बीमारियों को हम निमन्त्रण देकर बुलाते हैं

November 1975

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शरीर की संरचना अद्भुत है। लगता है उसके निर्माता ने अपनी सारी कला इस छोटे से यंत्र में समेट कर रख दी है। इसके सदुपयोग के साथ सम्भावना जुड़ी हुई है कि उसे धारण करने वाला आत्मा इस उपकरण की सहायता से अनेकानेक प्रकार के भौतिक तथा आत्मिक लाभ उठाये और अपूर्णता को पीछे छोड़ते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक सरलता पूर्वक पहुँच सके।

दुरुपयोग तो अमृत का भी बुरा होता है। आत्म रक्षा के काम आने वाले अस्त्र-शास्त्रों को भी यदि गलत ढंग से प्रयुक्त किया जायगा तो वे अपने ही हाथ-पैर काट देंगे। धन और बुद्धि का अवाँछनीय उपयोग करके लोग किस प्रकार पतन के गर्त में गिरते और कष्ट भुगतने हैं यह कहीं भी-कभी भी-प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।

हमें आये दिन शारीरिक रोग सताते हैं और कराहते हुए विभिन्न स्तर के कष्ट सहने के लिए विवश करते हैं। यह रोग आखिर हैं क्या? ईश्वर ने जब इतना सुसम्पन्न शरीर दिया तो उसके साथ यह बीमारियों की व्यथा क्यों लगादी? जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि रोग केवल हमारी प्रतिकूल चलने की उद्दण्ड नीति का दुष्परिणाम है। उन्हें कुपथ गामिता का दण्ड भी कह सकते हैं। प्रकृति की अवज्ञा करते हुए हम चैन से नहीं बैठ सकते। नैतिक और सामाजिक अपराध करने वाले राज दण्ड पाते हैं प्रकृति की आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए स्वेच्छाचार बरतने का दुष्परिणाम हमें विविध विधि रोगों के रूप में भुगतना पड़ता है।

अस्वस्थता का दावानल जिस तूफानी गति से फैल रहा है उसके पीछे प्रकृति के साथ किया गया असंयम रूपी अनाचार ही मुख्य कारण है। द्रुत गति से बढ़ रहे रोगों में से दो चार पर भी दृष्टिपात करें तो प्रतीत होगा कि यह अभिवृद्धि अकारण नहीं है। शरीर के साथ बरती गई उपेक्षा एवं उद्दण्डता का प्रतिफल ही बढ़ती हुई बीमारी के रूप में सामने आ रहा है।

आमाशय और छोटी आँत के अग्रभाग-ग्रहणी के खोखले अवयवों में एक प्रकार का मखमली अस्तर है। इसमें अपच से उत्पन्न विषाक्तता के कारण छोटे-छोटे व्रण हो जाते हैं। इन्हें ‘गैस्ट्रिक अल्सर’ कहते हैं। गैस्टर का अर्थ है पेट। गैस्अर में होने वाले व्रण गैस्ट्रिक अल्सर कहलाते हैं। छोटी आँतों के अग्रभाग ग्रहणी के व्रणों को ड्यूडोनल अल्सर कहते हैं। यदि दोनों जगह व्रण हो तो उसे पेप्टिक अल्सर कहा जायगा।

आमाशय में दो महत्वपूर्ण पाचक रस स्रवित होते रहते हैं। (1) हाइड्रोक्लोरिक एसिड (2) पेप्सीन। यह रस काफी तेज हैं। भोजन को वे ही पचाते हैं। पर यह आश्चर्य ही समझना चाहिए कि वे आमाशय को नहीं पचा डालते। कारण यह है कि आमाशय और ग्रहणी की दीवारों पर एक मखमली अस्तर चढ़ा रहता है। जो पाचक रसों और आमाशय की दीवारों को आपस में घुलने मिलने नहीं देता। यदि किसी कारण यह अस्तर झीना पढ़ जाय तो वे एसिड आमाशय की दीवारों को खरोचेंगे और उसमें जख्म पैदा कर देंगे।

