शान्ति और प्रगति तरलता-सरलता पर निर्भर है।

November 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भौतिक जगत में जल तत्व प्रधान है। यों कृषि उत्पादन निवास यातायात आदि की दृष्टि से थल ही महत्वपूर्ण दिखाई देता है पर थोड़ी गहराई से विचार करने पर प्रतीत होगा कि थल की जितनी महिमा है उससे कही अधिक जल की है। जल के अभाव में यह पृथ्वी लोहे जैसी कठोर और निर्जीव बनकर रह जायगी। चट्टानें मिट्टी ही तो है पर उनमें निवास अंश कम होता है। अतएव वे कृषि उत्पादन निवास आदि के किसी भी प्रयोजन में नहीं आती। थल की उपयोगिता जल के संयोग से ही बनी है।

प्राणियों के शरीर जिन रसायनों से बने है वे जलीय है इस धरती पर जल न होता तो यहाँ जीवन भी दिखाई न पड़ता। चन्द्रमा आदि जिन ग्रहों में जल नहीं है वहाँ निर्जीव नीरवता के अतिरिक्त और कुछ भी ऐसा नहीं है जिसकी उत्साह पूर्वक चर्चा की जा सके। धरती में जो वृक्ष वनस्पति पशु पक्षी कृमि कीटक और जलचर दिखाई पड़ते हैं उनकी हलचलों से यह दुनिया गतिशील दिखाई पड़ती है यह सब उस पानी का चमत्कार है जो नदी तालाबों में भी नहीं थल भूमि के कण कण में व्याप्त है। जल रहित थल की कल्पना की जाय तो उन जीव धारियों का अस्तित्व ही समाप्त हुआ दृष्टिगोचर होगा जो कल्पना कर सकने में समर्थ है।

स्थूल जगत में थल और जल का जो संयोग है वही सूक्ष्म जगत में वैभव और भावना का है। इन दोनों के संयोग से ही मनुष्य जीवन्त और रससिक्त दृष्टिगोचर होता है।

जीवन की उत्पत्ति पानी से हुई है। कृमि कीटकों से लेकर मनुष्य तक वनस्पति से लेकर जीवाणुओं तक की सारी जीवसृष्टि जल से ही जीवन ग्रहण करती है। बहुत दिन तक पानी को एक स्वतंत्र तत्व माना जाता रहा है। पर पीछे यह सिद्ध हो गया कि हाइड्रोजन के दो आक्सीजन का एक परमाणु मिलने से पानी बनता है। यह इस तरह जुड़ जाते हैं कि फिर उन्हें पृथक करना एक प्रकार के असंभव हो जाता है।

जल मात्र जलाशयों तक सीमित नहीं है वह थल में भी संव्याप्त है और अदृश्य आसमान में उड़ रहा है। भावनायें मात्र अन्तः करण में नहीं रहती वरन् मस्तिष्क में विचार पद्धति का और शरीर में क्रियाशक्ति का संचार करती है। मस्तिष्क जड़ है उसका स्वतंत्र चिन्तन कुछ भी नहीं। भावनाओं का प्रवाह ही अभीष्ट दिशा में मन बुद्धि चित्त अहंकार को धकेलता घसीटता है। शरीर जड़ पदार्थों का बना है उसमें जड़ता के गुण है। देह में जितनी भी जिस स्तर की भी सक्रियता है उसे चेतन की प्रेरणा ही समझा जाना चाहिए। जल की मानवी चेतना से तुलना करें तो उसे विचारणा और भावना का समन्वय कह सकते हैं। पानी भी तो हाइड्रोजन और आक्सीजन के संयोग से बनता रहे।

