अपनों से अपनी बात - प्राणवान परिजन यह कर गुजरें!

April 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

-- सद्ज्ञान की सार्थकता-सजीवता इसमें है कि वह सत्कर्म रूप में परिणत हो सके। घुने बीज की तरह उस अध्ययन को भी निरर्थक माना जाना चाहिए जो अंकुर तो उगाता नहीं, अपने खोखले आकार को भी बोये जाने पर गला बैठता है।

-- अखण्ड-ज्योति मनोरंजन नहीं है। उसे प्रेरणातंत्र माना जाता है क्योंकि उसने अपने पाठकों को उत्कृष्ट आदर्शवादिता अपनाने और सेवा साधना में निरत होने हेतु सहमत सक्रिय किया है। यही कारण है कि अखण्ड-ज्योति पाठक चरित्रवान, लोकसेवी के रूप में विकसित हुए है। उनने नवसृजन का दायित्व अपने कंधों पर उठाया है।

-- शिक्षार्थियों की तत्परता और तन्मयता किस स्तर की है, यह परीक्षा अनिवार्य रूप से होती है। जो उत्तीर्ण होते हैं, उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद पाने का गौरव मिलता है। हर छात्र उस लाभ से लाभान्वित नहीं होता।

-- इन दिनों अखण्ड-ज्योति परिजनों की परीक्षा हो रही है। उसके सूत्र संचालक अपनी प्रत्यक्ष गतिविधियों का स्थानान्तरण कर रहे हैं। अपने दायित्व वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों को सौंप रहे हैं। जो उन्हें उठा सकेंगे, वे ही सच्चे अनुयायी, उत्तराधिकारी, घनिष्ठ एवं आत्मीय हैं।

-- राजकुमारों के समर्थ होने पर राजा निवृत्ति लेते थे। राजकुमारों को राजकाज सौंपते थे। यह निश्चिन्तता मिलने पर वे किन्हीं बड़े परमार्थिक कार्यों में निरत होते थे। वृक्षों के पते गिरते हैं, कोपलें उनका स्थान लेती और देखते-देखते फूलों से फलों से लद जाती है। वरिष्ठ निवृत्त होकर पदोन्नति जैसा श्रेय प्राप्त करते है। कनिष्ठों को उस रिक्त स्थान की पूर्ति करनी पड़ती है। अखण्ड-ज्योति के संचालक और पाठक इसी प्रकार अपनी भूमिका निबाहें, इसी में उनकी परीक्षा और सफलता है।

-- अखण्ड-ज्योति के पाठक प्रज्ञा पुत्र कहे जाते है। उन्हें अपने भाव क्षेत्र की वंश परम्परा का अनुसरण करना है। सौंपे जा रहे दायित्वों का समग्र श्रद्धा के साथ अपनाना है और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए प्राण-पण से जुटना है। इसके लिए आज का दिन ही सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है।

-- चार दायित्व जो हर प्रज्ञापुत्रों को सौंपे जा रहे हैं वे हैं (1) आत्मपरिष्कार (2) सद्ज्ञान संवर्धन (3) नारी जागरण (4) दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। यह चारों ही वे पाये है जिनके ऊपर नवयुग का राजसिंहासन बनना और सुशोभित होना है।

(1) आत्म-परिष्कार -

प्रत्येक प्रज्ञा-पुत्र चिन्तन, चरित्र, व्यवहार को प्रखर प्रामाणिक बनाये। उस साँचे के सदृश सिद्ध हो जिसके संपर्क से महत्वपूर्ण पुर्जे सिक्के ढलते रह सकें। जलता दीपक ही दूसरे दीपक को जलाता है। व्यक्तित्व सम्पन्नों की ही प्रतिभा निखरी है। उन्हीं का प्रभाव दूसरे ग्रहण करते है। जिसे कुछ महत्वपूर्ण करना या कराना है उसे प्रामाणिकता पर आधारित प्रतिभा अर्जित करनी ही पड़ती है। प्रज्ञा पुत्रों को वही प्रधानशक्ति अर्जित करने को प्रमुखता देनी है।

-- प्रतिभा चार आधारों पर निखरती है (अ) समझदारी (आ) ईमानदारी (इ) जिम्मेदारी (ई) बहादुरी। इन्हें स्वभाव का अंग बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए। अपनी आदतों में श्रमशीलता, शिष्टता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, सहकारिता को अधिकाधिक मात्रा में समाविष्ट करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए। व्यक्तित्व इसी आधार पर निखरता है। प्रभावी, प्रतापी, मनस्वी एवं समर्थ समुन्नत बनने के यही प्रमुख आधार हैं।

