गायत्री उपासक की सिद्धि

April 1988

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बूँदी (राज0) में ‘खडकड़’ नामक एक स्थान है। अरावली की विस्तृत पर्वत श्रृंखला के समीप होने के कारण इस स्थान की शोभा-सुषमा और भी बढ़ जाती है। यहाँ से होकर एक नदी बहती है जो वहाँ की प्राकृतिक छटा को निखारने में सोने में सुगंध का काम करती है।

अब से करीब 90 वर्ष पूर्व यहाँ एक महात्मा रहते थे, नाम था पं0 कन्हैया लाल ब्रह्मचारी। वे गायत्री के कई पुरश्चरण सम्पन्न किये और उनकी ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त कीं, जिसका अनुदान वे समीपवर्ती लोगों में सदा वितरित करते रहते, उन्हें कष्ट कठिनाइयों से मुक्ति दिलाते। इसमें उन्हें परम संतोष की अनुभूति होती और लोग भी उनके इस उदार अनुदान से अपने दैनिक जीवन को खुशहाल बनाते। उनके इस प्रभाव की चर्चा पूरे क्षेत्र में थी।

अपनी मृत्यु का छः माह पूर्व ही उन्हें पता चल गया था। जब उनने देखा कि जीवन का पटाक्षेप अब समीप ही है तो वे अपने सगे संबंधियों से, मित्र-कुटुम्बियों से जाकर मिलने और अन्तिम विदाई लेने लगे।

निर्वाण का दिन जब निकट आया तो वे उक्त स्थान छोड़ कर अन्यत्र ‘केशोराय पाटन’ नामक स्थान पर आ गये। यहाँ पर चम्बल नदी पूर्वाभिमुख हो गई है। इसी कारण इस स्थान का अपना विशेष महत्व है। इसे पवित्र क्षेत्र माना जाता है और हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को विशाल मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग आते है।

ब्रह्मचारी जी ने यहीं एक किनारे पर अपनी एक छोटी सी कुटिया बनायी और उसी में रहने लगे। प्रतिदिन संध्या समय श्रद्धालु जन उनकी कुटिया में एकत्रित होते और उनसे सत्संग करते। वे उन्हें जीवन-निर्माण व आत्म-विकास की प्रक्रिया समझाते। कहते, इसके बिना जीवन में कोई श्रेष्ठ और महान कार्य करना संभव नहीं। ख्याति तो दुष्ट, दुर्जन भी अर्जित कर लेते है; पर वह जलते तवे पर जल बूँद के समान होती है। यदि तुम्हें अक्षय सम्मान प्राप्त करना है। तो स्वयं को उदात्त बनाना पड़ेगा, अपने चिन्तन-चरित्र को उत्कृष्ट बनाना पड़ेगा, तभी यह संभव है और सम्भव है उस परम लक्ष्य की प्राप्ति, जिसके लिए हमें मनुष्य योनि मिली है।

जब महाप्रयाण की निश्चित तिथि आयी, उस दिन उनने स्वयं ही अपनी कुटिया को गोबर से लीपा-पोता, स्नानादि कर संध्या-वन्दन किया और दूर्वासन बिछाकर पद्मासन पर बैठ गये। उपस्थित लोगों ने जब देखा कि अन्तिम समय निकट हैं, तो उनने महात्मा जी से एक विनती की ‘आपने जिस आद्यशक्ति का अवलम्बन लेकर महान लक्ष्य की प्राप्ति की है, उस संबंध में हम कुछ स्वल्प जानकारी चाहते हैं, ताकि हम भी उस विधा का आश्रय लेकर अपना जीवन धन्य बना सकें। उतर में ब्रह्मचारी जी ने इतना ही कहा ‘गायत्री कामधेनु है। जो इसकी शरण में आता है, वह कभी खाली हाथ नहीं लौटता। लोक और परलोक दोनों सुधर जाते है।’ इस संक्षिप्त-से उत्तर के बाद वे मौन हो गये। इसके बाद लोगों ने उनके पूर्व आदेशानुसार एक नया श्वेत वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिया। संन्यासी जी ने कह रखा था कि जब तक उनका शरीर स्वतः न लुढ़क पड़े, तब तक उसका स्पर्श न किया जाय। तदुपराँत प्राणायाम द्वारा प्राण को सहस्रार में स्थापित कर वे समाधिस्थ हो गये। उत्सुक लोग बड़े कौतूहलपूर्वक उनके निःस्पन्द शरीर को निहार रहे थे। वातावरण में अद्भुत शाँति छायी हुई थी। इसी प्रकार एक प्रहर बीत गया। उपस्थित जन मंत्रमुग्ध से खड़े उनकी महायात्रा का इन्तजार कर रहे थे, तभी उनके सिर में से एक तीव्र ध्वनि हुई और शरीर जमीन पर ढुलक गया। भक्तों ने अन्तिम संस्कार किया। उनकी समाधि आज भी वहाँ मौजूद है। उस स्थान की संस्कारित सिद्ध पीठ के रूप में मान्यता है।


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