जीवितों में मृतक और मृतकों में जीवित!

April 1988

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महत्वाकाँक्षा प्राणी की एक विशेषता है। जीव विकास विज्ञान के अनुसार एक कोशीय जीव से बढ़ते-बढ़ते इसी कारण प्राणियों ने अपनी-अपनी परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप विकसित शरीर संरचना, चिन्तन में प्रगति की है और परिस्थितियों के साथ ताल मेल बिठाया है। विभिन्न प्राणियों, क्षेत्रों, साधनों और परिस्थितियों में अधिक समुन्नत स्थिति की संरचना का श्रेय इसी प्रवृत्ति को है। जिनमें यह उत्साह जितना कम विकसित हुआ है वे अभी भी उसी पुरातन स्थिति में रह रहे हैं। फूल के संपर्क में आकर तितली ने अपनी काया बदल ली। हिंस्र जन्तुओं ने रात्रि के समय अपनी घात अच्छी तरह लगने के कारण प्रकृति को निशाचर स्तर का बना लिया। नेत्रों की ज्योति भी उनकी उसी के उपयुक्त बन गई। आत्मरक्षा से लेकर सुविधा सामग्री जुटाने में जीवों का क्रमिक विकास अग्रगामी ही होता चला गया है।

मनुष्य के शारीरिक परिवर्तन के विकास का इतिहास तो संदिग्ध है, पर इतना स्पष्ट है कि उसकी महत्वाकाँक्षा आरीं से ही बढ़ी-चढ़ी है। इस कारण अन्य अवयवों की तुलना में उसका चिन्तन तंत्र अपेक्षाकृत अधिक विकसित हुआ है। प्रकृति की सम्पदा का अधिक भाग उसने अपने अनुकूल बनाने में कुछ उठा नहीं रखा है। इसलिए भोजन, वस्त्र, निवास, परिवार,, आजीविका आदि के क्षेत्र में वह सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में कहीं, अधिक अच्छी स्थिति में हैं। दूसरे प्राणी जब कि प्रकृति प्रकोपों के सामने अपनी सत्ता गँवा बैठते हैं तब मनुष्य ही एक ऐसा दिखाई पड़ता है जो प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता तलाश लेता है। कृषि, पशुपालन, वाहन, पाक-शास्त्र, आच्छादन की बातें तो पुरानी हो गई। नई उपलब्धियों में उसने विद्युतशक्ति को अपना दास बना लिया है और प्रकृति की इस महती शक्ति से वह नौकरानी जैसा काम ले रहा है। अपनी स्वाभाविक चाल की तुलना में वह जल, थल और नभ में द्रुतगामी चाल से चलने लगा। अनेकानेक यंत्रों और साधनों का निर्माण करने के लिए उसे महत्वाकाँक्षाओं ने ही आगे बढ़ाया और एक-से-एक बढ़कर विभूतियाँ उपलब्ध कर सकने में सफल बनाया।

यह उसके भौतिक पक्ष का उत्कर्ष है। सुविधा साधनों के सहारे जो प्रसन्नता होती है, उपलब्धियों में जो उत्साह मिलता है, उस प्रत्यक्ष लाभ ने उसे अधिकाधिक सम्पन्न और समर्थ बनाने में सहायता की है। किन्तु इसके उपरान्त एक दूसरा पक्ष भी रह जाता है जिसे आत्मा कह सकते हैं। इसका प्रमाण यह है कि जब तक चेतना रहती है तभी तक शरीर काम करता है, अन्यथा वह किशोर, युवा या प्रौढ़ होते हुए भी निर्जीव हो जाता है और किसी न किसी उपाय से अपने कलेवर का अन्त कर लेता है।

आत्मा के संबंध में अब तक बहुत कुछ कहा सुना, सोचा और खोजा जाता रहा है, पर इस क्षेत्र की गहराई में प्रवेश करने पर आत्मा के स्वरूप और लक्ष्य के संबंध में जो निष्कर्ष निकाले जा सके हैं, उसे एक शब्द में ‘मानवी गरिमा’ कहा जा सकता है। अब तक उसकी अनेकों व्याख्याएँ हो चुकी है और अनेक रूप समझाये गये हैं। पर उनमें अधिक उपयुक्त और गौरवशाली अर्थ यही है। जब मानवी गरिमा मर गई और वह दुष्ट, भ्रष्ट और निकृष्ट बन गयी तो समझा जाना चाहिए कि आत्म हनन हो गया, चाहे व्यक्ति की साँस भले ही चलती हो। साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती छोड़ती रहती है और जीवित तो सड़े तालाब में पाये जाने वाले कीड़े भी होते है। पर उनके जीवित रहने या मृतक कहलाने में कोई अन्तर नहीं पड़ता।

