अन्तर्मुखी आत्म निरीक्षण

April 1988

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मनुष्य की स्थूल संरचना बहिर्मुखी है। उसके अंग-अवयव बाहर की ओर निकले हुए हैं। हाथ, पैर धड़ से बाहर लटकते हैं कान, नाक, होंठ आदि की बनावट भी ऐसी ही है। समूचा शरीर का बाहरी भाग ही दीख पड़ता है। आंखें बाहर के दृश्य देखती हैं। कान बाहर के शब्द सुनते हैं नाक बाहर से आने वाली सुगंध को सूँघती है। मस्तिष्क बाह्य जगत की हलचलों सुविधाओं और कल्पनाओं की उड़ाने उड़ता रहता है। हम बाहर के लोगों से निपटने और उनके साथ सम्बन्ध बनाने, बिगाड़ने की, उससे इच्छित लाभ उठाने की बात सोचते रहते हैं। यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति इतनी प्रगाढ़ हो जाती है कि उसके अतिरिक्त और कुछ करना तो दूर सोचता तक नहीं बन पड़ता।

मनुष्य की वास्तविक सत्ता बाहर नहीं भीतर है। पेड़ की जड़े जमीन में भीतर धँसी होती हैं। वे दीखती नहीं तो भी पेड़ का समग्र पोषण उन्हीं पर निर्भर रहता है। वे सुदृढ़ होती हैं। गहरी घुसी होती है। पर्याप्त खाद, पानी जमीन से खींच सकने में समर्थ होती है तो पेड़ का बाह्य कलेवर सुविकसित होता है। फलता फूलता है। दीर्घजीवी बनता हैं। आँधी तूफानों का सामना करते हुए अपनी सत्ता बनाये रहता है। किन्तु यदि जड़ों की स्थिति दुर्बल हो, वे गहराई तक प्रवेश न करें और समुचित खुराक खींचने में असमर्थ रहे तो यह भी निश्चित है कि वृक्ष का विकास सम्भव न हो सकेगा। वह गई-गुजरी स्थिति में रह कर अपना असमय में ही दम तोड़ देगा। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही बात शत प्रतिशत लागू होती है।

हृदय, मस्तिष्क, आमाशय, यकृत, गुर्दे आदि धड़ के भीतर खोखले में है। उसी गह्वर में भू्रव बनते और परिपक्व होते हैं। यह भीतर की स्थिति जब तक यही बनी रहती है। कायिक स्वास्थ्य और सौंदर्य भी ठीक बना रहता है। किन्तु यदि भीतर गड़बड़ी रहे तो हाथ, पैर जैसे बाह्य अवयवों के सहारे जीवन रथ की गाड़ी धकेलना कठिन पड़ेगा। गहरे का सौंदर्य भी पिलपिला जायेगा।

व्यक्तित्व की विशिष्टता का वरिष्ठता का उत्कृष्टता का सुसंस्कारिता का जहाँ तक सम्बन्ध है वे अंगों अवयवों की सुदृढ़ता पर निर्भर नहीं हैं। प्रतिभावानों का शरीर मोटा तगड़ा हो यह आवश्यक नहीं। स्कूल शिक्षा के सहारे क्लर्की मिल सकती है किन्तु महामानव स्तर की गरिमा का व्यक्तित्व के साथ जुड़ा होना ही अनेकानेक सफलताओं का आधारित कारण होता है। अन्तराल की गहराई में रहने वाली यह गरिमा यदि गये- गुजरे स्तर की हो तो व्यक्ति समर्थ और कुशल होने पर भी चोरी, ठगी, बेईमानी, बदमाशी के अतिरिक्त और कुछ कर न सकेगा। इस निकृष्टता के कारण उसे आये दिन आपने स्थान और मुखौटे बदलने पड़ेंगे। एक दिशा में- एक क्षेत्र में प्रामाणिकता, पारंगतता प्राप्त करने का जो सुयोग मिलना चाहिए उससे उसे वंचित ही रहना पड़ेगा। गुण, कर्म स्वभाव ही मनुष्य के मूल्यांकन का एक मात्र सुनिश्चित आधार है।

बाहरी जाल-जंजाल में तो सभी उलझे रहते हैं, पर ऐसे कोई विरले ही होते हैं जो अन्तर्मुखी होने की आवश्यकता अनुभव करते हैं। आत्म-समीक्षा में निष्पक्ष न्यायाधीश जैसी तीक्ष्णता बरतते हैं। जो त्रुटियाँ देख पाते हैं उनके सुधार में समग्र संकल्प शक्ति के साथ संलग्न होते है। जिन सत्प्रवृत्तियों की कमी है उन्हें महा-मानवों की जीवन-चर्या के साथ तुलना करते हुए समझने का प्रयत्न करते हैं कि किन अवरोधों के कारण व्यक्तित्व का ऐसा विकास न हो सका जो प्रामाणिक समझा जाना और अभीष्ट सफलताओं का वरण करता। जिन सद्गुणों की अपने में कमी दीखती है उनका अभिवर्धन करते रहना ही आवश्यक है। मात्र दुर्गुणों को उखाड़ते रहना ही काफी नहीं है। खेत को जोतते तो रहा जाय पर उसमें उपयोगी बीज बोने सींचने का प्रबंध न किया जाय तो बहुमूल्य धन-धान्य से कोठे किस प्रकार भर सकेंगे;।

