ध्यान धारणा का लक्ष्य और प्रयोजन

April 1988

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ध्यानयोग का प्रधान उद्देश्य मन की उड़ानों को केन्द्रीभूत कर एकाग्रता के क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना है। यह एकाग्रता भौतिक क्षेत्र में प्रगति के और आत्मिक क्षेत्र में सिद्धि के साधन जुटाती है। अपने प्रभाव से साधक को विभूतिवान बनाती है।

इसलिए आत्म-विज्ञान के क्षेत्र में सभी साधनाओं को एकाग्रता का अभ्यास कराने के रूप में आरम्भिक कदम बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिए अनेक उपाय, अनेक विधान प्रचलित हैं। उनकी संख्या और भी बढ़ाई जा सकती है। योगशास्त्र में राजयोग, हठयोग, लययोग बिन्दुयोग, मंत्रयोग आदि विशिष्ट हैं। दार्शनिक योगों में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग का निर्धारण है। इनमें से किसी का भी अवलम्बन लिया जाय, आश्रय लिया जाय एकाग्रता की साधना अनिवार्य रूप से करनी होगी। ध्यान योग का आधार यही है। इसी कल्पवृक्ष पर कामनाएँ पूर्ण करने वाले अनेकानेक मधुर फल लगते हैं।

इष्टदेव की छवि ध्यान, त्राटक साधना, नाद श्रवण, खेचरी मुद्रा, बिन्दु केन्द्र, प्रेक्षा ध्यान, भावातीत ध्यान आदि अनेक विधि-विधानों का विभिन्न मंचों से प्रचलन है। दक्षिण मार्गी वैदिक और वाममार्गी ताँत्रिक मार्गों में से कोई भी मार्ग या विधान ऐसा नहीं है जिसमें एकाग्रता साधने के लिए अपने-अपने ढंग के विधि-विधान नहीं बनाये। ध्यानयोग का प्रारम्भ न कराया जाता हो आगे की साधनाएँ उसके उपरान्त ही आरम्भ होती हैं। मुख्य द्वारा खुल जाने के उपरान्त ही भवन में प्रवेश मिलता है और उसके भीतर बने हुए कमरों, कोठों, दालानों, तलघरों में जा सकना सम्भव होता है। जब तक ध्यान की एकाग्रता न सधे तब तक अंतर्जगत के प्रवेश के लिए प्रतीक्षा पूर्वक ठहरना पड़ता है। ताकि ध्यान धारणा को अपने स्वाभाविक क्रम में विकसित एवं परिपक्व होने का अवसर मिल जाय। इस प्रसंग में हथेली पर सरसों नहीं बैठती। मन सहज काबू में नहीं आता। रीछ बन्दर पालने वाले जानते है उन अनगढ़ प्राणियों को कलाकारों जैसी भूमिका निभाने के लिए प्रशिक्षित करना कितना कठिन होता है। फिर मन तो पूरा उस्ताद है। वह चकमा देना भली भाँति जानता है। बिठाया ध्यान के लिए जाय, पर वह सैर गली-कूचों की करता है और आकाश, पाताल की खबर लाता है। इस स्थिति में धैर्य और प्रयत्नपूर्वक स्थिर रहने का अभ्यास कराना पड़ता है। विचारों की शक्ति बड़ी है, संकल्प की क्षमता असीम है यदि उसे दृढ़तापूर्वक करते रहा जाय तो मनोनिग्रह जैसे कठिन कार्य भी सरल हो जाते हैं।

एकाग्रता साधने के अनेक उपाय उपचार हैं। उन्हें योगाभ्यास से भी किया जा सकता है और बिना योगाभ्यास के सामान्य कला-कौशलों में भी नट, बाजीगरों की समस्त कलाएँ एकाग्रता पर निर्भर है। मुनीम, वैज्ञानिक साहित्यकार, जेबकट सभी अपने कौशल में यथासम्भव इसी विशेषता का प्रयोग करते है। योगाभ्यास स्तर की ध्यान धारणाओं से भी मन सध जाता है। अनेकों क्षेत्रों में भाग दौड़ करने की अपेक्षा एक निश्चित प्रसंग पर लगने लगता है। यह तो प्रथम चरण है जैसा कि छोटे बालक का घुटने के बल चलने की अपेक्षा उसका पैरों पर खड़े होना और चलने के लिए ठुमकना। पौरुष तो तब आरम्भ होता है जब मनुष्य बड़ा होकर समझदार बनता और उपयोगी कार्यों में संलग्न होता है। घिसटने के स्थान पर ठुमकना सफलता तो है, उसे प्रगति भी कह सकते हैं, पर यह ऐसी प्रगति नहीं है जिस पर सन्तोष या गर्व किया जा सके।

