वधू को गृहलक्ष्मी बनाया जाय

November 1975

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शास्त्रकारों ने वधू को पति कुल की दासी नहीं साम्राज्ञी कहा है। ऋग्वेद का एक मन्त्र है-

साम्राज्ञी श्वशुरम् भव, साम्राज्ञी श्वश्रूवाँ भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवसु।

अर्थात्-ससुर, सास, ननद, देवर आदि पर शासन कर सकने वाली बनो।

इसी अभिप्राय को व्यक्त करने वाला अथर्ववेद का एक मन्त्र है-

यथा सिन्धुर्न दीनाँ साम्राज्यं सुसवे वृषा। साम्राज्ञोधि श्वसुरेषु सम्राज्ञयेतु देवृषु॥

अर्थात्-अमृत वर्षा करने वाला समुद्र जिस प्रकार नदियों के आश्रित रहता है उसी प्रकार तुम (वधू) पति गृह जाओ और वहाँ साम्राज्ञी बन कर रहो।

साम्राज्ञी बनने का मतलब यहाँ अधिकार जताने, अंकुश लगाने, हुकूमत चलाने या प्रताड़ना देने से नहीं वरन् कर्तव्य और प्रेम के आधार पर अपने सद्गुणों से सब का मन अपने वश में कर लेने से है। अधिकार के शासन में आये दिन विद्रोह खड़े होते रहते हैं और सत्ताधीशों को पदच्युत होते देर नहीं लगती, पर कर्तव्य पालन प्रेम, उदारता सेवा के आधार पर जमाये हुए शासन की नींव बहुत गहरी होती है। शासित स्वेच्छापूर्वक स्नेह बन्धनों में बंधे रहते हैं। उनसे छूटने की इच्छा करना तो दूर पकड़ में तनिक सी शिथिलता आते देख कर भी तिलमिलाने लगते हैं।

यह शासन ऐसा है जिसमें माता के आधिपत्य में रहने से बालक कभी इनकार नहीं करता। प्रताड़ना देने पर भी उसी से लिपटता है और उपेक्षा देख कर उदास हो जाता है। पति और पत्नी के बीच का शासन भी ऐसा ही है वह दासी और मालिक जैसा नहीं वरन् स्वेच्छा समर्पण पर आधारित होता है और उभयपक्षीय चलता है। पत्नी अपने को पति का आश्रित मानती है और पति का मन भी ठीक उसी तरह पत्नी का शासन स्वीकार करता है। इसमें आधिपत्य का आग्रह कोई नहीं करता वरन् दोनों ही एक दूसरे से शासित रहने के कारण एक दूसरे को स्वामी अनुभव करते हैं।

यहाँ भक्त और भगवान जैसी स्थिति होती है। अपने को सर्वतोभावेन ईश्वर के प्रति समर्पित करने वाला अनुभव करता है कि ईश्वर ने अपने को भक्त के लिए समर्पित कर दिया है। मीरा, सूर, नरसी, सुदामा आदि सच्चे भक्तों का सेवकत्व भगवान ने स्वीकार किया था, यह एक तथ्य है। दाम्पत्य जीवन में पत्नी अपने को दासी और पति को स्वामी घोषित करती है। घोषणा से न सही व्यवहार में पति भी ठीक उसी स्तर की मान्यता रखता है। ऐसा ही उभयपक्षीय सघन स्नेह-सौजन्य होने पर मित्रता निभती है और दाम्पत्य जीवन का चरम सुख उपलब्ध होता है।

मात्र पति की ही नहीं उस पूरे परिवार को वधू अपने सद्भाव बन्धनों में बाँध लेती है, ओर बदले में उन सब का सघन सौजन्य प्राप्त करती है। इस स्थिति में दोनों पक्ष एक दूसरे के वशवर्ती बन जाते हैं। वधू संलग्न रहती है। अपने सद्गुणों से सब को मोहित किये रहती है। फलस्वरूप अनायास ही अनपेक्षित शासनसत्ता उसके हाथ में आ जाती है। वह सब को अपनी उंगली के इशारे पर नचाती है। सब उसका कहना मानते हैं। यह सब किसी जादू या अधिकार के आधार पर नहीं वरन् स्नेह सौजन्य भरे सेवा भाव द्वारा संभव होता है। वधू को इसी प्रकार की शासनसत्ता ग्रहण करने और साम्राज्ञी पद की अधिकारिणी बनने के लिए कहा गया है।

ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए सरस्वती जैसी उदात्त दूरदर्शिता अपनाने की आवश्यकता है। वधू को यही स्तर प्राप्त करने के लिए कहा गया है। अथर्ववेद की एक ऋचा है-

प्रतितिष्ठ विराडसि विष्णुरिदेह सरस्वति।

अर्थात्-हे पत्नी तू सरस्वती बन कर रह और इस घर की प्रतिष्ठा को विकसित कर।

घर की प्रतिष्ठा सुगृहिणी पर निर्भर है इस अभिप्राय को व्यक्त करने वाला शतपथ ब्राह्मण का एक सूत्र है-

