आत्म-परिष्कार मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। गुण, कर्म, स्वभाव में प्रखरता, प्रामाणिकता और प्रतिभा का विकास, विस्तार इसी आधार पर सम्भव होता है। मनःस्थिति ही परिस्थितियों को जन्म देती है। अनुकूलता प्रतिकूलता यों बाह्य वातावरण से भी किसी कदर जुड़ी रहती है, पर उनका उद्गम स्रोत अन्तस्थल ही है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माणकर्ता आप है, वह स्वेच्छापूर्वक उत्थान और पतन के मार्ग पर चलता है। इसी आधार पर उसके सामने उत्थान एवं पतन के अवसर सामने आते है। सम्पन्नता और विपन्नता भी इसी आधार पर बहुत कुछ निर्भर रहती हैं।
आत्म-परिष्कार उपक्रम में उपासना का अपना विशिष्ट स्थान है। वह सीधे भावना क्षेत्र को स्पर्श करती है भावनाएँ, विचारणाओं और कल्पनाओं को इच्छानुसार मोड़ती हैं। यह प्रक्रिया, क्रिया-कलाप के रूप में फलित होती है। यही है उत्कर्ष और अपकर्ष का केन्द्र बिन्दु जिसे उपासना साधना के आधार पर प्रभावित किया जाता है। भली या बुरी उपासनाएँ अपने-अपने विकास और विनाश के आधार खड़े करती हैं।
आस्तिक समुदाय में अपने-अपने स्तर की उपासनाओं का विधान और प्रचलन है। परम्परावादी उन्हें संपर्क क्षेत्र के वातावरण से अपना लेते है। किन्तु विचारशीलों के सामने एक कठिनाई यह आती है कि अनेकानेक प्रचलनों में से किसे अपनाएँ किसे न अपनाएँ। इस असमंजस को दूर करने के लिए उन्हें तर्क, तथ्य और प्रमाण की कसौटी लगानी पड़ती है और जानना पड़ता है कि अनेकानेक प्रचलनों में से समाधानकारक क्या है? किसे छोड़ा और किसे अपनाया जाये?
यों उपासना का प्रमुख आधार श्रद्धा है। श्रद्धा के साथ आत्म-क्षेत्र की विशिष्टताएँ, विभूतियाँ जुड़ती हैं। अश्रद्धा रहने पर कोई भी पूजा, पाठ, विधि विधान, जप, तप एक खिलवाड़ बन कर रह जाता है। कौतुक कौतूहल की तरह कई व्यक्ति उपासना, साधना करते तो है, पर उनका कोई कहने लायक परिणाम न मिलने पर और भी अधिक अश्रद्धालु बन जाते हैं। यहाँ भूल विधि-विधान के किसी भी क्रम में नहीं खोजी जानी चाहिए, वरन् देखा यह जाना चाहिए कि उस प्रयोग में श्रद्धा का समावेश कितना रहा? श्रद्धालु को देव प्रतिमाएँ रामकृष्ण परमहंस की तरह, मीरा की तरह, एकलव्य की तरह शक्ति और यथार्थता परिलक्षित होती है; जबकि अश्रद्धालु प्रतिमाओं का उपहास उड़ाते रहते हैं। मूर्तिकारों के देव प्रतिमाएँ विक्रयार्थ रखी गई वस्तु मात्र होती हैं, जबकि भावनाशील उनके सहारे अपनी श्रद्धा को परिपक्व करते और भाव संवेदनाओं को परिष्कृत करते हैं। यहाँ श्रद्धा विश्वास की शक्ति ही प्रधान रूप से काम करती है। उसके अभाव में साधनाएँ एक प्रकार की चिह्न पूजा भर बन कर रह जाती हैं।
इतने पर भी मनुष्य विवेकशील होने के नाते पूजा पद्धतियों में से विशिष्टता की खोज-बीन करे और उनमें से अधिक प्रभावी को चुनने का प्रयत्न करे तो इसमें कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है।
गायत्री मंत्र की अपनी विशेषताएँ हैं। उसका शब्द गुन्थन इस प्रकार का है कि जप या उच्चारण करने वाले के आन्तरिक क्षमता केन्द्र प्रभावित और प्रकाशित होते हैं। इस तथ्य को परीक्षा की कसौटी पर कस कर भी जाना जा सकता है। प्रयोग परीक्षण के रूप में कोई कुछ गायत्री उपासना करके देखे तो उसे अनुभव होगा कि श्रम और समय निरर्थक नहीं गया। उसने अपना प्रभाव उत्पन्न किया। भाव संवेदनाओं में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ी। बुद्धि में आदर्शवादिता का पक्षधर