आमाशय के मखमली अस्तर में प्रायः 10 अरब अम्ल स्रावी कोशिकाएँ होती हैं। वे एक दिन रात में 2000 घन सेन्टीमीटर पाचक रसों का स्राव करती हैं। कुछ व्यक्तियों की यह कोशिकाएँ बढ़कर दूनी तक हो जाती हैं और अधिक रस स्रवित करती हैं ऐसे लोगों को पेप्टिक अल्सर हो जाता है।

पेट का बहुत सा काम मुँह को करना पड़ता है। सह्य तापमान-भोजन को छोटे टुकड़ों में तोड़ कर पेट में पच सकने योग्य बनाना-मिर्च मसाले आदि की अनुपयुक्तता दूर करना-मुँह द्वारा ठीक तरह चबाये जाने पर ही संभव होता है। पर कई लोग जल्दबाजी में बिना पूरा चबाये ही भोजन उदरस्थ करते रहते हूँ। इससे आमाशय को दूना काम करना पड़ता है, ऐसी दशा में कठोर भोजन उस मखमली अस्तर को छील देता है और अल्सर की शिकायत उठ खड़ी होती है।

धूम्रपान, बहुत गर्म चाय, काफी पीना, मदिरा पान, मानसिक उत्तेजना की स्थिति में भोजन करना, एस्पिरीन और कोर्टिकोस्टेराइड वर्ग की दवाओं का अधिक सेवन भी अल्सर का कारण बन जाता है।

पेट के ऊपरी भाग में दर्द, जलन, ऐंठन, कचोट, खट्टी डकारें, पेट खाली होते ही पेट में ऐंठन जैसी शिकायतें हों तो अल्सर की संभावना समझी जा सकती है। यह जख्म ग्रहणी का मार्ग छोटा कर सकते हैं ऐसी दशा में भोजन नीचे आँतों में नहीं खिसकता और उल्टियाँ होने लगती हैं। जख्म बड़े हो जाय और उनका प्रभाव रक्त वाहिनियों तक जा पहुँचे तो खून की उल्टियाँ भी होने लगती हैं।

कैंसर का प्रकोप द्रुतगति से बढ़ रहा है। वह गरीबी की अपेक्षा अमीरी में अधिक पनपता है, जहाँ सफाई, विश्राम तथा सुख सुविधा के अनेकों साधन मौजूद हैं। इन दिनों संसार भर में प्रायः जीन करोड़ व्यक्ति इस रुला-रुला कर मारने वाले दुष्ट रोग का त्रास सह रहे हैं। डा0 एलिस बारकर के अनुसार उनमें से आधे अर्थात् डेढ़ करोड़ केवल अमेरिका और इंग्लैंड में हैं।

कैंसर लैटिन भाषा का शब्द है। उसका अर्थ होता है-केकड़ा। यह जल जन्तु अपनी घिनौनी आकृति एवं प्रकृति के कारण सहज ही डरावना लगता है। अपने पैने पंजे जहाँ भी गढ़ा लेता है वहाँ मजबूती से जमा रहता है। जिन कोशिकाओं पर कैंसर के विषाणु छा जाते हैं, उन्हें इस प्रकार जकड़ते हैं कि हटने का नाम नहीं लेते। आरम्भ में थोड़ी सी सूजन, कसक और गाँठ से उसकी जड़ जमती है और फिर वह दिन-दिन अधिक कड़ी बड़ी और विकृत होती चली जाती है। दाह शोथ, दर्द, उभार जैसी अनेक विकृतियाँ उठती बढ़ती दिखाई देती हैं और न केवल पीड़ित अंग पर वरन् समस्त शरीर पर उसकी प्रतिक्रिया परिलक्षित होती है।