गृहाः वै पत्न्ये प्रतिष्ठाः।

अथर्ववेद में पत्नी के स्तर के अनुरूप पूरे परिवार की सुबुद्धि का बढ़ना घटना निर्भर बताया गया है।

“यास्ते राके सुगतयः सुपेशसोयाभिर्दददसि”

ऋचा का भावार्थ यही है।

ससुर घर में रहते हुए वधू अपनी स्थिति एवं अनुभूति को इस प्रकार व्यक्त करती है-

अह केतुरह मूर्धादमुग्रा विवाचनी। भमेदनु क्रतु पतिः सहाना या उपाचरेत्

अर्थात्-मैं इस घर में मस्तक के समान प्रमुख हूँ। मैं अपने पति के विचारों को प्रभावित करती हूँ। मैं उनके साथ विचारों का आदान-प्रदान करती हूँ। वे मुझे मान देते हैं और सहयोग करते हैं। मेरी इच्छानुकूल व्यवहार करते हैं।

इस प्रकार का सर्वोच्च सम्मान का पद और अधिकार पाने के लिए नारी कोई राजकीय या सामाजिक व्यवस्था का सहारा नहीं लेती वरन् अपनी योग्यता, कुशलता, व्यवस्था और दूरदर्शिता जैसे सद्गुणों के आधार पर उस पूरे परिवार की समुचित सेवा साधना करके यह स्नेह ओर सम्मान भरा अनायास ही प्राप्त कर लेती है।

इस स्तर की वधू जिस घर में हो उसके सौभाग्य का सूर्योदय हुआ ही समझना चाहिए। उस घर में स्नेह, सौजन्य का, उल्लास-उत्साह का, समृद्धि, प्रगति का वातावरण बना रहता है। उसमें रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को सुखी सन्तुष्ट अनुभव करता है।

ऐसी पत्नी तलाश करने पर कहीं बनी बनाई नहीं मिलती। वह बनाई जाती है। पूर्वजन्मों के कुछ संस्कार लेकर आने वाला नवजात शिशु जिस घर में जन्म लेता है वहाँ के संस्कारों के साथ अपने आपको घुलाता है। पिछले ओर नये संस्कारों के समन्वय से उसका व्यक्तित्व बनता है। ठीक इसी प्रकार पिता के घर से संस्कार लेकर आने वाली वधू ससुराल के वातावरण के साथ अपना समन्वय करती है और उसका नया व्यक्तित्व बनता है। इस नव-निर्माण में पति का सब से अधिक योगदान रहता है। वह पत्नी को पूर्ण विश्वास, आश्वासन, स्नेह एवं सहयोग प्रदान करे तो उसके स्वभाव एवं क्रिया-कलाप को उच्चस्तरीय ढाँचे में ढाल लेता सकता है। पितृ गृह से अच्छे स्वभाव की आई हुई लड़की भी पति गृह के अवाँछनीय वातावरण से खीज कर खिन्न, उदास एवं विद्रोही स्वभाव की बन सकती है। सुगृहिणी कदाचित ही बनी बनाई कहीं किसी को मिलती है। उसे गढ़ना और ढालना पड़ता है, इसके लिए पति को कुशल शिल्पी की भूमिका विशेष रूप से निबाहनी पड़ती है। यों इस प्रयास में सहयोग तो पूरे परिवार का अपेक्षित रहता है।

विवाह के पुण्यपर्व पर पति अपनी पत्नी को विकासोन्मुख स्नेह, सहयोग का आश्वासन देते हुए कहता है-

गृहणामि ते सौभ्गत्वाय हस्तं भया पत्या जरदष्ठिर्द्यथासः। भगोर्यमा सविता पुरन्धिमह्य त्वा दुर्गाह पन्था देवाः।

अर्थात्-भद्रे, इस पुण्य पर्व पर मैं देवताओं की साक्षी में तुम्हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूँ। आजीवन तुम्हारा सहयोगी बनकर रहूँगा। गृहस्थी के संचालन का उत्तरदायित्व तुम्हारे हाथ में सौंपता हूँ।

पति, पत्नी को भार नहीं मानता और न यह अहंकार करता है कि वह उसका पालन-पोषण करेगा। जन्म देने वाला ओर पालन करने वाला तो परमेश्वर है। मनुष्य तो एक दूसरे के साथ कर्तव्य और सहयोग भरा सद्व्यवहार कर सके तो इतना ही उसके लिए बहुत है। पति एक सुयोग्य आत्मा का सहयोग पाकर अपने आपको धन्य मानता है और उस उपलब्धि से

अपने को कृतकृत्य हुआ अनुभव करता है। वह कहता है-

अमोअमास्मि मात्वम् मात्वपास्ययोअहम्। समाहममास्तिम ऋक् त्वं द्योरह पृथ्वीत्वम्।

अर्थात्-तुम मूर्तिमान लक्ष्मी हो। मैं तुम्हारे बिना एकाकी, अपूर्ण और दरिद्र था। भद्रे, अब हमारा सम्मिलित जीवन साम और स्वर की तरह गूँजेगा और धरती तथा आकाश की तरह सुविस्तृत होगा।

