दुख और सुख-सहोदर सहचर

November 1975

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समझा जाता है कि सुख और दुख परस्पर विरोधी है। एक को दूसरा काटता है। सुखी और दुखी दो विपरीत स्थिति के व्यक्ति है। पर गहराई से विचार करने पर दूसरी ही बात सामने आती है। चिन्तन बताता है कि दुख नग्न सत्य है सुख तो उसका सुसज्जित करने वाला परिधान अलंकार मात्र है।

पुत्र प्राप्ति की मुसकान के पीछे माता की प्रसव पीड़ा झाँकती है। आज का गौरवान्वित कंठाभरण कल सुनार की भट्टी में तप रहा था और हथौड़ों की चोटें खा रहा था। आग पर पकाये बिना स्वादिष्ट भोजन बन सकना कैसे सम्भव हो सकता है।

धनी किसान, पदोन्नति श्रमिक और पुरस्कृत कलाकार के आज के सौभाग्य को सराहते हुए थोड़ा पीछे मुड़कर भी देखना होगा। उन उपलब्धियों के लिए उन्हें कितने समय तक कितने मनोयोग पूर्वक कितनी कठोर साधना करनी पड़ी है। पल्लवित वृक्ष का इतिहास वहाँ से आरम्भ होता है जहाँ एक बीज ने अपने अस्तित्व की बाजी लगाई थी। चिरन्तन एकाग्र अध्यवसाय के बिना कौन विज्ञ विद्वान बन सका है। सफल लोगों से पूछा जा सकता है कि उनने कितनी ठोकरें खाई और कितनी असफलताएं गले उतारी।

दुख बड़ा भाई है और सुख छोटा। दुख पहले पैदा हुआ सुख बाद में। दोनों चिरन्तन सहचर हैं उनकी एकता का कोई तोड़ नहीं सकता। दुख का स्वेच्छापूर्वक वरण किये बिना कोई सुख का सौभाग्य पा नहीं सकता।


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