औषधियाँ, आपरेशन, रेडियम किरणें आदि विविध उपचार करने पर भी इस रोग से पिण्ड नहीं छूटता और अधिकाँश पीड़ित मृत्यु के मुख में ही चले जाते हैं। भारत में इस रोग का आक्रमण 70 प्रतिशत मुख के क्षेत्र में होता है। मुख, गला, जीभ आदि इसके शिकार में अधिक आते हैं, इसके बाद 22 प्रतिशत को छाती, फेफड़ा और पेट में होता है। कुल मिलाकर 8 प्रतिशत शरीर के अन्य अंगों में पाया जाता है। यह अनुपात प्रकट करता है कि किन अवयवों के साथ कितना अत्याचार हुआ है और किस प्रकार उनका सर्वनाश प्रस्तुत हुआ है। पीड़ितों में प्रायः दो तिहाई पुरुष और एक तिहाई स्त्रियाँ होती हैं, कारण कि पुरुष अपेक्षाकृत हर क्षेत्र में अधिक उद्दंडता का परिचय देते हैं। नशेबाजी का शौक भी उन्हीं को होता है। बढ़ता हुआ धूम्रपान इस दुष्ट रोग का प्रधान कारण है। 40 प्रतिशत रोगी अति धूम्रपान के फलस्वरूप ही कैंसर के शिकार बनते हैं। कैंसर सर्वेक्षण से उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि सिगरेट न पीने वालों की तुलना में पीने वाले कैंसर के दस गुने शिकार होते हैं। भारत में 150 करोड़ रुपया वार्षिक की तमाखू पीई जाती है। कैंसर रोगियों पर आने वाले चिकित्सा, परिचर्या खर्च तथा काम हर्ज होने की हानि इससे कम नहीं अधिक ही होनी चाहिए। चोरी की राशि से यदि जुर्माना अधिक होता हो तो उसे अनुचित नहीं कह सकते।

मधुमेह कितना घातक है यह हर कोई जानता है, पर इस जानकारी में इतनी और वृद्धि करने के लिए कोई तैयार नहीं कि यह जिव्हा के असंयम का ही परिणाम है। गरिष्ठ तले हुए-चट-पटे पदार्थ अत्यधिक मात्रा में खाते रहने से आमाशय की कुछ रस ग्रन्थियाँ एक प्रकार से सूख ही जाती हैं और उनमें इन्सुलिन जैसी उपयोगी रसायन बनना बन्द हो जाते हैं, यही है मधुमेह का मूल कारण।

बिना खाये खाली पेट की अवस्था में यदि रक्त में 100 मिली मीटर में 120 मिली ग्राम से ज्यादा शकर हो और पूरे भोजन के पश्चात शकर का अनुपात 100 मिली मीटर में 170 से अधिक हो तो उसे मधुमेह का रोगी माना जा सकता है।

जो कुछ हम खाते हैं, उससे ग्लूकोज बनता है। इस शकर को पकाकर उष्णता एवं शक्ति में परिणत करना इन्सुलिन एन्जाइम का काम है। भोजन का एक अंश ग्लायकोजेन बन जाता है जो पुट्ठों और जिगर में रहता है। उपवास के समय या शक्ति की आवश्यकता के समय शक्ति इसी भंडार से खर्च होती है लेकिन यदि श्रम से जी चुरा कर आलसी स्वभाव बना लिया गया है और अतिरिक्त शकर बच गई है तो वह चर्बी के रूप में शरीर में अपनी परतें जमा करती चली जाती है।

शरीर में शकर की मात्रा बढ़ने लगे तो रोगी को हमेशा भूख जैसी पेट की जलन महसूस होगी। प्यास अधिक लगेगी। बार-बार और जल्दी-जल्दी पेशाब जाना पड़ेगा। स्नायुओं और संधियों में दर्द, कमजोरी, वजन में कमी, जहाँ तहाँ-फोड़े या सूजन की शिकायत दिखाई पड़ेगी।

