कल्पना नहीं तत्परता सफल होती है।

November 1975

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सफलताएँ अनायास ही उत्पन्न नहीं होती, उन्हें क्रियाशीलता की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। यह क्रिया भी अकारण उत्पन्न नहीं होती, उसके पीछे इच्छा शक्ति की प्रबल प्रेरणा काम कर रही होती है। सरल शब्दों में कहें तो इच्छा से क्रिया-क्रिया से साधन और साधन से परिस्थिति का क्रम चल रहा दिखाई पड़ेगा।

बड़ी-बड़ी सफलताएँ चाहने के लिए न जाने कौन-कौन कितने-कितने सपने देखता रहता है। सोते में चित्र-विचित्र स्वप्नों की कथाएँ जगने पर कई लोग सुनाते हैं और जागृत अवस्था में अपने असफल अरमानों का संजोया हुआ श्मशान देखते दिखाते हैं। उन्हें दुख होता है कि इतनी मनोकामनाएँ उनने संजोई पर एक भी पूरी न हुई। इन दिवास्वप्न देखने वालों को-निशास्वप्न देखने वालों की पंक्ति में बिठाया जा सकता है। अन्तर इतना ही होता है कि सपने में राजा बनने और बाद में गद्दी छिन जाने का जागने पर उतना दुख नहीं होता, जितना कि अरमानों के महल खड़े करने वालों को उनके विस्मार हो जाने का होता है।

कल्पनाओं की उपयोगिता तो है, पर उससे दिशा मिलने मात्र का प्रयोजन सिद्ध होता है। सोचने भर से चाही वस्तु मिल जाना सम्भव नहीं। उसके लिए साधन जुटाने होते हैं और परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी पड़ती हैं। इसके लिए प्रचण्ड पुरुषार्थ करने की आवश्यकता पड़ती है। बिना थके, बिना हारे चलते रहने और कठिनाइयों से पग-पग पर जूझने का साहस ही लम्बी मंजिल पूरी करा सकने में सफल होता है। उचित परिश्रम के मूल्य पर भी अनुकूलताएँ उत्पन्न होती हैं और उन्हीं के सहारे सफलताओं की सम्भावना दृष्टिगोचर होती है। यह अथक परिश्रम व साहस भरे संकल्पों पर निर्भर है। देर तक टिका रहने वाला और प्रतिकूलताओं से जूझने वाला साहस ही संकल्प कहलाता है। कल्पना से नहीं संकल्प शक्ति से मनोरथ पूरा करने की परिस्थितियाँ बढ़ती हैं।

बच्चे भविष्य के मधुर सपने देखने में निरत रहते हैं। बूढ़ों को भूतकाल की स्मृतियों में उलझे रहना सुहाता है किन्तु तरुण को वर्तमान में जूझना पड़ता है। बच्चों को स्वप्नदर्शी कहते हैं, वे कल्पनाओं के आकाश में उड़ते हैं और परियों के साथ खेलते हैं। मनोरथ रचने वाले और सहज ही उनको सिद्ध सामने खड़े देखने वाले मानसिक दृष्टि से ऐसे बालक हैं जिनकी आयु भर बड़ी हुई है मनःस्थिति पूर्णतया बचकानी है। यहाँ सपनों का कोई मोल नहीं। संसार के बाजार में पुरुषार्थ का सिक्का चलता है। पुरुषार्थ से योग्यता भी बढ़ती है और साधन भी जुटते हैं। इन दुहरी उपलब्धियों के सहारे ही प्रगति के पथ पर दो पहियों की गाड़ी लुढ़कती है। स्वप्नों के पंख लगाकर सुनहरे आकाश में दौड़ तो कितनी ही लम्बी लगाई जा सकती है, पर पहुँचा कहीं नहीं जा सकता।

ऊँची उड़ाने उड़ने की अपेक्षा यह अच्छा है कि आज कि स्थिति का सही मूल्याँकन करें और उतनी बड़ी योजना बनायें जिसे आज के साधनों से आज पूरा कर सकना सम्भव है। कल के साधन बढ़े तो कल्पना को विस्तार करने में कुछ भी कठिनाई न होगी। मंजिल एक-एक कदम उठाते हुए पूरी की जाती है। लम्बी छलाँग आश्चर्य भर उत्पन्न करती है मंजिल तक नहीं पहुँचाती। कल्पना की समीक्षा करें और उन्हें आज की परिस्थिति के साथ चल सकने योग्य बनायें। गुण, दोषों का-सम्भव-असम्भव का भली प्रकार विचार करें। पक्ष-विपक्ष का ध्यान रखते हुए जो विवेकपूर्ण निर्णय किया जाय, उसे पूरा करने के लिए अटूट साहस और प्रबल पुरुषार्थ के लिए जुट पड़ा जाय-तो विश्वास किया जा सकता है कि सफलता का वृक्ष अपने समय पर अवश्य ही फूलेगा और फल देगा।


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