मनुष्य शरीर में 65 प्रतिशत पानी है। यह अनुपात स्थिर रहने पर ही वह स्वस्थ रह सकता है। अगर पाँच प्रतिशत भी कमी पड़ जाय तो चमड़ी सिकुड़ जायगी जीभ ऐंठने लगेगी और डरावने सपने आवेंगे। पन्द्रह प्रतिशत कमी पड़ जाय तो फिर मौत ही समझिए। पानी की मात्रा बढ़ जाने से सिर चकरायेगा उल्टियाँ होगी ठण्ड लगेगी और बेहोशी छा जायगी। मस्तिष्क का हाइपोथैलेमस केन्द्र पानी की मात्रा पर नियंत्रण रखता है। जरा सी कमी पड़ने पर प्यास लगती है और बढ़ोत्तरी होने पर पेशाब जाना पड़ता है।

शरीर में 47 प्रतिशत पानी पेय पदार्थों द्वारा और 29 प्रतिशत ठोस समझे जाने वाले आहार से पहुँचता है। 14 प्रतिशत शरीर स्वयं ही अपनी रासायनिक क्रियाओं द्वारा अपने आप बनाता रहता है। साधारणतया एक स्वस्थ शरीर में 50 सेर पानी रहता है। इसमें से 2 सेर पेशाब पसीना आदि से निकलता है और इतना ही खान पान के माध्यम से भीतर पहुँच जाता है।

पानी के निकास में साँस को 15 प्रतिशत पसीने की ग्रन्थियों को 22 प्रतिशत और शेष गुर्दों को करना पड़ता है। रक्त में 83 प्रतिशत और दाँतों के ऊपरी खोल में 2 प्रतिशत पानी होता है। सबसे अधिकता और न्यूनता वाले यही दो भाग है।

शरीर को पानी की सहायता से ही स्वस्थ रखा जा सकता है। भोजन का स्थान उससे कही बाद का है। घटिया भोजन के सहारे बहुत दिन तक काम चल सकता पर गन्दा जल तो कुछ ही समय में विपत्ति खड़ी कर देगा। धन वैभव के बिना स्वल्प साधनों के सहारे भी अपरिग्रही लोगों की तरह हंसता खेलता जीवन जिया जा सकता है? किन्तु विवेकयुक्त सरस मन स्थिति न होने पर केवल कर्कशता और उद्विग्नता ही हाथ लगेगा। अकेला वैभव व्यसन अहंकार और असंतोष ही उत्पन्न करेगा।

पानी की मात्रा का शरीर में संसार में संतुलन रहना चाहिए। अनावश्यक शेख चिल्ली जैसी बेपर की उड़ानें भी निरर्थक है पर दूरदर्शिता का सूक्ष्म दृष्टि का अभाव भी भयंकर है। इसके बिना हमारे अंग अवयव अपना नियत निर्धारित काम भी न कर सकेंगे।

शरीर में कई प्रकार के नमक उत्पन्न होते हैं उनका संतुलन सही बनाये रहने के लिए पानी की सीवर लाइन बराबर चलती रहती है यदि अनावश्यक मात्रा में नमक जमा हो जाय तो फिर शरीर का सारा ढाँचा ही लड़खड़ा जायगा।

मनुष्य शरीर के लिए जिस प्रकार जल की आवश्यकता है उसी प्रकार कृषि उद्योग कल कारखाने भी पानी के बल पर ही जीवित है। एक गैलन पेट्रोल तैयार करने में उसकी सफाई के लिए साठ गैलन पानी की आवश्यकता पड़ती है बड़े नगर बड़ी नदियों के किनारे ही बसे है। सभ्यताओं का विकास उन क्षेत्रों से आरम्भ हुआ जहाँ पानी का बाहुल्य था।

शरीर में लोक व्यवहार में परिस्थितियों के उतार चढ़ाव में अनेक प्रकार की विकृतियाँ उत्पन्न होती है। इनका मनः क्षेत्र पर विषाक्त प्रभाव पड़ता है। इसे धोकर साफ करना उत्कृष्ट स्तर के चिन्तन का ही काम है। जल का एक महत्वपूर्ण काम विविध विधि मलों को बहाने हटाने और उसके स्थान पर स्वच्छता उत्पन्न करना भी है। विवेक दृष्टि की तरलता पल पल पर उत्पन्न होने वाले विक्षोभों का समाधान करके हमें स्वच्छ संतुलन प्रदान करती है।