भोजन में रहने वाली शर्करा तथा स्टार्च दोनों ही पेट में पहुँच कर ग्लूकोज शर्करा के रूप में बदल जाते हैं। उससे शरीर को गर्मी, शक्ति और पोषण प्राप्त होता है। शर्करा रक्त में सम्मिश्रित होकर यह कार्य करती है और उसका कुछ भाग ‘ग्लाइकोजन’ नामक स्टार्च के रूप में जमा हो जाता है। किसी विशेष उछल-कूद या आकस्मिक विपत्ति का सामना करने के लिए जब अतिरिक्त शक्ति खर्च करनी पड़ती है तो उसकी आवश्यकता इसी भंडार से होती है। जिगर की कोशिकायें संग्रहित ग्लाइकोजन को ग्लूकोज शर्करा में बदल कर रक्त में सम्मिलित होने के लिए भेज देती है और उससे अतिरिक्त शक्ति खर्च की व्यवस्था बन जाती है।

मधुमेह के मरीजों के रक्त तथा मूत्र में शर्करा अनावश्यक मात्रा में भरी रहती है, पर शरीर को पोषण के लिए आवश्यक शर्करा नहीं मिलती और वह दिन-दिन दुबला होता जाता है। इसका कारण पेट की एक छोटी-सी ग्रन्थि अग्न्याशय में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाना है। आमाशय के पीछे दाँई ओर यह एक गुलाबी ग्रन्थि है। इसमें भोजन पचाने के लिए काम आने वाले ‘एन्जाइम’ नामक रासायनिक पदार्थ बनते हैं। इनमें से लाइपेज एन्जाइम चर्बी को, एमाइलोप्सन स्टार्च को और ट्रिप्सिन प्रोटीन को पचाता है। यह एन्ज़ाइम जब समुचित मात्रा में नहीं बनते तो पाचन तन्त्र द्वारा वह काम नहीं होता जिसके आधार पर शर्करा को शरीर पोषण के उपयुक्त बनने के अवसर मिल जाता। बिना पची शर्करा को गुर्दे यथावत छान नहीं पाते और वह रक्त तथा पेशाब में अनावश्यक रूप से मिल जाती है।

जननेन्द्रिय के ऊपर पड़ने वाला अवाँछनीय दबाव अनेक रोगों को जन्म देता है। स्त्रियों के कोमल अंग पुरुषों के अनाचार से अधिक उत्पीड़ित किये जाते हैं और वे अबलाएं अनेकों यौन रोगों, मूत्र रोगों तथा पेडू कमर की व्यथाओं से कराहती रहती हैं। इस अनाचार का प्रभाव गुर्दे पर पड़ता है और वे पथरी सरीखी कई बीमारियों से ग्रसित हो जाती है। भोजन की गरिष्ठता, उत्तेजकता और पानी पीने में कंजूसी भी गुर्दों की सामान्य स्थिति को लड़खड़ा देती हैं।

पथरी, मूत्राशय, गुर्दे, जिगर, पित्ताशय तथा यूरेटर मूत्र वाहिनी नलियों में पाई जाती है। पथरी अक्सर गोल, अण्डाकार या लम्बाकार पाई जाती हैं। दो-तीन पथरी पास-पास हों तो उनके तल चपटे हो जाते हैं। मूत्रवाहक नली में बनने वाली पथरी लम्बी होती है, वे जिस अवयव में ढलती है उसके साँचे के अनुरूप अपनी शकल बना लेती हैं। मूत्राशय या पित्ताशय के पत्थर गोल होते हैं। गुर्दे के अन्दर बनने वाले चपटे होते हैं पर पीछे उन्हें जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, उसी की आकृति के ढल जाते हैं। कुछ तो बारहसिंगे के सींगों के आकार तक के देखे गये हैं, जिनका बिना आपरेशन के बाहर निकाला जाना किसी प्रकार संभव ही नहीं हो सकता। यह पत्थर सर्वदा चिकने ही नहीं होते वरन् खुरदरे, दानेदार और काँटेदार भी पाये जाते हैं, उनकी चुभन से दर्द होता है और खून निकलने लगता है।

