*******
उस दिन प्रातः काल द्रौपदी स्थान के लिए गई नहाते समय उसकी निगाह कुछ दूर पर स्नान करते एक साधु पर पड़ी। उसके शरीर पर लँगोटी मात्र थी। दूसरी लँगोटी बदलने के लिए किनारे पर रखी थी। पर हवा का झोंका आया और वह दूसरी लँगोटी उड़ कर पानी में बह गई।
दुर्भाग्य से भीगी लँगोटी भी पुरानी होने के कारण उसी समय फट गई। लज्जा ढकने में भी अड़चन खड़ी हो गई। प्रकार उगने लगा था। स्थान करने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। साधु का असमंजस बढ़ा। वह निर्लज्ज बन कर कैसे खड़ा रहे? उसने कुछ दूर पर उगी एक बड़ी-सी झाड़ी के नीचे अपने को छिपा लिया। जब रात हो जाय तब अंधेरे में अपने स्थान पर जाने का उसका इरादा था।
द्रौपदी ने यह सारा दृश्य देखा। साधु की कठिनाई को समझा। उसने सहायता करने की बात सोची। उसके पास दूसरी धोती न थी साड़ी आधी फाड़ कर अपना शरीर किसी प्रकार ढक लिया और शेष आधी को लेकर उस झाड़ी के समीप पहुँची, जहाँ निर्वस्त्र साधु छिपा हुआ था।
द्रौपदी बोली, “पिताजी आपकी कठिनाई को मैंने समझा है। अपनी आधी साड़ी फाड़ कर लाई हूँ। इससे अपना तन ढकलें और घर चले जाँय। आधी से मेरा भी काम चल गया है।”
साधु की आंखों में आँसू आ गये उसने कपड़े के टुकड़े को ले लिया। लज्जा ढकी और घर चला गया। मन ही मन यह आशीर्वाद भी देता गया। भगवान सदा तुम्हारी लज्जा को ढके रहे।
बात बहुत पुरानी हो गई। द्रौपदी को पाण्डव जुए में हार गये। दुशासन उसे भरी सभा में नंगी करने के लिए उतारू हो गया। द्रौपदी के अपशब्दों का बदला लेने के लिए वही सूझ सूझी थी।
द्रौपदी ने इस विकट संकट में भगवान का पुकारा। भगवान शेष शैया पर सोये थे। नारद ने उन्हें जगाया। कहा “भक्त की पुकार सुनिये। उसकी सहायता का प्रबन्ध कीजिए।”
उनींदी आंखों से भगवान ने कहा,”न मैं किसी की सहायता करता हूँ न हैरानी में डालता हूँ। सभी अपने-अपने कर्मों का फल भोगते है। द्रौपदी का कोई पिछला पुण्य हो तो पता लगाओ। उसके पुण्य होंगे तो बदला मिल जायेगा।”
नारद ने हिसाब बही जाँची, विदित हुआ कि द्रौपदी ने किसी साधु को अपनी आधी साड़ी फाड़ कर दान दी थी। वह टुकड़ा अब ब्याज समेत बढ़ते-बढ़ते एक पूरे गट्ठे जितना हो गया है।
भगवान ने कहा, “हम किसी के पुण्य का प्रतिफल समय पर क्यों नहीं देंगे?” वे गरुड़ पर चढ़ कर वस्त्रों का गट्ठा लिए कौरवों की सभा के समीप पहुँचे। दुशासन वस्त्र खींचता गया। भगवान ऊपर से उसकी पूर्ति करते गये।
खींचने वाला थक गया। वस्त्र बढ़ता रहा। द्रौपदी की लाज बच गई, उसे आधी साड़ी बदले हजारों गज कपड़ा मिल गया।
कर्म के फल ही भगवान की अनुकम्पा अथवा कोप के रूप में सामने आते है।