ध्यान धारणा की क्रिया में कई लोग अभ्यस्त हो जाते हैं। मन को भागदौड़ करने के स्थान पर एक खूँटे से बँधा रहने पर बाधित कर देते हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि साधन ने अभीष्ट दिशा में तत्परतापूर्वक प्रयत्न किया है। और मानसिक उछल कूद को प्रतिबंधित अनुशासित कर दिया है। पर देखना यह है कि बच्चे को खेल-खिलवाड़ करने से रोक कर घर में बैठे रहने के लिए ही बाधित किया गया या उससे पढ़ने लिखने जैसे किसी काम में भी लगाया गया। अनुबद्धता की उपयोगिता तभी है जब दौड़ धूप से बचाये गये समय का कोई श्रेष्ठ उपयोग होने लगे, अन्यथा आकाश में उड़ने वाले तोते को पिंजड़े में कैद कर देने जैसी बात हुई। अपना मनोरंजन भले ही हुआ हो, पर तोते की स्वाभाविक प्रवृत्ति रोक देने पर उसे तो व्यथा ही हुई। पिंजड़े की खिड़की जब खुली रह जाती है तो तोता अवसर पाते ही उड़ जाता है और फिर उस कैद खाने में बन्द होने के लिए स्वेच्छापूर्वक नहीं लौटता। चंचल मन का भी यही प्रयास रहता है कि दबाव देकर एकाग्र किये जाने की प्रक्रिया जब ढीली पड़े तो उड़ने के प्रयत्न में लगने और मन-मानी करने की पुरानी आदतें प्रबल होंगी।

एकाग्रता साधने के साध ही यह निश्चय भी करना चाहिए कि इस उपलब्धि का प्रयोग किस काम में किया जायगा। हाथी पर अंकुश, घोड़े पर लगाम, ऊँट पर नकेल बैल पर नाथ का दबाव इसलिए डाला जाता हैं कि उसे इच्छित दिशा में चलाया जाय। उससे उपयोगी काम लिया जाय। यदि ऐसा कुछ न करना हो तो फिर बँधनों में प्राणी को बाधित करना बेकार है।

धन का उद्देश्य संयम साधना होना चाहिए। एकाग्र मन से अपने गुण, कर्म स्वभाव में घुसे हुए दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ा जाना चाहिए और इसके बाद जहाँ भी गन्दगी दिखाई पड़े उसे बुहारना चाहिए। टूट,फूट की मरम्मत करनी चाहिए। बिगाड़ को सुधार में परिवर्तित करना ध्यान धारणा द्वारा उत्पादित सूक्ष्म बुद्धि का प्रधान कार्य है। मनुष्य देवत्व की प्रतिमा है। उसकी अन्तराल में समाहित विशिष्टता इसी कुसंस्कारी कूड़े करकट के नीचे दबी पड़ी रहती हैं। उसे स्वच्छ किया जा सके और सद्गुणों को अलंकार उपकरणों से सुसज्जित किया जा सके तो समझना चाहिए कि नया देव जन्म धारण किया। मनुष्य मुर्खताएँ करता है तो पशु कहलाता है और जब भ्रष्ट चिन्तन दुष्ट आचरण अपनाता है तो उसे पिशाच कहते हैं। यह दोनों ही लानतें अधिकाँश मनुष्यों पर लदी होती है। वे अपने दोष, दुर्गुणों को समझ तक नहीं पाते और न यह विदित होता है कि हेय को हटा कर उसके स्थान पर श्रेय की स्थापना कैसे की जाय? ध्यान का दूसरा चरण यह है कि आत्म-निरीक्षण और आत्म-सुधार का प्रयत्न किया जाय। व्यक्तित्व को सद्गुणों के ऐसे अलंकारों से सजाया जाय कि उसकी शोभा सुषमा देखते ही बने। दुर्गुणी व्यक्ति कोयले के समान जलावन मात्र बन कर रहता है पर यदि उसकी परिणति हीरे के रूप में हो सके तो समझना चाहिए कि उसका मूल्य और सम्मान बढ़ गया।

यह कार्य अन्तर्मुखी होने से हो सकता है। ध्यानपूर्वक उसकी कड़ी समीक्षा की जाय। मानवी गरिमा की कसौटी पर कसकर अपने आपे के हर पक्ष को देखा जाय तो वे छिद्र सहज ही बन्द किये जा सकते हैं, जिनमें होकर बहुमूल्य जीवन तत्त्व टपकता बिखरता रहता है। सज्जनता अर्जित करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता। दुर्गुणों को पहचाना और हटाया जा सके तो फिर रिक्तता को भरने के लिए सद्गुणों की सेना दौड़ पड़ती है और व्यक्तित्व को प्रामाणिक और प्रखर बना कर रहती है।

ध्यान धारणा का तीसरा चरण वह है जिसमें हाथ में लिए हुए कामों को समूची तत्परता और तन्मयता के साथ किया जाता है। काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न माना जाय और उसे पूरे मनोयोग के साथ रुचिपूर्वक किया जाय। काम में रस लिया जाय तो उसकी मिठास अनुपम होती है। कर्त्तव्य पालन वह गुरुता है जिसे करते रहने पर हर घड़ी संतोष और आनन्द उपलब्ध होता रहता है। परिणाम की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती।

मन की निग्रहित करना उत्तम तो है पर समग्र नहीं उसका समुचित लाभ तभी मिलता है। जब मानसिक चेतना को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में नियोजित करने के निश्चय कर लिया जाय।


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