॥ सत्यमेव जयते॥

April 1988

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धर्म का नवाँ लक्षण है- सत्य। आमतौर से सत्य का बोलने से सम्बन्धित माना जाता है। जैसा कुछ देखा, सुना या समझा है उसे उसी रूप में कह देना सत्य हैं। मोटी परिभाषा इतने भर से पूरी हो जाती है, पर सत्य का तत्त्वज्ञान यदि समझना हो तो उसकी परिभाषा यह करनी होगी-श्रेष्ठता का संरक्षण। उद्देश्य यदि ऊँचा है तो कथन में स्थिति को देखते हुए यत्किंचित अन्तर भी किया जा सकता है। रोगी निराश होकर मरण को निश्चित मानने लगे तो आशा और उत्साह देकर मनोबल जगाना और इस आधार पर उसके ठीक होने की सम्भावना को नये सिरे से उभारना सत्य से कम प्रतिफल उत्पन्न करने वाला नहीं है। यदि चिकित्सक के अनमनेपन को ताड़ कर मरण की सम्भावना को रोगी के सम्मुख प्रकट कर बैठा जाय तो उससे अनर्थ की ही सम्भावना है। ऐसी सत्य असत्य से बुरा है।

दो स्वजनों के बीच पल रहे मनोमालिन्य को यदि चुगली करके बढ़ाया न जाय और विश्वसनीयता को साफ सफाई की बातों में अपनी ओर से कुछ नमक, मिर्च न मिला कर सहयोग समाधान की स्थिति उत्पन्न कर दी जाय तो इसे असत्य नहीं कहा जायगा, वरन् सत्परिणाम को देखते हुए उस चापलूसी को सत्य से कम सराहा न जायगा।

कोई जमाना था जब अपनी खोट- सर्वसाधारण के सम्मुख प्रकट कर देने से उस व्यक्ति को सच्चाई निष्कपटता, भोलेपन और सुधार पश्चाताप की छाया में श्रेय ही दिया जाता था, पर अब वैसी स्थिति बिलकुल भी नहीं रही। भेद की बातें पूछ कर लोग मसखरी उड़ाते और उस गन्दगी को चारों ओर बखेर कर सच बताने वाले की इज्जत को धूलि में मिला देते है।

हमें ऐसी अनेकों घटनाओं का स्मरण है, जिसमें नव विवाहिताओं से प्यार, सचाई और क्षमा की दुहाई देकर पिछली गलतियों को पूछ लिया गया। इसके उपरान्त क्षमा करना तो दूर ऐसा रौद्र रूप धारण किया गया कि बेचारी का जीना हराम हो गया। ऐसी दशा में बुद्धिमता की दृष्टि से यही उचित था कि जिन रहस्यों के प्रकट होने पर किसी आपत्ति के आने की आशंका है तो उसे सदा सर्वदा के लिए कूड़े के ढेर में दाब दिया जाय और उसकी चर्चा का प्रसंग ही न आने दिया जाय।

सचाई-भलमनसाहत का चिह्न मानी जाती है और मन और कािनी की एकता रखना अच्छा गुण है, पर यह सब दैनिक सामान्य व्यवहार तक ही सीमित रहना उचित है। रहस्य की उन बातों को जिनके प्रकट होने पर विग्रह खड़े होने की आशंका हो, उन्हें न कहना किसी भी प्रकार झूठ नहीं है। कई बार मौन भी सत्य के ही समतुल्य हो जाता है।

घटना है कि किसी कसाई के हाथ से छूट कर गाय भाग आई। वह ऋषि आश्रम के पीछे नदी किनारे चर रही थी। ढूँढ़ते हुए कसाई आ पहुँचा। ऋषि से उनकी गाय के बारे में कुछ जानकारी हो तो बताने के लिए कहा। ऋषि ने ब्रह्मज्ञान की भाषा में कहा-”जिसने देखा है वह बोलता नहीं और जो बोलता है उसने देखा नहीं”। उनका संकेत जिह्वा और नेत्रों की बीच का अन्तर भर बताना था कसाई उस साँकेतिक भाषा को न समझ सका और निराश होकर घर वापस लौट गया। गाया के प्राण बच गये और इस प्रच्छन्न सत्य के सहारे एक अनर्थ होते-होते बच गया।

सरकार के सेना विभाग तथा गुप्तचर विभाग के लोगों को कड़ी हिदायत रहती है कि वे सामने वाले का भेद जानने की कोशिश करें। किन्तु अपने सम्बन्ध में जो वस्तुस्थिति हो उसे छिपाये’। यह झूठ को प्रत्यक्ष प्रोत्साहन है। किन्तु इसके पीछे राष्ट्र रक्षा तथा अपराधों का पता लगाने की उच्च भावना काम करती है इसलिए इन प्रसंगों में झूठ का आश्रय लेना किसी भी प्रकार हेय नहीं कहा जा सकता।

