कौत्स उन दिनों महर्षि कण्व के आश्रम में तप कर रहे थे। एक दिन गुरु और शिष्य दोनों जंगल में देर तक काम करते रहें सायंकाल महर्षि ने कौत्स को थोड़ा पहले आश्रम भेज दिया आप कुछ पीछे चले।
कौत्स आश्रम आ रहे थे, तब उन्होंने मार्ग में पड़ी एक सुन्दर स्त्री देखी। स्त्री को चोट लगी थी, वह पीड़ा से कराह रही थी। कौत्स एक क्षण रुके और फिर अपनी राह चलते बने।
पीछे महर्षि कण्व भी उधर से आये और युवती को यों कराहते देखा तो अपने शिष्य पर उन्हें बड़ा क्षोभ हुआ। युवती को उठाकर वे आश्रम लाये और उसकी चिकित्सा की व्यवस्था कर दी।
कौत्स को बुलाकर उन्होंने पूछा- जब यह स्त्री मार्ग में तुम्हें कष्ट पीड़ित अवस्था में मिली तब तुमने उसे उठाया क्यों नहीं, उसे आश्रम में लाकर सेवा का उचित प्रबन्ध क्यों नहीं किया?
कौत्स ने सिर झुका कर कहा-भगवन्! मुझे सन्देह था कि उस स्त्री के सौंदर्य से कहीं विचलित न हो जाऊँ इसीलिये चुपचाप चला आया।
महर्षि ने गंभीर स्वर में कहा-वत्स! इससे क्या सौंदर्य से विरक्ति हो जायेगी। छिपा हुआ भाव तो कभी भी प्रकट हो सकता है, इसलिये वासनाओं के आकर्षण से बचने के लिये तो यह आवश्यक है कि वैसे वातावरण में रहकर ही आत्म-नियन्त्रण का अभ्यास किया जाये। तैरना सूखे में नहीं सीखा जा सकता, उसी प्रकार आत्म नियन्त्रण भी एकान्त में नहीं हो सकता।
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