तस्मिन् ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा

April 1988

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तार्किकों द्वारा प्रायः प्रश्न उठाया जाता रहा हैं कि ईश्वर यदि है, तो हमें दीखता क्यों नहीं? यह सवाल वैसा ही है, जैसा कोई कमजोर दृष्टि वाला अपना चश्मा उतार कर सामने का दृश्य देखने का प्रयास करे और कुछ भी नहीं दिखे, पर सामने के व्यक्ति को ही झूठा ठहराये। वस्तुतः इस अल्पविकसित बाल बुद्धि ही कहा जाना चाहिए। विकसित मस्तिष्क वाले यदि इस संबंध में शंका-शंकित हुए भी तो उनका संदेह इतना उथला नहीं होता कि पर्याप्त अनुसंधान किये बिना निष्कर्ष निकाल लिए जायँ। विज्ञान की आधुनिकतम शोधों ने विकसित बुद्धि वाले लोगों को परमसत्ता के प्रति नये सिरे से आस्थावान बना डाला है। यह स्वाभाविक भी है।

वस्तुतः नास्तिकता एक ऐसी मानसिक अक्षमता है, जो अपनी कमजोरी ढकने के लिए मानसिक प्रखरता का नाटक रचती रहती है। जानने-सुनने में तो नास्तिकों के तर्क बड़े युक्तियुक्त और सही जान पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि सचमुच ही ये अपने तीक्ष्ण विचारों द्वारा सत्य को जानने-पहचानने की क्षमता रखते हैं, पर तनिक सूक्ष्मता से विचारने पर ज्ञात होगा कि जिसे वे अपना बौद्धिक पैनापन मान बैठे हैं, वस्तुतः उसके पीछे उनका दुर्बलताजन्य पूर्वाग्रह छिपा रहता है।

तनिक तीक्ष्ण बुद्धि का सहारा लें, तो ईश्वर के न दिखाई पड़ने मात्र से ही उसके अस्तित्व को नकारने का कोई कारण नहीं प्रमाणित होता। उस चेतन सत्ता की स्थूल दृष्टि से अनुभूति न हो पाना, हमारी दृष्टि सामर्थ्य के निर्धारित सीमाबन्धन को ही प्रकट करता है, न कि भगवद् सत्ता का अनस्तित्व।

दूर की कितनी ही वस्तुओं के अस्तित्व से हम अनभिज्ञ होते हैं। वे हमें सिर्फ इसलिए नहीं दिखाई पड़ती, क्योंकि हम दोनों के बीच का फासला अधिक होता है और दृश्य सामर्थ्य कम। उनके अस्तित्व का भान हमें तभी हो पाता है जब हम उसके करीब पहुँच पाते है। अब यदि सिर्फ इस आधार पर कोई किसी के अस्तित्व स्वीकार कर दे तो इससे उसकी मान्यता सिद्ध नहीं हो जाती मात्र इतना पता चलता है कि वे है तो, पर हम उनसे बहुत दूर हैं। हमारी विभिन्न प्रकार की जानकारियों व संवेदनाओं का मुख्य स्त्रोत मस्तिष्क है। उसी से हमें तरह-तरह के ज्ञान प्राप्त होते हैं। यदि यह केन्द्र उस परमसत्ता से सदा अलग-थलग पड़ा रहे, विषय-वासनाओं, इच्छा-आकाँक्षाओं में उलझा रह कर साँसारिक वस्तुओं की कामना करता रहे, तो यह कैसे संभव है कि व्यक्ति एक ही साथ दो-दो लक्ष्यों की प्राप्ति करे? जागतिक विषयों का भी उपभोग करे और ईश्वर का सान्निध्य लाभ भी प्राप्त करे?

इस स्थिति में अपने को पहुँचाने के लिए मनुष्य स्वयं ही जिम्मेदार है। अपने प्रतिकूल कर्तृत्वों से ही वह सर्वेश्वर से अपनी दूर बढ़ा लेता है। यद्यपि वह परमसत्ता हमसे अत्यन्त करीब है, फिर भी हम उसे जानने-समझने में सफल नहीं हो पाते है। इसमें दोष उस महान सत्ता का नहीं अपितु उसकी समीपता का है। अति निकटता भी ईश्वरानुभूति में सहायक की जगह बाधक बन बैठती है। आंखें किसी वस्तु को तभी देख पाती हैं, जब वह एक निश्चित दूरी पर हों। जैसे-जैसे वह निकट आती जाती है, अस्पष्ट से अगोचर बन जाती है। आंखों में देखने की शक्ति तो है; पर वह अपने ही पलकों में लगे काजल को कैसे देखें? इसे देखने के लिए तो दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब निहारने की आवश्यकता पड़ती है। जन सामान्य को ईश्वरीय सत्ता की प्रतीति भी तभी हो पाती है, जब उन्हें उसका प्रतिबिम्ब कहीं दिखाई पड़ता है। अत्यधिक समीपता और कषाय-कल्मषों की प्रचुरता के कारण ही बहिर्मुखी मन को अन्तःसत्ता का अनुभव नहीं हो पाता यद्यपि वह है।