रुझान आरम्भ हुआ। क्रिया-कलाप में सात्विकता का अनुपात बढ़ा और प्रतिभा तथा प्रखरता का अनुपात पहले की अपेक्षा अधिक समुन्नत हो चला। इस तथ्य को आत्म-निरीक्षण, परीक्षण के आधार पर देखा समझा जा सकता है। जिन्हें साधना विज्ञान की क्षमता पर विश्वास नहीं है, वे भी इसे प्रयोग परीक्षणों के रूप में कुछ समय कार्यान्वित कर सकते हैं। अनुसंधानों में बहुत समय, श्रम लगता रहता है। कोई चाहे तो गायत्री उपासना को अनुसंधान के रूप में प्रयोग, परीक्षण की तरह कसौटी पर कस सकता है। अनेकों का अनुभव सत्परिणाम का साक्षी हैं।
यदि साधना में श्रद्धा का समावेश हो तब तो कहना ही क्या? इस समन्वय से सोना सुगन्ध के सम्मिश्रण जैसा उदाहरण सामने आता है। श्रद्धा की सिंचाई पाने पर साधना का वृक्ष तेजी से बढ़ता और फलता, फूलता देखा गया है। यों अश्रद्धालुओं का प्रयोग परीक्षण भी सर्वथा निरर्थक नहीं जाता। वे अपने में आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता की मात्रा क्रमशः आगे बढ़ती हुई देखते हैं।
शब्द साधना की दृष्टि से भी गायत्री के वाचक, उपाशु और मानसिक जप के अपने-अपने महत्व हैं। उनके कारण स्नायु संस्थान और मनःसंस्थान उस प्रकार प्रभावित होते है कि अनुपयुक्ताओं का निराकरण और उपयुक्तताओं का अभिवर्धन अनुभव में आने लगे।
अर्थ की दृष्टि से गायत्री में सद्बुद्धि की देव प्रज्ञा की आराधना हैं। मनुष्य जीवन में यदि इस तत्व के अभिवर्धन की महत्ता समझी जा सके तो सहज ही यह लालसा उठती है कि विचार संस्थान का परिमार्जन किया जाय, बुद्धि को न्यायनिष्ठ और विवेकवान बनाया जाये। कल्पनाओं और आकाँक्षाओं की अनगढ़ न रहने देकर उन्हें आदर्शवादिता के सघन रूप से जोड़ रखा जाये। बुद्धिमता या दूरदर्शी और नीति-निष्ठ रहे तो व्यक्ति का सुसंस्कारी बनना स्वाभाविक हैं। ऐसे ही व्यक्ति महामानव स्तर के बनते और महान कार्य करते देखे गये हैं। गायत्री मंत्र की प्रेरणा इसी दिशा में अग्रसर होने के लिए इंगित करती है। यदि व्यक्ति इस दिशाधारा को अपना सके तो उसका आत्मिक और भौतिक क्षेत्र समुन्नत हो सकना निश्चित है।
गायत्री मंत्र में ‘अहम्’ का नहीं वयम् का प्राधान्य है। उसके निःशब्द का अर्थ होता है हम सब। जो कुछ भी सोचा जाय जो कुछ भी चाहा जाय, जो कुछ भी किया जाय, वह ऐसा होना चाहिए जिससे सर्वजनीन हित साधन होता हो। सार्वभौम प्रगति एवं सुख, शान्ति का आधार खड़ा होता है। यही ब्रह्म की-विश्व मानव की-अर्चना अभ्यर्थना है। इसमें निजी स्वार्थ की संकीर्ण लोभ, मोह की अवहेलना की गई है।
गायत्री के चौबीस अक्षरों की जो व्याख्या, परिभाषा शास्त्रकारों ने की है उसका गम्भीरतापूर्वक अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि धर्म-निष्ठा और समाज व्यवस्था के समस्त आदर्शवादी सूत्र इन अक्षरों में गागर में सागर की तरह भर दिये गये है। इन्हें विश्व के सभी धर्मों का तत्वज्ञानों का सार संक्षेप कहा जा सकता है। इस आधार पर गायत्री मंत्र को मानव धर्म की व्याख्या करने वाला अति संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित शास्त्र कहा जा सकता है। इस आधार पर उसे मानवी आस्था का उच्चस्तरीय निर्धारण भी कहा जा सकता है।
भारत में अनेक धर्म संप्रदाय हैं उनकी अपनी-अपनी उपासना विधियों पर गायत्री की उपेक्षा अवज्ञा किसी में भी नहीं है। भले ही वे उसे प्रयोग में न लाते हों। ऐसी दशा में गायत्री उपासना को उसकी व्याख्याओं और प्रेरणाओं का ध्यान में रखते हुए सर्वजनीन उपासना कहा जाये तो कोई अत्युक्ति न होगी