ऐसे घनिष्ठ सहयोग का सच्चा आश्वासन ही विवाह की सफलता का आधार बनता है। उसी विश्वास के आधार पर पत्नी के अन्तःकरण की कली खिलती है और सुरभित पुष्प जैसे परिष्कृत व्यक्तित्व में परिणत होती है।

शास्त्रकार का कथन है-

तवेहि विवहाव है सहरेती दधाव है।

अर्थात्-दाम्पत्य जीवन में बंधी हुई आत्माएं कभी एक दूसरे से विलग नहीं।

मतभेद और असन्तोष उत्पन्न करने वाले कारण सहजीवन में आते ही रहते हैं। उन्हें विचार विनिमय से सुलझाया जाय और जो न सुलझ सके उन्हें सहिष्णुता पूर्वक सहन किया जाय? पर यह न सोचा जाय कि किन्हीं छोटे बड़े मतभेदों के कारण एक दूसरे का साथ छोड़ देंगे। दिये हुए विश्वास की रक्षा हर हालत में होनी चाहिए। मित्र के लक्षण ही यह हैं कि गुणों पर ध्यान दें और अवगुणों को सुधारते-सहन करते किसी प्रकार गाड़ी को आगे धकेलता रहे। पूर्ण गुणवान तो केवल परमात्मा है, मनुष्य में कुछ तो त्रुटियाँ रहती हैं। सर्वगुण सम्पन्न होने की अपेक्षा करना और तनिक से दोष को भी सहन न करना ऐसी भूल है जिसके कारण खाई उत्पन्न होती रहती है और दाम्पत्य जीवन निरानन्द बन जाता है।

विवाह की सफलता का आधार आत्मीयता की गहरी पुट ही हो सकती है। जहाँ दो शरीरों में एक आत्मा रहने की भावना होगी, वहाँ एक दूसरे के दोष दुर्गुणों को सुधारते-सहते उस स्नेह सौजन्य को सीचेंगे जिसके सहारे पारस्परिक विश्वास अटल रहता है और ममत्व निरन्तर सघन होता चला जाता है। इन्हीं भावनाओं की निरन्तर अभिवृद्धि के लिए विवाह के समय दोनों मिलकर भगवान से प्रार्थना करते हैं-

ते सन्तु जरदष्टयः सम्प्रियी रोगिष्ण सुमनस्य मानी।

अर्थात्-हम एक दूसरे को अत्यन्त सौंदर्य युक्त देखें। परस्पर भरपूर प्रेम बंधनों से बंधे रहें। हम एक दूसरे का मंगल ही चाहें।

सुगृहिणी किसी परिवार का सबसे बड़ा सौभाग्य है। उसी आधारशिला पर वे भव्य भवन खड़े होते हैं जिनमें निवास करते हुए परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वर्गीय आनन्द का अनुभव करता है। वधू मात्र अपने पति की पत्नी ही नहीं होती वरन् वह पुत्रवधू, देवरानी, जिठानी, भावज, चाची आदि भी होती है और समयानुसार उसे मामी, नानी, सास, माता, दादी भी बनना पड़ता है। इन संबन्धों के माध्यम से वह सम्बन्धित अनेक व्यक्तियों को प्रभावित करती है। यह प्रभाव यदि उच्चकोटि का हो तो उसे उन सभी के चरित्र एवं व्यक्तित्वों को सुसंस्कृत बनने का अवसर मिलता। सुगृहिणी का भाव भरा मानसिक स्तर संपर्क क्षेत्र की परिधि में आने वाले हर किसी के व्यक्तित्व को सींचता है। और उसे सुविकसित बनाने के सहज अनुदान देता है।

खीज और खिन्नता ने जिसकी सक्रियता नष्ट की होगी वह गृहणी अपनी गति-विधियों से घर की आर्थिक स्थिति के इस प्रकार संभाले रहती है जिसमें स्वल्प आजीविका रहते हुए भी दरिद्रता का अनुभव न हो। सुरुचिपूर्ण दृष्टिकोण और स्फूर्ति उत्साह के समन्वय से घर की व्यवस्था और सुसज्जा देखने योग्य ही बनी रहती है। बच्चों से लेकर वृद्धों तक उससे सम्मान और सहयोग पाकर कृतकृत्य बने रहते हैं। पति के लिए तो दो शरीरों में दो मस्तिष्क और दो हृदयों की मिली-जुली शक्ति का असीम आनन्द और अनुपम लाभ प्राप्त करने का सौभाग्य मिलता है। पर यह सौभाग्य मिलता उन्हीं को है जो वधू को समुचित स्नेह, सम्मान एवं सहयोग देकर उसका हृदय जीतते हैं और उस स्थान पर प्रतिष्ठित करते हैं जहाँ पहुँचने पर कोई भी विचारशील लड़की गृहलक्ष्मी सिद्ध हो सकती है। ऐसी सुगृहिणी किसी को बनी बनाई नहीं मिलती वह प्रयत्न पूर्वक बनानी पड़ती है।


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