समीपता के साथ-साथ तद्रूपता भी अनुभूति के मार्ग में विघ्न डालती है। सागर में अनेक स्रोतों से जल आकर मिलता है। अनेक नदी नालों का प्रवाह उसमें आकर समाता है और वर्षा की बूंदें भी सम्मिलित होती है; पर इन सबका पृथक अस्तित्व वहाँ कहाँ रह जाता। वे तो जिसमें मिलते है, उसी के तद्रूप हो जाते हैं। वहाँ उन्हें अलग-अलग पहचाना नहीं जा सकता। हम चेतना के समुद्र में जी रहे हैं। यहाँ हमारी स्थिति विशाल चेतना के सागर में एक चेतन बूँद के समान है। यह बूँद इस महत चेतना अनुभूति अलग से कैसे कर पाये? यह अति कठिन कार्य है। मानवी अनुभूतियाँ इसी परम चेतना के प्रकाश की उपस्थिति में संभव हो पाती है।

इसी चैतन्य अंश के कारण हम प्रकृति के रहस्यों और हलचलों को समझने में सफल हो पाते हैं। फिर भी चेतना के उस विशाल सागर को जान-समझ पाना मानवी मन के लिए मुश्किल हो जाता है। चेतन मन की परम चैतन्य सत्ता को इसी कारण हम नहीं ज्ञात कर पाते। मन-मस्तिष्क सदा अपने ढंग से काम करते रहते है; पर इसके पीछे की शक्ति उन्हें उसी चेतन तत्व द्वारा मिलती है। सजातीय सादृश्य के कारण उसे जानना कठिन है।

हमारे इर्द-गिर्द कितने ही बैक्टीरिया वाइरस मँडराते रहते हैं। कितनी ही प्रकार की तरंगें-ध्वनि, प्रकाश इसके अतिरिक्त अन्यान्य प्रकार के ब्रह्माण्डीय-किरण-विकिरणें बरसते रहते है; पर इन सब की जानकारी हमें कहाँ होती है? रेडियो सेट पर निश्चित फ्रीक्वेंसी मिलाने पर ही हम ध्वनि को सुनते और टी॰वी॰ में प्रकाश चित्रों को देख पाते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म जीवाणुओं को देखने के लिए महाइक्रोस्कोपा जैसे यंत्र बने हैं। इनकी भिज्ञता नहीं हो पाने से यह कदापि नहीं सिद्ध होता कि इन सब का अस्तित्व है ही नहीं, वरन् यह रिसेप्टर की अक्षमता प्रदर्शित करता है। चूँकि यह सब हमारी स्थूल इन्द्रियों की सामर्थ्य से परे की चीज है, अतः इनका भान हमें नहीं हो पाता। ज्ञातव्य है कि जब यह स्थूल चीजें ही हमारी पकड़ से परे की हैं, तो वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म परम चेतन तत्व ही अनायास अनुभूति में कैसे आ जाये? इसके लिए हमें इन्द्रियों को ईश्वराभिमुख बना कर प्रज्ञा चक्षु विकसित करने पड़ेंगे तभी हम उस समष्टि चेतना को जान सकेंगे।

व्यक्ति की संगति जैसी होती है, वह उसी क्षेत्र में निपुण बनता जाता है। यदि उससे किसी अन्य क्षेत्र का सवाल पूछ लिया जाय, तो वह बगलें झाँकने लगता है। गणित का विद्यार्थी जिस सहजता से गणित के प्रश्नों को हल कर लेता है वैसा कला या वाणिज्य का विद्यार्थी नहीं कर सकता। ठीक इसके विपरीत गणित के अध्येता से कोई साहित्य संबंधी प्रश्न पूछ लिया जाय, तो उसका दिमाग तनिक भी साथ नहीं देता। तात्पर्य यह कि मन-मस्तिष्क आरंभ से जिस दिशा में तत्पर और अभ्यस्त बन जाते हैं, फिर उनकी गति, रुचि और प्रवृत्ति उसी ओर बन पड़ती है।भगवद् अनुभूति के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। जब स्वयं को सत्प्रवृत्तियों में लगाया नहीं, इन्द्रियों को साधा ही नहीं इस ओर रुचि प्रवृत्ति जगाई नहीं, तो परम तत्व की अनुभूति निश्चय ही कठिन होगी।

कई बार ऐसा होता है कि जब मन किसी कार्य में निमग्न हो जाता है, तो सामने क्या कुछ हो रहा है, इसका ध्यान ही नहीं रहता। प्रयोगशाला में कार्यरत वैज्ञानिकों चिन्तन में तल्लीन साहित्यकारों सवाल हल करने में निरत गणितज्ञों के साथ अनेक बार ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं जब उन्हें अपनी समीपवर्ती हलचलों की ही जानकारी नहीं मिल पाती। साँसारिक विषय-वासनाओं राग-रंगों में डूबे मन-मस्तक को अन्य अनुभूतियाँ ग्राह्य ही नहीं होतीं, अतः ऐसे व्यक्ति यदि सृष्टा की अनुभूति न कर सकें, तो इससे उसकी निस्सारता नहीं सिद्ध होती।

