होनहार वीरवान के होता चीकने पात

April 1988

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कभी-कभी छोटी आयु में ऐसी प्रतिभाएँ विकसित हो जाती है जिन्हें देख दांतों तले उँगली दबानी पड़ती है। आश्चर्य तो तब होता है, जब चिर प्रयत्न के बाद भी प्रौढ़ों में जैसी विशिष्टता देखने को नहीं मिलती जो बालकों में अनायास ही प्रकट हो जाती है। कई बार ऐसी घटनाओं में पूर्व जन्मों के संचित संस्कार भी कारण हो सकते है।

वस्तुतः मनुष्य अपने जीवन में; किसी क्षेत्र विशेष में सफल होने का भरपूर प्रयत्न करता है। अधिकाँश में उसे सफलता मिलती भी है। उस विषय विशेष में वह मर्मज्ञ भी बन जाता है, कई लाख बार प्रयत्न के बावजूद भी वह अपनी मेहनत के अनुरूप योग्यता विकसित नहीं कर पाता उसका यह अर्थ कदापि नहीं समझा जाना चाहिए कि उसका इस जीवन का प्रयास सर्वथा निरर्थक गया। वस्तुतः उसे ही पुरुषार्थ अगले जन्म में प्रतिमा बनकर प्रकट होते और लोगों को हैरत में डालते हैं। आये दिन ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती ही रहती है।

जापान के हनावा होंकाइशी अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण ज्ञान के अवतार कहे जाते थे। सन् 1722 में जन्म लेकर 101 वर्ष की अवस्था में सन् 1823 में मरने वाले हनावा की 7 वर्ष की उम्र में नेत्र ज्योति चली गयी थी। नेत्रहीन होकर भी उन्होंने 40 हजार से अधिक पुस्तकें पढ़ डाली। उनके मस्तिष्क में ज्ञान का असीम भंडार जमा हो गया था। मित्रों के आग्रह पर मस्तिष्क में संचित ज्ञान-भण्डार को जब पुस्तक रुन में छापा गया, तो उसके 820 खंड बने।

स्काटलैंड का जेम्स क्रिस्टन न 12 वर्ष की अल्पायु में ही अरबी, ग्रीक, यहूदी, तथा फ्लैमिश सहित विश्व की 2 भाषाएँ सीख ली थी।

फ्राँसीसी, जर्मन तथा अन्य यूरोपीय भाषाएँ बोल सकते थे। जब वे 6 माह के थे तभी से बाइबिल पढ़ने लगे थे। 6 वर्ष के हुए तो गणित, इतिहास, भूगोल के प्रकाण्ड पंडित बन गये। ब्लेट्स पास्कल ने 12 वर्ष की अवस्था में ध्वनि शास्त्र पर निबंध लिख कर सारे फ्राँस को आश्चर्य में डाल दिया था।

जॉन फिलप बराटेयर को 14 वर्ष की आयु में ही डॉक्टर ऑफ फिलासॉफी की उपाधि मिल गई। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि जो पढ़ते-सुनते उन्हें याद हो जाता उसे बाद में हूबहू वैसा ही सुना देते।

पेरिस विश्वविद्यालय के इतिहास में सबसे छोटी आयु 16 वर्ष का प्रोफेसर डिनेस ली फेवे रहा है। वह यूनानी तथा लैटिन भाषाओं का पारंगत माना जाता था और अपने विषय पढ़ाने में विशिष्ट समझा जाता था।

ट्रिनिटी कॉलेज का एक विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में ही एक दूसरे मेरीलैण्ड कॉलेज में प्रकृति विज्ञान का प्रोफेसर नियुक्त हो गया। वह पढ़ता भी रहा और पढ़ाता भी। नियुक्ति के समय कुछ डिग्रियाँ दो वर्ष के भीतर प्राप्त कर लेने की शर्त उस पर लगायी गई थी। वह उसने समय से पूर्व ही पूरी कर दी, साथ ही अपने कॉलेज की पढ़ाई भी यथावत् जारी रखी।

इसी प्रकार लेबनान के केण्टुकी नगर का मार्टिन जे0 स्पैल्िडग 14 वर्ष की आयु से प्रोफेसर बना। उन दिनों वह सेन्ट मैरीज कॉलेज में विद्यार्थी था, किन्तु गणित संबंधी उसकी अद्भुत प्रतिभा को देखते हुए उसे उसी कॉलेज में उस विषय के प्रोफेसर की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई। बड़ा होने पर उसे वाल्टीमोर के आर्क विशप पद पर प्रतिष्ठित किया गया। हालैण्ड, लेडन का जान डाइस्की पूरे 17 वर्ष का भी नहीं होने पाया था कि उसे इंग्लैंड के राजा किंग जेम्स प्रथम ने राजकीय धर्मोपदेशक नियुक्त किया। तब तक वह न केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ बन चुका था, वरन् हिब्रू और यूनानी भाषाओं में भी प्रवीण था।

सेना में भर्ती होते समय मारक्लिस डी0 नैनाजिस की आयु मात्र आठ वर्ष की थी। इतनी छोटी आयु में उसने यह प्रवेश नियमानुसार नहीं, अपनी विशिष्ट प्रतिभा का प्रमाण देकर पाया था। उसने पूरे 52 वर्ष तक फ्राँसीसी सेना में काम किया। इस बीच क्रमशः ऊँचे पदों का अधिकारी बनते-बनते फील्ड मार्शल बन गया था। इसी पद में सेव करते-करते उसकी मृत्यु हुई। सेव निवृत्ति के नियम उस पर लागू नहीं किये गये थे।

