयाँ भी ऐसी आ जाती है, जिनसे निपटने के लिये अनीति का आश्रय लेने का दबाव पड़ता है। उनका सामना करने के लिये जिस धैर्य, साहस और संघर्ष की आवश्यकता पड़ती है, वह न जुट पाने पर भी कई बार ऐसा होता है कि डर और घबराहट की स्थिति में अनीति के आगे सिर झुकाना पड़ता है और वह करना होता है, जिसे करने के लिए सामान्यतया सोचा भी नहीं गया था। इस प्रकार पतन के गति में गिरने से बचाने वाली एक ही शक्ति है-निष्ठा आदर्शों पर दृढ़ रहने के लिये निष्ठावान व्यक्ति ही अपने संकल्प के बल पर एकाकी खड़े रह पाते है। व्यवहारकुशल तो अपना लाभ कमाने और झंझटों से बचे रहने में ही अपना लाभ सोचते हैं और बेपेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढ़क जाते है।

निष्ठा को ही उच्चस्तरीय आत्मबल मनोबल कहते है। उसमें आदर्शों के प्रति समर्पित रहने का ऐसा संकल्प जुड़ा होता है जो कठिन समय में भी सीना ताने खड़ा रह सके। प्रलोभनों, आकर्षणों और दबावों के आगे न झुकने का व्रत ग्रहण कर चुका हों। जो हर कीमत पर अपनी राह चलने और उत्कृष्टता के चरम लक्ष्य तक पहुँचने की सुनिश्चित ठान ठान चुका हो। ऐसे ही लोग निष्ठावान कहलाते है।

निष्ठा को जगाने और परिपक्व करने के लिए आदर्शवादी महामानवों के जीवन चरित्र पढ़ना सुनना और उन्हें मस्तिष्क में दृश्य रूप कल्पना चित्र बनाते रहना आवश्यक है। आज वैसे देव-मानव इर्द-गिर्द दीख नहीं पड़ते तो भी उनका सर्वथा अभाव कभी भी नहीं हुआ है। आज भी ऐसे उत्कृष्ट चरित्र और आदर्श क्रिया-कृत्य वाले अनेकों व्यक्ति संसार में हो सकते हैं, पर कठिनाई एक ही है कि उन सबसे अपना परिचय नहीं होता। दूर एवं अविज्ञात होने के कारण संपर्क भी नहीं सध पाता। जिनके साथ संपर्क रहता है उनमें से अधिकाँश लोग चरित्र की दृष्टि से गये-गुजरे होते है। उन्हीं के क्रिया वाले पक्ष सामने रहते और प्रभावित करते रहते है। इन परिस्थितियों में एक ही अवलम्बन हाथ में रह जाता है कि महामानवों के सती-शूरमाओं के आदर्शवादी चरित्र को सुने, समझें, मनन, चिन्तन करे और अपने को उसी ढाँचे में ढालने की योजना बनायें। जीवन की भावी योजना भी उसी स्तर पर बननी चाहिये, जैसे कि सरकारी पंचवर्षीय योजनायें बनती है। रेल एक लाइन पर चलती है तो निश्चित स्टेशनों पर ही ठहरती है और अन्तः में वही रुकती है जहाँ उसका अन्तिम पड़ाव हैं यह नीति सुदृढ़ व्यक्तित्वों वाले मनुष्यों की रहती है। वे संकीर्ण स्वार्थ साधने के लिये कुछ भी करने के लिए आतुर नहीं होते, है, जिसका अनुगमन करते हुए अनेकों श्रेष्ठता के पथ का अनुगमन कर सकें।

समझा यह जाता है कि संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाने में लाभ है। उससे तात्कालिक दृष्टि से कुछ हाथ भले ही लग जाये पर अन्त में खाली हाथ रहने और जीवन की बहुमूल्य सम्पदा व्यर्थ कामों में गवाँ देने के कारण पश्चाताप ही हाथ लगता है जबकि देव मानव यशस्वी होते, आत्म सन्तोष पाते असंख्यों की श्रद्धा सहायता अर्जित करते है। पीछे के लिये अपना यश-शरीर छोड़ मरते हैं, जो चिरकाल तक असंख्यों को कल्याणकारी प्रकाश देता रहता है।

आँधी तूफान आते जाते हैं पर सुदृढ़ पर्वत शिखर जहाँ के तहाँ खड़े रहते है। विशालकाय वट वृक्ष भी सर्दी, गर्मी सहते और अपने स्थान पर अडिग खड़े रहते है। निष्ठा में ऐसी ही सामर्थ्य है। वह बहुत सोच−विचार कर किसी महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचती है। जब कोई निश्चय कर लेती है तो उस पर दृढ़तापूर्वक सुस्थिर रहती है। डगमगाने वाले तत्वों के साथ जमकर संघर्ष करती हैं। अनीति के सामने झुकने का नाम नहीं लेती, भले ही उसे दबाव से टूटना ही क्यों न पड़े? उसका हर कदम इस प्रकार रखा जाता है, जिसमें फिसलने की आवश्यकता ही न पड़े।

निष्ठा आत्मा की गहराई से उभरने वाली शक्ति है। वह न तो लड़खड़ाना जानती है न डगमगाना। उसे आदर्श प्राण प्रिय होते है। जिस प्रकार मछली पानी के बिना जीवित नहीं रह सकती, उसी प्रकार नैष्ठिकों को उत्कृष्टता भरे चिन्तन,चरित्र, व्यवहार एवं वातावरण में ही जीवित रहने का अवसर मिलता है। कहते है कि राजहंस मोती चुगते हैं, कीड़े नहीं खाते। उसी प्रकार यह भी निश्चित है कि अध्यात्म मार्ग के पथिक अपनी उपासना, साधना और आराधना के प्रति निष्ठावान ही होकर जीवन-यापन करते है।


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