मूत्र नलियों में वे कम संख्या में होते हैं अक्सर दो तीन। पित्ताशय में उनकी संख्या दर्जनों और कभी-कभी तो सैकड़ों तक देखी गई है। उनके आकार और कड़ेपन को देखने से प्रतीत होता है कि वे भिन्न-भिन्न समयों पर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में और भिन्न-भिन्न कारणों से बने हैं।

पथरी आखिर है क्या? और किस चीज से बनती है। इसका विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है यह शरीर के ही ऐसे मृत खंड है जो मल प्रवाह प्रक्रिया के साथ बाहर निकलने की अपेक्षा किसी कारणवश भीतर ही रुक कर रह गये। यह मृत जीवाणुओं का केन्द्र आरम्भ में छोटा-सा होता है पर पीछे उसके इर्द-गिर्द कैल्शियम-फास्फेट आदि जमा होने लगते हैं और उनका आकार बढ़ता चला जाता है। पता तब चलता है जब वे दर्द करने लगते हैं। गुर्दे की पथरी में मूत्र प्रक्रिया के गड़बड़ा जाने के अतिरिक्त एक कारण पैराथाइराइड ग्रन्थि का विकारग्रस्त होना भी है। उसके कारण जब पेशाब बनने, छनने या निकलने में रुकावट होती है तो तेज दर्द अनुभव होता है। गुर्दे की पथरी का कण असह्य दर्द उत्पन्न करता है। कमर, पेट का आगे का भाग तथा मूत्र नली में विकट वेदना होती है। जी मिचलाता है और उल्टी आती है। प्रकृति पेशाब को बाहर निकालना चाहती है और पथरी उसमें रुकावट डालती है इस खींच-घसीट में अक्सर रक्त नलिकाएं फट जाती हैं और पेशाब के साथ खून आने लगता है। बूँद-बूँद पेशाब आता है-जलन होती है ओर बार-बार पेशाब जाने की इच्छा बनी रहती है। यदि पथरी के कारण भीतर जख्म बन जाय और सूजन रहने लगे तो बुखार भी आने लग सकता है और उसका टेंपरेचर 103 से 104 तक हो सकता है।

यदि यह क्रम बहुत दिन चलता रहे तो गुर्दे गलने लगेंगे पर शरीर पर सूजन चढ़ आवेगी।

प्रकृति इन पत्थरों को स्वयं बाहर निकालती रहती है। यदि पानी पीने में कंजूसी नहीं की जाती तो वे छोटे होने की स्थिति में सहज ही बहकर निकल जाते हैं जब दर्द होता है तब तो प्रकृति उन्हें बलपूर्वक पकड़ कर बाहर धकेलने का विशेष प्रयत्न कर रही होती है यदि बहुत बड़े पत्थर नहीं हैं और शरीर की जीवनी शक्ति बहुत निर्बल नहीं हो गई है, तो बहुत बार वे इस दर्द के दौरान ही निकल जाते हैं। यह मान बैठना ठीक नहीं कि पथरी बिना आपरेशन के अच्छी हो ही नहीं सकती, अक्सर प्रत्येक बड़े दौरे के बार बहुत से पत्थर खुद ही निकल जाते हैं। दर्द बन्द होने का मतलब ही यह है कि उसे बड़ी अड़चन को या तो बाहर निकाल दिया गया या धकेल कर रास्ते से इधर-उधर खिसका दिया गया है।

स्मरण रखा जाना चाहिए कि बीमारियाँ अकारण नहीं आतीं। वे निमन्त्रण देने, अनुरोध करने और आने-जाने का पेशगी खर्चा जमा करने पर भी बड़े नाज-नखरे के साथ आती हैं और तभी तक ठहरती हैं जब तक उनके आवास-निवास की समुचित व्यवस्था बनी रहती है। यदि उन्हें विदा करना हो तो अपनी रीति-नीति बदलनी चाहिए। आहार विहार की विधि व्यवस्था में परिवर्तन करना चाहिए। वे अनायास ही बिना दवा-दारु के ही विदा हो जायेंगी।


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