-- आत्म-परिष्कार की तरह ही लोक-मंगल को भी अपनी जीवनचर्या का महत्वपूर्ण अंग, अविच्छिन्न अंग बनाना चाहिए। सद्ज्ञान संवर्धन की, लोक कल्याण की प्रधान आवश्यकता अनुभव करनी चाहिए। इसके लिए नित्य अपने समय में से कुछ घण्टे नियमित रूप से निकालना चाहिए। अपने उपार्जन का एक भाग इसी निर्मित अंशदान के रूप में नियोजित करते रहना चाहिए। उन्हीं दो साधनों के सहारे वह पुण्य परमार्थ बन पड़ता है जिसमें उच्चस्तरीय स्वार्थ एवं अजस्र लाभ का समावेश।

-- औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकारा जाय। परिवार छोटा रखा जाय। उसके सदस्यों को शिक्षित, स्वावलम्बी, सुसंस्कारी बनाने का प्रयत्न भर पर्याप्त समझा जाये। संपत्ति संग्रह के लोभ, परिवार के लिए संपत्ति छोड़ मरने के मोह से मुँह मोड़ा जाय। अहंकार प्रेरित उद्धत प्रदर्शनों में मन न डुलाया जाय। सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धान्तों के ढाँचे में अपनी जीवनचर्या को ढाला जाय। स्वयं विनम्र रहा जाय और दूसरों को सम्मान दिया जाय।

(2) सद्ज्ञान संवर्धन -

अखण्ड-ज्योति की ज्ञान गंगा ने अनेकों उद्यानों खलिहानों को सुसम्पन्न बनाया है। इस प्रकाश पुँज को व्यापक और विस्तृत बनाने के लिए प्रयत्नशील रहा जाये। अपनी पत्रिका कम से कम दस को पढ़ाते रहने का नियम निभाया जाय। विचारशीलों से नये सदस्य बनने का आग्रह किया जाय। इन प्रयत्नों से अखण्ड-ज्योति को पचास वर्षों में हजार गुनी होने का श्रेय मिल सकता है। बढ़े सदस्यों के माध्यम से युगान्तरीय चेतना का आलोक कई गुना ज्योतिर्मय एवं व्यापक बन सकता है।

पाँच निरक्षरों को साक्षर बनाने का संकल्प लिया जाय। परिवार के, पड़ोस के, संपर्क के लोगों में साक्षरता प्रसार का नियमित प्रयत्न किया जाय। प्रौढ़ पाठशालाएँ स्थापित की जायें। बाल संस्कारशालाएँ चलाकर स्कूली बच्चों को अधिक सुयोग्य, सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया जाय। शिक्षा संवर्धन को प्रगति प्रयासों में मूर्धन्य मानकर चला जाय। निरक्षरता से जूझने में, शौर्य, पराक्रम दिखाने में सार्थक स्तर की बहादुरी समझी जाये।

शिक्षितों को युग-चेतना से अवगत कराने के लिए ‘झोला पुस्तकालय’ योजना के अंतर्गत हर शिक्षित तक युग साहित्य घर बैठे बिना मूल्य पहुंचाने और वापस लेने का क्रम चलाया जाय। जहाँ संभव हो, वहाँ ‘ज्ञान-रथ’ की साहित्य गाड़ियाँ चलाई जायँ और युग-साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का व्यापक प्रयत्न किया जाय। ‘स्लाइड प्रोजेक्टर यंत्र’ द्वारा घर-घर सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का प्रचलन अधिक सरलता और अधिक सफलतापूर्वक संभव किया जा सकता है।

दीप-यज्ञों के माध्यम से भावनाशीलों का एकत्रीकरण, संगठन एवं सत्प्रयोजनों के लिए व्रत लेने हेतु उपस्थित जनों को संकल्पित किया जा सकता है। धर्म-तंत्र से लोक शिक्षण का यह अतीव सस्ता सरल एवं प्रभावी माध्यम है। इसे सभी सत्कार्यों में सम्मिलित किया जाय। हर व्यक्ति द्वारा मात्र पंद्रह अगरबत्तियाँ और एक घृत दीप घर से थाली में सजाकर लाने एवं ऐसे कई व्यक्तियों के सम्मिलित होने से दीप-यज्ञ बड़े समारोह पूर्ण भाव भरे वातावरण में सम्पन्न हो जाते हैं। कर्मकाण्ड एक घण्टे का और दो घण्टे का संगीत प्रवचन इन आयोजनों में होता है जो हर कहीं, हर किसी के लिए सरल है। सद्ज्ञान संवर्धन का यह महत्वपूर्ण सामुदायिक प्रयास है। उसे सीखा और व्यापक बनाया जाय।