गायत्री में भगवान को नारी रूप में मान्यता दी गई है। उसे वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता कहा गया है। उसकी प्रतिमाएँ नारी रूप में ही बनी है। इससे यह सिद्ध होता है कि नारी की वरिष्ठता और महता को भारतीय संस्कृति में प्रमुखता दी गई है। उसके लिए श्रद्धा रखने, गरिमा स्वीकारने सम्मान देने और प्रगति के उच्चशिखर तक पहुँचाने में योगदान देने की मान्यता है। इस तथ्य को यदि व्यावहारिक रूप दिया ता सके और नारी उत्कर्ष के लिए सर्वतोमुखी प्रयास चल पड़े तो समझना चाहिए कि देवयुग का इसी धरती पर इन्हीं परिस्थितियों में अवतरण हो सकता है। सतयुग की वापसी जैसा काया-कल्प दृष्टिगोचर हो सकता है।
गायत्री का दूसरा पक्ष ‘यज्ञ’ है। दोनों को मिलाकर माता, पिता जैसा युग्म बनता है। यज्ञ का शब्दार्थ है पुण्य, परमार्थ, पराक्रम संगठन। इन उद्देश्यों का प्रतीक अग्निहोत्र के रूप में भी क्रियान्वित होता है; पर वह इतने तक ही सीमित नहीं है। उसके भावार्थ में वे सभी तत्व आते है जो व्यक्तित्व को परिष्कृत और समाज को सुविकसित सुव्यवस्थित बनाते हैं। एक शब्द में यज्ञ को सत्कर्म भी कह सकते है।
गायत्री को सद्ज्ञान का प्रतीक और यज्ञ को सत्कर्म का प्रतिनिधि माना जा सकता है। इसके अभ्यास में गायत्री का जप और यज्ञ का अग्निहोत्र यजन हो सकता है। पर इन दोनों ऊर्जा भरी प्रेरणाओं को इतने तक सीमित नहीं माना जाना चाहिए। जो इन कर्म काण्डों को कर नहीं पाते, उन्हें भी गायत्री और यज्ञ का विरोधी नहीं कह सकते। इसी प्रकार यह भी हो सकता है कि जो लोग जप और यजन के कर्मकाण्डों को नियमित रूप से करते हैं वे मात्र क्रिया ही चरितार्थ करते हैं और इन दोनों की प्रकाश प्रेरणाओं से वंचित रहते हैं। क्रियाओं का मूल्याँकन उनके साथ जुड़ी रहने वाली भावनाओं के आधार पर ही किया जाता है। भावना रहित क्रिया तो मात्र शारीरिक हलचल भर है। उनसे अंगों की हलचल और पदार्थों का स्थानान्तरण भर होता है। यह समग्र लाभ प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। गायत्री और यज्ञ प्रक्रिया की परिणति भी इसका अपवाद नहीं है। यदि उनका समुचित लाभ उठाना है तो गायत्री और यज्ञ का तत्व-ज्ञान समझना और उन्हें चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार में उतारना होगा।
गायत्री के महत्व महात्म्य के सम्बन्ध में शास्त्रकारों ने बहुत कुछ कहा है। यज्ञ के दर्शन और विज्ञान को भी अनेक प्रसंगों और प्रतिपादनों से बहुत महत्व दिया गया है इन प्रतिपादनों की सचाई जाननी है तो उनका कर्मकाण्ड ही नहीं तत्वज्ञान भी समझना होगा। न केवल समझना होगा, वरन् जीवन विधा के साथ जुड़ कर उसके परिणामों की प्रतीक्षा करनी होगी। प्राचीन काल में इस प्रकार के प्रयोग परीक्षण चिरकाल तक होते रहे है। एक को दूसरे के अनुभवों से लाभ मिलता रहा है और उस पारस्परिक प्रोत्साहन से वातावरण ऐसा बनता रहा है जिसे सतयुग के नाम से पुकारा जाता रहा। मनुष्यों में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण परिलक्षित होता रहा। भारतीय संस्कृति का प्रगति रथ जिन पहियों पर आधारित रह कर अग्रगामी बनता रहा, उन्हें गायत्री और यज्ञ कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी। इस प्रयोग परीक्षण को व्यक्तिगत जीवन में और सामूहिक व्यवस्था-क्रम में सम्मिलित करके अब भी वैसा ही लाभ उठाया जा सकता है। सद्ज्ञान और सत्कर्म ही सर्वतोमुखी अभ्युदय के आधारभूत कारण हैं।