धर्मराज ने अश्वत्थामा मरण की पुष्टि करते हुए धीमे से इतना और कह दिया कि ‘नरोवा कुंजरोवा’ या तो इस नाम का मनुष्य मरा होगा या हाथी। हाथी तो महाभारत में ढेरों मरे थे। इस प्रकार युधिष्ठिर ने बात का समग्र स्पष्टीकरण करने की अपेक्षा आधा सत्य और आधा झूठ बोला। यहाँ तक कि कृष्ण भगवान ने जयद्रथ के स्थान पर अर्जुन के अपघात की आशंका देखकर अपना चक्र सुदर्शन सूर्य के उगे होने के रूप में दिखा दिया। अर्जुन बच गया। जयद्रथ मर गया। अनर्थ टला और औचित्य की रक्षा के लिए जिसका जीवन आवश्यक था वह बच गया।

यहाँ न तो झूठ को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न सत्य को अव्यावहारिक बताया जा रहा हे किन्तु यह कहा जा रहा है जीवन-यापन के सामान्य प्रसंगों में सत्य का व्यवहार ही उचित है। व्यापारी यदि मिलावट न करे, कुछ के स्थान पर कुछ न दे। नाप तौल में चालाकी न करे। उचित मुनाफा ले और हिसाब किताब ठीक रखे तो उनकी यह रीति-नीति सत्य समर्थक ही मानी जायगी। किन्तु चोर या ठग अपनी संचित राशि की संख्या और रखे होने का स्थान पूछे तो तनिक भी आवश्यकता नहीं कि सत्यवादी हरिश्चंद्र बना जाय और सारे रहस्य बता कर चोरी डकैती का पथ-प्रशस्त किया जाय।

सचाई के व्यवहार की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही उत्तम। लाग-लपेट का जितना कम व्यवहार किया जाय उतना ही अच्छा। मन और वाणी की एकता रहने में अन्तराल स्वच्छ रहता है। इससे शारीरिक और मानसिक रोगों की उत्पत्ति के प्रधान कारण अन्तर्द्वन्द्व की जड़ कटती है। अपनी गणना भले मनुष्यों में होती है। कथन पर विश्वास भी किया जाता है और एक सज्जन के रूप में सम्मान बना रहता है। उसकी प्रामाणिकता पर उँगली नहीं उठती।

इतना जान लेने के साथ ही यह भी जान लेना चाहिए कि श्रेयस्कर क्रिया-कलाप में विघ्न उत्पन्न करने वाली सचाई का अकारण ढोल न बजाते फिरा जाय तो उसमें भी कुछ हर्ज नहीं। अगणित प्रसंग ऐसे अपवाद होते हैं जिनके मौन रहने पर वाणी का बिगड़ने जैसा विक्षेप उत्पन्न नहीं होता।

इन दिनों ऐसे दुरात्माओं का बाहुल्य है जो पेट में घुस कर भेद की बात जान लेते है और उस आधार पर ऐसे हथकण्डे चलाते हैं कि बेचारे सत्यवादी के लिए आत्म रक्षा करना कठिन पड़ जाय। ऐसे प्रसंगों का बाहुल्य होते देखकर विज्ञजनों ने ठीक ही कहा है कि थोड़ा बोला जाय। हितकर बोला जाय और मधुर बोला जाय। इन तथ्यों का निर्वाह करना भी लगभग सत्य की परिधि को छूना ही है। अकारण सत्य उगलते फिरने में जिनके स्वार्थ को चोट पहुँचती होगी वे अपने दुश्मन बनेंगे इसलिए जहाँ सत्य की रक्षा करनी है वहाँ नीति और औचित्य की भी रक्षा करनी चाहिए और साथ ही अपनी आत्म रक्षा भी।

सत्य की ही विजय होती है। इस उद्घोष को शोषितों के पक्ष में उभारा जा सकता हैं और कहा है कि अन्याय कागजी रावण के समान है। मनुष्य के मौलिक अधिकार सत्य और तथ्य पर आधारित हैं इसलिए शोषक कितने ही समर्थ क्यों न हों, कल नहीं तो परसों औंधे मुँह गिरेंगे। कुरीतियों, मूढ़ताओं और अन्ध विश्वासों के विरुद्ध भी यही कहा जा सकता है कि उनकी जड़े नहीं हैं। इन बालू की दीवारों में एक धक्का मारने में यह महल ढह जायगा, जो परम्परावाद के नाम पर किसी तरह अपनी चमड़ी बचाये हुए है।

आत्म सुधार की- लोक मानस निर्माण की अन्तरंग और बहिरंग गतिविधियाँ सत्य की साधना के समतुल्य है। नशेबाजी जैसी दुष्प्रवृत्ति भी मनुष्य के ऊपर हावी होकर अमरबेल की तरह उसका रस रक्त चूस रही है। असत्य का अन्धकार हटते ही इस प्रकार के कुप्रचलनों को भी निशाचरों की भाँति मैदान छोड़ कर भागना होगा।

आत्मा सत्य है। आत्मा की गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने का प्रयत्न भी सत्य है। सत्य ही यह है कि सामाजिक न्याय और भाईचारे की प्रतिष्ठापना फिर से हो। इस मार्ग में जो भी अड़ंगे अड़ गये हैं उन्हें निरस्त करने के लिए मोर्चा सम्भालना भी सत्य के पक्ष तथा असत्य का दमन करने के समान है।


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