तारों और नक्षत्रों का दिन के सुमेरु आकाश में न दिखाई पड़ना यह नहीं प्रमाणित करता कि सूर्य की तरह इस वक्त वे अस्त हो जाते हैं। इनकी उपस्थिति उस समय भी यथावत बनी रहती है; पर दिन की चकाचौंध में हमारी आंखें उन्हें देखने में सर्वथा विफल रहती हैं। साँसारिक चकाचौंध इससे कम नहीं कई गुना अधिक ही प्रखर होती है। इसमें पड़कर व्यक्ति की आंखें चौंधिया जाना और ईश्वरीय आलोक का एहसास न हो पाना, स्वाभाविक ही है। जब तक स्वयं को उनसे विमुख एवं मन को परिष्कृत न किया जाय, जब तक हममें वह क्षमता नहीं विकसित हो सकती, कि हम संसार में रहते हुए भी उसके दिव्य प्रकाश को ग्रहण-अवधारण कर सकें।

अंगारे पर जब तक राख की पर्त चढ़ी रहती है, तब तक उसकी प्रखरता दबी-छिपी अवस्था में पड़ी रहती है, किंतु उसके हटते ही वह अपने वास्तविक आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। हमारी मलीनता का कारण हमारे अपने ही अपरिष्कृत मनोभावों की आत्म-चेतना पर चढ़ी परतें हैं। जब तक यह हम पर सवार रहती हैं हम स्वयं को सामान्य समझते रहते है पर इनके तिरोहित होते ही सही आत्म भव को प्राप्त करते है। आंखों पर चढ़े वासना तृष्णा इच्छा आकाँक्षा लोभ-मोह के इन पर्दों के कारण ही हम अपने को पहचान नहीं पाते आत्मा के प्रकाश को देख नहीं पाते। यदि सरोवर का जल ही गंदला हो, कीचड़युक्त हो तो उसके तल पर पड़ी वस्तु कैसे देखी जाय? सन्दूक में बन्द आभूषणों और जमीन के नीचे दबी प्रकाशयुक्त मणि को नहीं देखा जा सकता है। इसके लिए प्रयत्न-पुरुषार्थ करना होता है। बक्से का ताला खोलना और परिश्रम पूर्वक जमीन की खुदाई करनी पड़ती हैं तभी उनकी उपलब्धि संभव हो पाती है। भगवत् सत्ता का अवलोकन करने के लिए इसी स्तर की प्रक्रिया आरंभ करनी पड़ती है अपनी मलीनताओं को हटा कर परिष्कृति लानी पड़ती है, तब कहीं जाकर उसकी दर्शन-झाँकी शक्य हो पाती है। हम ईश्वर के अंशधर हैं, उसकी अनुकम्पा प्रत्येक पर समान रूप से बरस रही है। उसका प्रकाश हर जगह हर एक में अन्दर-बाहर सर्वत्र विद्यमान है, पर ग्रहण तंत्र की विकृति के कारण हमें इसकी प्रतीति नहीं हो पाती। आवश्यकता इसी विकृति को प्रतिकूलता को समाप्त कर अनुकूलता विकसित करने की है।

भौतिक विज्ञान भी आज उस मोड़ पर पहुँच गया है, जहाँ पदार्थ के मूल स्वरूप के बारे में वह काई स्पष्ट निर्णय नहीं ले पा रहा है। पदार्थ का चेतना में रूपांतरण तो उसने स्वीकार लिया है, पर चेतना का पदार्थ में परिवर्तन को मान्यता मिलना अभी शेष है। अगले दिनों इसे भी विज्ञान क्षेत्र में मान्य ठहराया जायेगा। अभी विज्ञानियों ने इतना अवश्य स्वीकार कर लिया है कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड चेतन तरंगों का ही क्रीड़ा-कल्लोल है। इस बिन्दु पर आज समस्त विज्ञान परिकर एकमत हैं कि इस चेतना को जड़ उपकरणों द्वारा किसी भी प्रकार देखा, समझा और खोजा जा सकना संभव ही नहीं है। ऐसी स्थिति में नास्तिकों के थोथे तर्क उनकी अज्ञता एवं नासमझी के ही परिचायक हैं। ईश्वर के न दीखने, फलतः न होने की मान्यता अब पूर्णतः अमान्य ठहरा दी गई है। विकसित बुद्धि ऐसे तर्कों को गलत और अपर्याप्त मानती है। वस्तुतः उस निराकार और अतिसूक्ष्म सत्ता का ज्ञान-विवेक, साधना और सद्ज्ञान द्वारा ही संभव है।


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