-- संगीत मण्डलियाँ गठित की जाय। गायन वादन के साथ परामर्श-प्रवचनों का समावेश छोटे-बड़े सभी आयोजनों में लोक शिक्षण की महती भूमिका सम्पन्न करता है। लोक सेवकों को संगीत अभ्यासी बनाने के लिए स्थान-स्थान पर उस स्तर की शिक्षण व्यवस्था की जाय।

(3) नारी-जागरण -

-- जिस देश की आधी जनसंख्या नारी रूप में अशिक्षित, अनगढ़, असमर्थ स्थिति में पड़ी हो उसकी प्रगति की संभावना कभी भी समग्र न बन सकेगी। नारी को नर के समतुल्य, सुयोग्य, समर्थ और समुन्नत बनाने के लिए भावनाशीलों को व्यक्तिगत और सामूहिक समर्थ प्रयास करने चाहिए। व्यक्तिगत रूप से अपने प्रभाव क्षेत्र से इसका साहसिक शुभारम्भ किया जाये और सामूहिक रूप से प्रचण्ड नारी जागरण अभियान चलाया जाय।

-- कन्या और पुत्र का नर और नारी का अंतर समाप्त किया जाय। नर और नारी में से किसी को भी ऊँचा-नीचा न समझा जाय। दोनों को समान अधिकार और समान कर्तव्य पालन हेतु सहमत किया जाय। पुरुष को दबाव देने नारी को हीनता अपनाने से रोका जाय। नर को इसके लिए सहमत किया जाय कि वह अपने वर्ग द्वारा अनुचित प्रतिबन्धों में नारी को जकड़ने की अनीति का प्रायश्चित कर परिमार्जन करेगा। नारी में उठने की उमंगे भरेगा।

-- अपने घरों की नारियों को शिक्षित बनाते चलने का क्रम जारी रखा जाये। उन्हें युग-साहित्य पढ़ने या सुनने का अवसर दिया जाय। स्वावलम्बी बनाने के लिए कुटीर उद्योगों से अभ्यस्त कराया जाय। ऐसे साप्ताहिक महिला सत्संग चलाते रहने का क्रम बिठाया जाये जिसमें गाँव-मुहल्ले की महिलाएँ एकत्रित होकर बहुमुखी प्रति का उत्साह एवं मार्ग-दर्शन प्राप्त करें। शिक्षा, स्वावलम्बन एवं प्रेरक सत्संग की व्यवस्था ही नारी जागरण की आरम्भिक प्रक्रिया मानी जाये।

-- जहाँ सामूहिक व्यवस्था बन पड़े वहाँ नारी प्रशिक्षण-कक्षाएँ चलाई जायें। इनमें उपरोक्त तीनों प्रयासों का समन्वय हो। छोटे-बड़े समारोह समय-समय पर होते रहें। घर-घर जाकर स्लाइड प्रोजेक्टरों व चित्र प्रदर्शनियों के माध्यम से परिवार-निर्माण में, समाज-निर्माण में नारी की महती भूमिका सम्पादित किये जाने का समग्र शिक्षण दिया जाय। गायन एवं वक्तृता के अभाव में वह कार्य टेपरिकार्डरों के माध्यम से भी हो सकता है।

-- शिक्षित महिलाएँ इस प्रयोजन में आगे रहें। वे समीपवर्ती क्षेत्रों में नारी संपर्क के लिए टोली बनाकर निकलें। नारी के द्वारा नारी-जागरण अधिक अच्छी तरह सम्पन्न हो सकता है। आरम्भ अपने घरों की महिलाओं से हो इसके लिए आगे बढ़ने का अवसर प्रोत्साहन और मार्गदर्शन दें। नारी-जागरण की योजना पुरुष बनायें, वातावरण विनिर्मित करें और साधन जुटायें। पर प्रत्यक्ष संपर्क और सेवा कार्यों में अपने घरों की संपर्क की नारियों को ही आगे रखें। इक्कीसवीं सदी नारी-प्रधान होगी। उसी की शालीन सेवा साधना से समाज का काया-कल्प होगा। उस तैयारी के लिए अभी से कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। नारी-जागरण प्रयासों में अब हर विचारशील नर-नारी को बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिए।