क्षुद्र व्यक्ति मात्र संकीर्ण स्वार्थपरता की बात ही सोचते हैं। उन्हें आपाधापी 4 अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। पेट-प्रजनन की मृग-तृष्णा में भटकते रहने के अतिरिक्त उनके श्रम, समय का उपयोग किन्हीं उच्च प्रयोजनों के लिए लग ही नहीं पाता आत्म-विकास के सम्बन्ध में कहा सुना तो बहुत कुछ जाता है, पर वास्तविकता यह है कि जिसका दृष्टिकोण उदात्त है, जिसे दूसरों का हित भी अपने हित के समान ही महत्वपूर्ण लगता है। वो छोटे परिवार की चिंता में ही निरत न रह कर विशाल मानव परिवार की विश्व परिवार की बात सोचता है, उसी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि वह दिव्य दृष्टि का अधिकारी बना। विश्व परिवार की अवधारणा वाला व्यक्ति ही संकीर्णता की परिधि से ऊँचा उठ कर परमार्थी बन सकता है। जिसने परमार्थ को ही सर्वोत्तम स्वार्थ बना लिया वस्तुतः वही आत्मवादी है। उसी का आत्म-विकास हुआ समझा जाना चाहिए।

बहिर्मुखी दृष्टिकोण से हम प्रकृति के पदार्थ के अनेकानेक पक्षों को जान सकते हैं। स्कूलों में यह सब पढ़ाया और पुस्तकों में यह सब बताया भी जाता है। पर्यटन एवं संपर्क परामर्श से इस दिशा में अतिरिक्त जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन दिनों तो अखबार, रेडियो, टेलीविजन आदि के सहारे भी साँसारिक गति-विधियों रीति-नीतियों के सम्बन्ध में भी बहुत कुछ जाना जा सकता हैं। किन्तु मौलिक प्रश्न निजी व्यक्तित्व के विकास परिष्कार का है। इसके बिना किसी के लिए यह सम्भव नहीं कि प्रगति के पथ पर द्रुतगति से अग्रसर हो सके और किसी ऊँचे लक्ष्य तक पहुँच सके। चिन्तन चरित्र और व्यवहार ही मनुष्य की चेतन सम्पदाएँ हैं। इन्हीं के सहारे किसी के लिए सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में अग्रसर बनना सम्भव हो सकता है।

इस प्रयोजन के लिए अंतर्मुखी होने की प्रवृत्ति का पनपना आवश्यक है। बाहर के किसी व्यक्ति, पदार्थ या घटनाक्रम की समीक्षा हो सकती है। उसके गुण दोषों का निर्णय निर्धारण किया जा सकता है। इस संदर्भ में दूसरों की सलाह भी काम दे सकती है। पर आपने आप के सम्बन्ध में यह सम्भव नहीं है। कारण कि दूसरा किसी दूसरे की अन्तरण वस्तुस्थिति को समझ नहीं सकता। बाह्य गति-विधियों का एक अंश ही सामने आता है। सदा किसी के साथ रहना और व्यक्तित्व की समग्र समीक्षा कर सकना सम्भव नहीं होता, क्योंकि अक्सर लोग अपना बाहरी स्वरूप कुछ दूसरा रखते हैं। भीतर से वैसे नहीं होते जैसे कि अपने को प्रकट करते हैं। ऐसी दशा में समीक्षकों को गहराई तक प्रवेश न कर पाने के कारण बहुधा धोखा ही रहता है। जब वास्तविकता का पूरा पता ही नहीं लग पाता तो यही समीक्षा कैसे बन पड़े और सुधार परिष्कार का परामर्श दे सकना कैसे बन पड़े? फिर कोई किसी के परामर्श को किस हद तक स्वीकार, कार्यान्वित कर सकता है? इसका निश्चय करना सहज नहीं बन पड़ता। इसके लिए अपनी ही परख और सलाह कारगर हो सकती है। अपने सम्बन्ध में अपना निर्णय ही सटीक बैठ सकता है।

आत्मिक प्रगति के लिए एक ही अवलंबन सर्वश्रेष्ठ है कि अन्तर्मुखी होकर आत्म-निरीक्षण की पद्धति को अपनाया और विकसित किया जाय। यह कार्य सरल नहीं कठिन है, पर अभ्यास से सब कुछ संभव हो सकता है। अपने रोग के लक्षण तो अनुभूतियों के आधार पर समझा में आते है, पर उसका कारण, निदान, उपचार करने के लिए ऐसा परीक्षक चाहिए जो स्थिति को गहराई से समझा सके और उपचार कर सके आत्मिक प्रगति के सम्बन्ध में रोगी को ही निदान उपचार करना होता है इसके लिए अन्तर्मुखी आत्म-निरीक्षण ही काम आता है।


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