सड़कों पर वाहनों के नीचे कुचल कर असंख्यों मरते रहते है। बीमारियों के मुँह में आये दिन अगणित लोग चले जाते है, पर इनकी कोई महत्वपूर्ण चर्चा नहीं होती। शरीर में हलचल रहने और अन्न को टट्टी बनाने वाले लोगों को जीवित मृतक कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी। क्रूर और नृशंस लोगों में आत्मा का अस्तित्व माना जाय या नहीं यह विवाद का विषय है।

आत्मा-जिसे सच्चे अर्थों में ‘आत्मा’ कहा जाय, आदर्शों के साथ जुड़ती है। उसमें संयम का भाव होता है और साथ ही उदारता एवं सेवा का भी। जिन्हें यह ध्यान रहता है कि मानवी गरिमा को गिरने न दिया जाय, दुष्ट या भ्रष्ट समझे जाने का अवसर न आये वही मानवी काया को सार्थक करते हैं, अन्यथा प्रेत-पिशाच भी ऐसे ही मिलते जुलते काय कलेवर में छिपे स्वयं जलते और दूसरों को जलाते रहते है। स्वयं डरते और दूसरों को डराते रहते है।

पवित्रता और प्रखरता मनुष्य के गुण हैं। जो निजी जीवन में सज्जनोचित सदाशयता भरे रहते है। और जो आदर्शों की रक्षा के लिए साहस दिखाते एवं बलिदान स्तर तक का शौर्य-प्रकट करने को तैयार रहते हैं उनके संबंध में कहा जा सकता है कि वे प्राणवान और जीवन्त मनुष्य हैं। अन्यथा ऐसी ही आकृति वाले खिलौने कुम्हारों के अवों में आये दिन पकते और काले पीले रंगों में रंगे जाते रहते है। आत्मा हलचल का नाम है, पर वह तो मशीनों के पहिये भी करते रहते है। हांडी में भी खिचड़ी की उछल कूद देखने को मिलती रहती है। हवा के साथ पत्ते भी उड़ते रहते है। इन्हें न तो जीवित कहा जा सकता है, न मनुष्य, न आत्मा।

आत्मा में उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र और सज्जनोचित व्यवहार का समावेश होता है। यह जिनके साथ रहा हो वे शरीर न रहने पर भी अविनाशी आत्मा हैं। अन्य सड़ाँध में दिन काटने वाले और दूसरों को कष्ट देने वाले प्राणी भी ऐसे होते हैं, जिन्हें कोई चाहे तो जीवन धारियों में गिन सकता है।

आततायी सोचता है कि किसी प्रकार अपना स्वार्थ सिद्ध होना चाहिए अपनी वासना और तृष्णा की जिस सीमा तक संभव हो, हविस पूरी होनी चाहिए। इसके लिए उसे दूसरों को किसी भी सीमा तक उत्पीड़न देने में संकोच नहीं होता। अपने अतिरिक्त और सब माटी या मोम के बने प्रतीत होते है, जिन्हें पीड़ा पहुँचाते हुए अपने ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता न दया आती है न उचित-अनुचित का भाव जगता है। अनर्थ और कुकर्म करते हुए अपने अहंकार का अनुभव करते हैं और नृशंसता का पराक्रम के रूप में सिर ऊँचा करके बखान करते है। उन्हें अपने को कोल्हू के सदृश मानते हुए गर्व होता है, जिसका एक ही काम है-तल निचोड़ लेना और खली को पशुओं के सामने बखेर देना। जो ध्वंस और विनाश की ही योजनाएँ बनाते और इसी स्तर के कुकर्म करते हुए अपने शौर्य को बखानते हैं, उन्हें इसी स्तर का गतिशील, किन्तु जघन्य कहना चाहिये। नर पशु और नर पिशाच अलग आकृति के नहीं होते हैं। उनकी चमड़ी भी इसी स्तर की होती है। किन्तु प्रकृति ऐसी मिली होती है, जिसे नर पशु या नर पिशाच से भी गया-बीता कहा जा सके।

इसी समुदाय में एक कायर वर्ग भी होता है, जो विनाश का दुस्साहस तो इसलिये नहीं कर पाता कि बदले में उलट कर अपनी भी हानि हो सकती है, कायरता दूसरों का शोषण भी कर सकती है, पर उनमें इतना साहस नहीं होता कि प्रतिकार को सहन करने के लिये दूसरे की चुनौती स्वीकार कर सकें। उचक्के और लफंगे इसी प्रकार की ठगी और विडम्बनायें रचते रहते हैं। सामना पड़ने पर शेर का चमड़ा उतार कर उन्हें बकरी के असली रूप में भी प्रकट होते देर नहीं लगती। ऐसे ही लोगों को नर पामर कहा गया है। उन्हें कृमि कीटकों से भी गयी गुजरी स्थिति में गिना जाता है। हमें देखना है कि हम क्या है, क्या बनना चाहते हैं व औरों से भिन्न जीवन की रीति-नीति किस प्रकार बनायें?


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