संसार का 97 प्रतिशत पानी खारे समुद्रों में भरा पड़ा है। शेष तीन प्रतिशत धरती में तीन मील गहराई तक जल स्रोतों के रूप में सात मील ऊपर तक भाप के रूप में और पर्वत शिखरों तथा ध्रुव प्रदेशों में बर्फ के रूप में बिखरा पड़ा है। धरती वाले जिस पानी का प्रयोग करते हैं या कर सकते हैं वह मात्र दशमलव छह प्रतिशत है।

आमतौर से मनुष्यों के मस्तिष्क दुर्भावना और चिन्तन से भरे रहते हैं। यह खारी जल निरर्थक ह। उसमें से सार्थकता उतने ही अंश की है जो भाप बर्फ अथवा नदी सरोवरों में मीठे जल की तरह बहता और भरा रहता है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि उत्कृष्ट चिन्तन की सरलता मनुष्य जीवन में बहुत स्वल्प देखी जाती हैं यदि उसकी मात्रा बढ़ी चढ़ी होती तो यह संसार न जाने कितना सुखी सन्तुष्ट होता और कितनी अधिक प्रगति कर सकने में सफल हुआ होता।

बढ़ती हुई जनसंख्या और बढ़ते हुए कल कारखाने मल उत्पत्ति का मात्रा निरन्तर बढ़ा रहे है। इस कचरे को नदियों के सहारे बहाने की विधि ही काम में लाई जाती है। यही पानी पीछे पानी के काम आता है। योँ इसकी सफाई का भी कुछ इन्तजाम किया गया है ताकि गन्दा पानी पीकर आदमी बीमार न पड़े। शहरों में नलों का पानी यथा संभव छान कर और उसमें क्लोरीन मिला कर दिया जाता है फिर भी उसमें प्राकृतिक स्वच्छ जल की तुलना में भारी कमी रह जाती है। कारखानों में प्रयुक्त होने वाले रसायन कीटाणु नाश के लिए छिड़के गये घोल रासायनिक खाद भी कम विषैले नहीं होते, वे भी घूम फिर कर वर्षा के जल के साथ नदियों में पहुँचते हैं और पीने के पानी के साथ शरीर में जा पहुँचे है। नहाने धोने में प्रयुक्त होने वाले साबुन और डिटरजेंट रसायन भी क्रमशः अधिक खर्च होने लगे हैं और वे भी दैनिक प्रयोग में आने वाले पानी के साथ ही घुलते जाते हैं। अणु भट्ठियों की राख समुद्र में जाकर जल जीवों में होती हुई अथवा बादलों के साथ फिर मनुष्यों को प्रभावित करती है। इस प्रकार जो थोड़ा सा पानी प्राणियों के प्रयोग में आकर उनकी जीवन रक्षा करता है वह क्रमशः अधिक विषैला होता चला जा रहा है।

संसार के सामने यह खतरे की घण्टी है कि जल तत्व को विकृत न किया जाय। छोटे लाभों के लिए उस भूल पर कुठाराघात न किया जाय जिसके ऊपर स्थिरता और शान्ति का समूचा आधार टिका हुआ है। सुखोपभोग के लालच में उत्कृष्ट चिन्तन को नष्ट कर अपराधी प्रवृत्तियाँ को पनपाया जा रहा है इस लिप्सा में पाया कम और खोया अधिक जायगा। जल को दूषित करके हम अपना मरण अपने हाथों आमन्त्रित करते हैं विकृत विचारों को हृदयंगम करके भी व्यक्ति और समाज का सर्वनाश उत्पन्न होगा।

जलाशय अपने में मौसम की ठंडक और गर्मी सोख लेते हैं रात में जब ठंड बढ़ती है तो अपनी गर्मी और दिन में जब गर्मी बढ़ती है तब अपनी ठंड बखेरते हैं। इससे बड़े जलाशयों के समीपवर्ती क्षेत्रों में सह्य तापमान बना रहता है। इसके विपरीत जहाँ जलाशय नहीं होते वहाँ दिन में गर्मी और रात में सर्दी बढ़ी हुई रहती है। रेगिस्तानी इलाकों में दिन में 50 डिग्री सेन्टीग्रेड तक और रात को शून्य से नीचे तापमान पहुँच जाता है इसका कारण उस क्षेत्र में पानी का अभाव ही है।