(4) दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन

-- सत्प्रवृत्ति संवर्धन का अविच्छिन्न है-दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन। खेत उद्यान को जहाँ सींचना पड़ता है, वहाँ उनके बीच उगे हुए खरपतवार भी उखाड़ने पड़ते हैं। चर जाने वाले पशु-पक्षी भगाने पड़ते है। पौष्टिक आहार ही नहीं शरीर में घुसने वाले रोगों का उपचार भी आवश्यक है। सज्जनों का सहकार जहाँ जरूरी है, वहाँ दुष्ट दुराचारियों से निबटना भी आवश्यक है। व्यक्तिगत दुर्गुणों-अभावों की तरह ही सामाजिक प्रचलन में व्याप्त अवांछनियताओं से लोहा लेने का लक्ष्य रखना चाहिए।

-- नशे-बाजी की आदत एक प्रकार की महामारी होने के समतुल्य है। इससे सेवनकर्त्ता की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, नैतिक, पारिवारिक सभी परिस्थितियाँ गड़बड़ाती है। इस कुटैव से स्वयं बचना चाहिए, औरों को भी बचाना चाहिए। जो फँसे हुए है, उन्हें समझाने से लेकर दबाव देने तक के उपाय अपनाकर इस कुचक्र से उबारने का भरपूर प्रयत्न करना चाहिए।

-- खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। नारी का अवमूल्यन करती और नर का अहंकार बढ़ाती हैं। यह कुप्रचलन देशव्यापी दरिद्रता का सबसे बड़ा कारण है। इसे साहस और उभारकर किसी भी कीमत पर हटाना चाहिए। अभिभावक प्रतिज्ञा करें, विवाह योग्य लड़के-लड़कियाँ शपथ लें कि वे दहेज, जेवर और धूमधाम वाली शादियाँ न करेंगे। जहाँ यह हो रहा है, उन आयोजनों में सम्मिलित न होंगे, भले ही वह सगे संबंधियों के यहाँ ही क्यों न हो?

-- विवाह सर्वथा पारिवारिक उत्सव की तरह बिना प्रदर्शन के करें। यदि स्थानीय रूढ़िवादी इस निर्धारण में बाधक बनते हैं, तो शान्ति-कुँज हरिद्वार में आकर ऐसे विवाह कराये जा सकते हैं। वर-कन्या दोनों पक्षों के पाँच-पाँच व्यक्तियों से अधिक नहीं आएँ ऐसे विवाह बड़ी संख्या में हर वर्ष शान्ति-कुंज में होते हैं। अखण्ड-ज्योति परिजन यदि अपने यहाँ नितान्त सादगी का विवाह न कर सकें तो शान्ति-कुंज आकर उसे सम्पन्न करने की व्यवस्था बनायें।

-- जाति-पाँति के आधार पर ऊँच-नीच की भावना का समापन किया जाय। नर और नारी एक समान, जाति-वंश सब एक समान के मिशन उद्घोष को व्यवहार में उतारने का प्रयत्न किया जाय।

-- फैशन के नाम पर अहंकारी प्रदर्शन के लिए जो अपव्यय होता रहता है, उसे रोका जाय। ‘सादाजीवन-उच्चविचार’ के सिद्धान्त का परिपालन किया जाय। महंगे जेवर, महंगे-कपड़े और ठाट-बाट प्रदर्शन के, भौंड़े-श्रृंगार के लिए जो अनावश्यक खर्च होता रहता है, उसे रोका जाय। बचत को प्रोत्साहित किया जाय। बचत, बैंकों, पोस्ट–ऑफिसों में रहे, ताकि उस पूँजी से देश में उद्योग-व्यवसाय की वृद्धि होती रहे, अनेकों को काम मिलता रहे।

शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद यह दो बड़े कारण हैं पिछड़ेपन और दरिद्रता के। इन दोनों से जूझने के लिए व्यस्तता की आदत डालनी चाहिए। इस निमित्त कुटीर-उद्योगों का प्रचलन आवश्यक है। जापान आदि देश इसी आधार पर सुसम्पन्न बने हैं। जहाँ जिस उद्योग में प्रचलन की गुंजाइश हो, वहाँ उस स्तर के उपाय अपनाये जायँ। हर किसी को उपार्जन में कार्यरत रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाय।

अस्वस्थता का प्रथम कारण है। अस्वच्छता, सर्वांगीण सफाई का महत्व, स्वरूप और प्रतिफल हर किसी को समझाया जाना चाहिए। स्वच्छता की सभ्यता का प्रथम चिन्ह माने जाने की मान्यता पनपाई जाय।

स्वास्थ्य संवर्धन के दो आधार हैं-आहार का सही चयन और व्यायाम का नियमित अभ्यास। कुपोषण निवारण के लिए आहार विद्या के सभी पक्षों का ज्ञान रहना चाहिए। पाक विद्या का ऐसा अभिनव निर्धारण होना चाहिए जिसमें पोषक तत्वों की बर्बादी न होने पाए। व्यायाम अपनी स्थिति के अनुरूप हर कोई किया करे। इसके पृथक-पृथक स्वरूप सर्वत्र जानकारी में उतारे जायँ। फर्स्ट एड, होमनर्सिंग स्काउटिंग जैसी आवश्यक शिक्षाएँ सर्वत्र मिलें। व्यायाम शालाएँ चलें और उनमें लाठी चलाने जैसी शिक्षाएँ अनिवार्य रहें।

प्रदूषण निवारण के लिए हरीतिमा संवर्धन आवश्यक है। वृक्षारोपण के लिए भरपूर प्रयास किया जाय। वृक्षों को अनावश्यक कटने से रोका जाय। घर-घर में शाकवाटिकाएँ उगाई जाती रहें। पुष्प-वाटिकाओं से रहित कोई घर न हो। लकड़ी के ईंधन की बचत हो। ऐसे उपाय अपनाने पर हरीतिमा संवर्धन का क्रम चलता रह सकता है और बढ़ते हुए प्रदूषण की रोकथाम होती रह सकती है।

रूढ़िवादिता, मूढ़मान्यताएँ, कुरीतियाँ, अनैतिकताएँ समाज के हर क्षेत्र में चित्र−विचित्र परेवेशों में फैली हुई हैं। वे जहाँ जिस प्रकार जड़ जमाए हुए हों; उनके कारणों को खोजते हुए निराकरण के उपाय उपचार अपनाये जाते रहने चाहिए। न्याय, नीति, विवेक और औचित्य का प्रचलन हो, इसके लिए स्थानीय परिस्थितियों को दृष्टिगत रख अपनी-अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप प्रयास चलते रहने चाहिए। एकता, समता, और न्याय-निष्ठा अक्षुण्ण और जीवन्त बनी रहे, इसके लिए अनवरत प्रयत्न चलते रहना चाहिए।

अनुरोध और आग्रह

अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रायः पाँच लाख सदस्य है। उसका प्रभाव क्षेत्र प्रायः पच्चीस लाख सुशिक्षितों तक जा पहुँचता है। इतने परिवारों में उसका प्रवेश है। हर परिवार में छोटे-बड़े सदस्य हैं। यह समूचा परिकर यदि उपरोक्त चार सूत्री योजना अपनालें तो उसके कृत्यों से करोड़ों अनुप्राणित हो सकते हैं। इस आधार पर बने वातावरण से अगणित लोगों को प्रगति प्रेरणा से अभिसिंचित होने का आधार बन सकता है। इस सुखद संभावना को मूर्तिमान करने के लिए अखण्ड-ज्योति परिवार के सभी घटकों को अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप कुछ न कुछ करते रहने का व्रत लेना ही चाहिए।

जिन्हें जो करने का उत्साह उठा हो, जिनने जिस प्रकार जो करने की योजना बनाई हो, जितनी प्रगति की हो, जिस स्तर की सफलता पाई हो, उस सम्बन्धी आवश्यक जानकारियाँ शान्ति-कुँज हरिद्वार भेजते रहना चाहिए ताकि क्रिया-कलापों में पारस्परिक विचार विनिमय से और भी अधिक युग सृजन के अनुरूप वातावरण बन सकें।

उपरोक्त चारों निर्धारणों को क्रियान्वित करने के लिए शान्ति-कुँज में तीन-तीन माह के एवं दस-दस दिन के सत्र एक साथ चल रहे है। अखण्ड-ज्योति परिवार के शिक्षित नर-नारी जिनकी आयु पच्चीस वर्ष से अधिक हो, इन सत्रों में इच्छित मास अथवा सत्र में सम्मिलित होने का आवेदन कर सकते हैं। प्रशिक्षण में उपरोक्त चारों निर्धारणों का संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रशिक्षण पूरा कराने का प्रयत्न किया जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118