अंग्रेज कवियित्री अपनी अठारह वर्ष की आयु में ही अपनी ख्याति प्राप्त कर चुकी थी कि उस आयु में संसद सदस्यता के लिए खड़े होने पर उसे भारी बहुमत से सफलता मिली।

अमेरिकी पाल मार्फी ने स्नातकोत्तर परीक्षा ही नहीं वकालत की पदवी भी 19 वर्ष की आयु में प्राप्त कर ली थी। इन दिनों परीक्षा देने में आयु का कोई प्रतिबंध नहीं था। इसलिए प्रवेश और उत्तीर्ण होने पर तो ऐतराज नहीं उठा, पर मासूम को डिग्री देते समय विश्वविद्यालय ने उस पर विशिष्ट प्रतिबंध अंकित किया कि वह 29 साल का होने तक वकालत का व्यवसाय न कर सकेगा।

इंग्लैण्ड के रोज पब्लिक स्कूल में फेलिप हैरिंघम तब विद्यार्थी ही था, पर विद्यालय के प्रबंध समिति ने उसे पढ़ते रहने के साथ-साथ हैडमास्टर का पद सम्भाल लेने के लिए भी सहमत कर लिया। तब वह मात्र 16 वर्ष का था। उसने अपनी शिक्षा जारी रखी और सौंपी गई जिम्मेदारी भी भली-भाँति निबाही।

फ्राँस की ग्राण्ड असेम्बली के संसद सदस्य जीन वैप्टिस्ट टैस्टे को 13 वर्ष की आयु में ही चुन लिया गया था। उसमें उन दिनों बड़े तेजस्वी व्यक्ति ही चुन गए थे। फ्राँसीसी विद्रोह के उपरान्त वही उच्चतम शासन संस्था थी।

पैरिस की रॉयल लाइब्रेरी का सर्वोच्च अधिकारी फैन्कोडसे आगस्टे जब उस पद पर आसीन किया गया, तब 12 वर्ष का था। कुछ ही वर्ष बाद वयस्क होने से पूर्व उसे सम्पूर्ण पुस्तकालयों की संचालन ज्ञान तथा पुस्तकों का संचालन सम्बन्धी कौशल असाधारण था।

जर्मनी के एल्डोर्फ विश्वविद्यालय का रीडर काडण्टवान पैपनेहम नियुक्त हुआ, तब वह 14 वर्ष का था। इसके बाद उसने सेना में प्रवेश किया और जीवन भर हर महत्वपूर्ण लड़ाई में प्रमुख पद सम्भालता रहा। उसने छोटी-बड़ी 101 लड़ाइयों की कमान संभाली और लड़ते-लड़ते ही शहीद हुआ।

विक्टर डी0 ज्वाय जब फ्राँसीसी एकेडमी की सदस्या चुनी गई, तब वे 13 वर्ष की थी। उन्हें वाल्वेटर की कृतियाँ कण्ठस्थ याद थी। साहित्य 36 भागों में है और उसमें तीस लाख ग्रन्थ हैं।

सिओल में एक तीन वर्षीय कोरियाई बालक जोग अंग ने कोरियाई तथा अँग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। वह दोनों भाषाएँ धड़ल्ले से बोलता था और बिना किसी साहित्यिक त्रुटि के ठीक प्रकार लिखता था।

छपरा बिहार में जम्मा एक सन्तोष नामक बालक जन्म के तीसरे वर्ष से ही अपनी संगीत प्रतिभा का असाधारण परिचय देने लगा था। जिन वाद्य यंत्रों को उसने कभी देखा तक नहीं था, उन्हें सामने प्रस्तुत करने पर वह इस प्रकार बजाने लगा, मानो उनमें वह पहले से ही पारंगत हो। इस विलक्षणता के प्रदर्शन भारत के अनेक प्रमुख नगरों में हुए। लाखों दर्शक आश्चर्यचकित रह गए।

स्वीडन के वैरान गुस्ताफ हेमफील्ड जब 14 वर्ष के थे, तब योरोप में प्रचलित 9 भाषाओं में धड़ल्ले से बोलने और लिखने लगे थे। आगे उनने हिब्रू पर भी अधिकार पाया। मात्र प्रतिभा के आधार पर नहीं, उनके चरित्र-चिन्तन की उत्कृष्टता को ध्यान में रखते हुए स्वीडन सरकार ने उन्हें उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश भी बनाया।

ये सारी घटनाएँ पूर्वजन्म में व्यक्ति द्वारा क्षेत्र विशेष में किये गये प्रयास-अभ्यास की ओर इंगित करती हैं। जो प्रयास पिछले जन्म में अधूरा रह जाता है अथवा कठिन प्रयत्न के बावजूद जिसमें सफलता नहीं मिल पाती, उसमें अगले जन्म में स्वल्प अभ्यास से ही ऐसी प्रतिभा विकसित होती है, जिसे आश्चर्यजनक कहा जा सके। “तत्र तं बुद्धि संयोग लभते पौर्वदेहिकम्...............” के रूप में गीताकार ने भी इसकी पुष्टि की हैं।


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