पानी की एक विलक्षणता यह है कि वह जमने पर फैलता है जबकि अन्य सभी तरल पदार्थ जमने पर सिकुड़ते हैं अगर बर्फ पानी से अधिक भारी होती तो वह समुद्र की सतह पर तैरने की अपेक्षा तली में डूब जाती उस तक सूर्य की किरणें भी न पहुँच पाती और तली में जमी बर्फ सारे समुद्र को बर्फ बना डालती। ऐसी दशा में पृथ्वी की स्थिति आज जैसी न होती, यहाँ ठंड का साम्राज्य होता और बहुत कम प्राणी उसमें जीवित रह पाते।

ठंडा होने पर फैलने की यह उल्टी रति चार डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान के शुरू होती है। बाद में वह नियम बदल जाता है और अन्य पदार्थों की तरह पानी भी गर्म होने पर फैलने तथा ठंडे होने पर सिकुड़ने का नियम पालन करने वाला है। यदि ऐसा न होता तो बादलों को उठना और भाप के इंजनों का काम करना संभव ही न हुआ होता।

आन्तरिक शान्ति मनुष्य के सद्गुणों के बर्फ जैसा ठोस और शीत बनाती है। उससे वह विस्तृत और महान बनता है। शान्ति का प्रभाव बाह्य जगत में निष्क्रियता हो सकता है पर अन्तः क्षेत्र में सन्तुलन रहने से व्यक्तित्व के विकास की अनेकानेक संभावनाएँ प्रशस्त होती है। शान्ति प्रेमी हलक होते हैं। बर्फ की तरह ऊपर रहते हैं और नीचे वालो की सुरक्षा में स्वयं ही गलते घुलते रहते हैं।

संत सज्जनों को क्रिया पद्धति पेट और प्रजनन के लिए जीवित रहने वाले नर पशुओं से ही ऊंची होती है। वे दुनियादारों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की नीति अपनाते हैं। महामानवों की विशिष्टता पर ही इस संसार की सदाशयता टिकी हई है और विकसित होती है।

बड़ी सभ्यताएं विशाल नदियों के सहारे ही फली फूली है। सिन्धु नदी के समीप हड़प्पा ह्वांगहो के समीप चीनी सभ्यता नील के सहारे मिश्री सभ्यता दजला और फरात की गोद में मेसोपोटामिया सभ्यताएँ फली फूली है। गंगा जमुना ने आर्य सभ्यता को विकसित किया है। पानी के प्रयोग में जहाँ गफलत की गई वहाँ सभ्यताएँ भी उमड़ गई। अफ्रीका का लेप्टिस मेगना अब से हजार वर्ष पूर्व समृद्ध नगर और अच्छा बन्दरगाह था। पानी का प्रबन्ध करने में चूक हो जाने के कारण अब वहाँ सिर्फ खंडहर ही सिर धुन रहे है।

सद्भावनाओं के सज्जनोचित सत्प्रवृत्तियों के सहारे मनुष्य महान बनते हैं और समाज तथा राष्ट्र ऊँचे उठते हैं। जहाँ दुर्भावनाओं के विष वृक्ष उग्र समझना चाहिए कि दृष्ट असुरता का प्रसार संचित सभ्यता को मटियामेट करेगा। उत्थान पतन के इतिहास अपने अपने समय में बढ़ी घटी सद्भावनाओं का ही परिचय देते हैं धन वैभव की कमीवेशी से व्यक्ति गिरते उठते नहीं। उसका प्रधान कारण मनुष्यों की नैतिकता चरित्रनिष्ठा आदर्शवादिता में निष्कृष्टता एवं उत्कृष्टता की मात्रा का बढ़ना घटना ही होता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles