विज्ञान और अध्यात्म साथ-साथ ही बढ़ेंगे

November 1975

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जीवन की दो दिशाएँ हैं-एक अन्तर्मुखी दूसरी बहिर्मुखी। बाह्य जीवन में अन्न, वस्त्र, निवास एवं अन्याय सुख-साधनों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है और अन्तः जीवन में अपनी वृत्तियों-प्रवृत्तियों का अन्वेषण करके उन्हें परिष्कृत किया जात है। अन्तर्मुखी जीवन की अध्यात्म के नाम से व्याख्या की जाती है और बहिर्मुखी प्रयोजनों को विज्ञान नाम से जाना जाता है।

यों भौतिकवाद और अध्यात्मवाद को अलग-अलग माना जाता है और उनके प्रयोग, प्रयोजन भिन्न-भिन्न रूप से प्रस्तुत किये जाते हैं, पर वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे के साथ इतने घुले-मिले हैं कि एक को दूसरे से सर्वथा भिन्न कर देना उससे भी कठिन है जितना कि रक्त के जलीय एवं शुष्क अंशों को पृथक करके उन्हें अपने मूल रूप में बनाये रहना।

दोनों एक ही दिशा में चल रहे हैं-अज्ञान से छूटकर ज्ञान भूमिका में अधिकाधिक गहराई तक प्रवेश करते जाना दोनों का लक्ष्य है। दोनों सत्य की-परम सत्य की खोज में निरत हैं। कर्मक्षेत्र पृथक होते हुए भी वे एक ही उद्देश्य की पूर्ति में निरत हैं। दोनों सम्भवतः समकालीन भी हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार ईसा से कोई दो लाख वर्ष पहले मनुष्य ने वैज्ञानिक अनुसंधान आरम्भ कर दिये थे। समय का ज्ञान, वाणी के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान, आग का उत्पादन-उपयोग, आखेट के दाव-पेंच, कृषि, पशु पालन, आच्छादन, भोजन सम्बन्धी सुविधाएँ, परिवार संरचना जैसे प्रयोग आरम्भ कर देने और उन्हें क्रमशः आगे बढ़ाते चलने के कारण ही शारीरिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ होने पर भी वह अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक समर्थ बन सका। धरती की सम्पदा और प्राणियों पर अपना अधिकार जमा सकने में समर्थ हुआ।

विज्ञान अपने क्रम से विकसित होता चला गया। अब इसकी अनेकानेक धाराएँ होता है। इन्हें मोटेतौर से तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। (1) भौतिकी (2) रसायन (3) प्राणि विज्ञान। चाहें तो गणित की भी एक वर्ग में गिन सकते हैं।

अब हम विज्ञान की मोटी सतह पार करके बारीकी के क्षेत्र में चल रहे हैं। अब पदार्थ के ठोस, द्रव और वाष्प को तीन रूप में बताकर काम नहीं चल सकता। अब शब्द, प्रकाश, ऊर्जा आदि की व्याख्या को करने के लिए तत्वों और योगिकों को भी समझना समझाना पड़ता है। परमाणु की भीतरी संरचना और हलचलों को जानना होता है। अब पंचतत्व कहकर सृष्टि की सरल व्याख्या कर सकना अपर्याप्त है। अब तक 104 तत्व ढूंढ़े जा चुके हैं। इनमें से 20-21 तो अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। आक्सीजन, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन, सिलीकॉन, क्लोरीन, ब्रोमीन, आयोडीन, कैल्शियम, मैग्नेशियम, सोडियम, फास्फोरस, लोहा चाँदी, ताँबा आदि उन प्रमुख तत्वों में से है जिनके आधार पर हमारे सुपरिचित पदार्थों की संरचना सम्भव हो सकी है। इन्हीं के संयोजन-वियोजन से पानी जैसी अनेक जीवनोपयोगी वस्तुएँ बनी है।

रसायनों का दो वर्गों में विभाजन किया जाय। मिट्टी, पत्थर, नमक, लोहा आदि निर्जीव और वनस्पति, माँस, खाद आदि सजीव। प्राणी जगत इसी वर्ग में आता है। प्रयोगशालाओं में सजीव तत्वों का संयोजन विघटन तो किया गया है किन्तु नये जीव का रासायनिक अभिक्रियाओं के सहारे नया उत्पादन सम्भव नहीं हो सका। सम्भवतः हो भी नहीं सकेगा। इस संदर्भ में विज्ञान पिछली शताब्दी में पूरी शक्ति के साथ माथापच्ची कर चुका है और अब किसी अज्ञात और संव्याप्त ‘लाइफ फोर्स’ की ऐसी उपस्थिति स्वीकार करने लगा है, जो पदार्थ की तात्विक परिधि से ऊपर की चीज है।

फिर भी उसे पदार्थ से सर्वथा भिन्न नहीं किया जा सकता। वह उससे संव्याप्त है और प्रयत्न करने पर पदार्थों के अमुक संयोग से-अमुक मात्रा में उत्पन्न की जा सकती है। इस प्रकार जड़-चेतन की मर्यादा एवं भिन्नता यथावत रहते हुए भी यह विचित्र संभावना बनी ही हुई है कि जड़ भी एक सीमा तक चेतना की सम्भावनाएँ अपने भीतर सँजोये हुए है। अमोनिया सायनेट का परीक्षण करते हुए जब उसके साथ रासायनिक सम्मिश्रण होने पर ‘यूरिया’ बन गया तो जड़ चेतन की दीवार बहुत झीनी पड़ गई। ‘यूरिया’ प्राणियों के मूत्र में पाया जाने वाला एक पदार्थ है जो खाद के काम आता है और उसे जैविक पदार्थों की श्रेणी में गिना जाता है।

तत्वों और योगिकों का सुविस्तृत ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत भी कुछ गुत्थियां ऐसी हैं जो किसी प्रकार सुलझने में नहीं आतीं। उदाहरण के लिए चीनी में पाई जाने वाली मिठास को ही लेते हैं। चीनी का वैज्ञानिक विश्लेषण यह है कि उसके एक अणु में कार्बन के 12, हाइड्रोजन के 22 तथा आक्सीजन के 11 परमाणु होते हैं। इनमें एक भी मीठा नहीं है। इन्हीं तीनों पदार्थों के सम्मिश्रण में अणुओं की संख्या का थोड़ा-थोड़ा अन्तर कर देने से अन्य कई ऐसे पदार्थ बन जाते हैं। जिनके गुण, धर्म एक दूसरे से सर्वथा भिन्न रहेंगे। ऐसी दशा में चीनी में मिठास कहाँ से आई? यह गुत्थी बिना सुलझी ही रह जाती है।

इसका नया समाधान अन्तरिक्ष की स्थिति का परमाणुओं पर पड़ने वाले प्रभाव के रूप में खोजा गया है। यह अन्तरिक्ष की स्थिति एक नया सिरदर्द है। इसे भी ‘लाइफ फोर्स’ की तरह अनबूझ पहेली ही मान लिया गया है। अणु विश्लेषण तक पहुँच जाना भी विज्ञान की बड़ी सफलता है, पर अब उसे अधिकाधिक गहराई में प्रवेश करने पर ‘अन्तरिक्ष की विशिष्ट स्थिति’ और ‘लाइफ फोर्स’ की शोध में प्रवेश करते हुए भारी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है कारण कि उस क्षेत्र में यान्त्रिकी साथ नहीं दे रही है। ऐसे उपकरण बन नहीं पा रहे हैं जो इन दोनों महान अस्तित्वों के सम्बन्ध में जानकारी दे सकने में सहायक हो सकें।

रसायन-शास्त्र अब भटकते-भटकाते इस मान्यता पर पैर जमा सका है कि पदार्थ में कोई गुण नहीं है। अन्तरिक्ष में परमाणुओं की स्थिति ही उसमें पाये जाने वाले गुणों के लिए उत्तरदायी है। पदार्थ तो मात्र धारक एवं वाहक है। पदार्थ पर किसी गुण, धर्म का आरोपण व्यर्थ है। उसकी सारी विशेषताएँ अन्तरिक्ष की स्थिति का उन पर पड़ने वाले प्रभाव के ऊपर निर्भर है।

पुरानी मान्यता यह थी कि कोई पदार्थ नष्ट नहीं होता। उसका रूपांतरण होता रहता है जैसे प्रवाही जन ठंडक से बर्फ और गर्मी से भाप बन जाता है और सामान्य ताप में फिर प्रवाही दिखाई पड़ता है। उसकी स्थिति और उपस्थिति किसी न किसी रूप में बनी ही रहती है। यह पुरानी मान्यता अब निरस्त हो गई है। अणु विखण्डन, से उस फटने वाले अणु की सत्ता एक प्रकार से सदा-सर्वदा के लिए समाप्त हो जाती है भले ही उसके कारण अन्य हलचलें कितनी ही क्यों न होती हों।

इसी प्रकार ऊष्मा, प्रकाश, विद्युत, ध्वनि चुम्बकत्व आदि अनेक ऊर्जाएँ ज्ञात होने के उपरान्त उनके स्वतंत्र सत्तावान होने की जो मान्यता थी, वह भी अब लगभग समाप्त हो गई है। ऊर्जाएँ एक दूसरे से परिवर्तित हो सकने की बात पिछले दिनों सिद्ध हो गई। अब अणु जगत की मूल इकाई नहीं रहा वरन् वह श्रेय ऊर्जा प्रवाह को मिल गया है। अब यह जगत ऊर्जा का एक पुँजीभूत रूप भर रह गया है। उसे परमाणु समुच्चय कहना पिछड़ी हुई पुरातन व्याख्या कहा जायगा।

परमाणु संरचनाओं में इलेक्ट्रान और प्रोट्रान लगभग एक ही जाति के होते हैं। मात्र उनकी संख्या में थोड़ा सा अन्तर होता है उतने भर से नये तत्व बन जाते हैं। एक इलेक्ट्रान और एक प्रोट्रान के मिलन से हाइड्रोजन का परमाणु बनता है और यदि वे दो-दो हो जायं तो हीलियम का परमाणु बन जायगा। यह कैसा विचित्र संयोग है। इससे प्रतीत होता है पदार्थ की मूल सत्ता का अपना कोई मौलिक गुण नहीं है। संख्या, भेद और मिलन क्रम ही सब कुछ है।

लगता है यह सारा जगत ऊर्जा मात्र है। ऊर्जा के दो वर्ग हैं एक धन दूसरा ऋण, इन्हें परा और अपरा प्रकृति के नाम से तत्त्ववेत्ताओं ने कहा है। यह विश्व शक्ति रूप है उसकी स्फुरणा से विभिन्न हलचलें यहाँ होती रहती हैं।

विज्ञान हठीला नहीं है। उससे अपनी पिछली भूलें स्वीकार करने में तनिक भी आपत्ति नहीं हुई है। जब भी अधिक प्रखर प्रतिपादन सामने आये हैं तब उसने पिछली बहुचर्चित और बहुप्रचलित मान्यताओं को बिना अनुनय किये खुशी-खुशी बदल लिया है। ऐसा न होता तो विज्ञान भी एक सम्प्रदाय बन जाता और उसके उत्तराधिकारी अपने गुरुओं की यश-गाथाओं और उक्तियों को शाश्वत सत्य कहकर रूढ़िवादी अन्ध परम्पराओं के लिए आग्रह करते रहते, पर ऐसा हुआ नहीं है। होना भी नहीं चाहिए था।

किसी समय के देवज्ञ पृथ्वी को चपटी मानते थे। ज्योतिष की गणना में चन्द्रमा नवग्रहों की बिरादरी का एक पूर्ण ग्रह है। आँखें जो कुछ दिखाती हैं वह सब कुछ सही नहीं है। खुली आँख से लोहे की चद्दर पूरी तरह ठोस दिखाई पड़ती है, पर एक्सरे के चित्र बताते हैं कि उसमें स्पंज की तरह छेद हैं। अणु को पदार्थ की सबसे छोटी इकाई माना जाता रहा है, पर अब वह एक समूचा ब्रह्माण्ड है जिसमें अनेक सौर-मण्डल अपनी धुरी और कक्षा में भ्रमण करते हुए पाये गये हैं। उस्तरे की धार-सामान्यतया बिलकुल सीधी दिखाई पड़ती है, पर माइक्रोस्कोप बताता है उसमें तिरछी लहरियाँ भरी पड़ी हैं। चलचित्रों में तस्वीरें भागती, दौड़ती मालूम पड़ती हैं, पर वस्तुतः वह आँखों की भ्रम ग्रस्तता मात्र है। फिल्म अपनी चरखी पर इतनी तेजी से घूमती है कि आँखों की दृश्य शक्ति उन्हें उतनी तेजी से मस्तिष्क को आभास नहीं करा पाती, फलतः नेत्रगोलक और मस्तिष्क दोनों ही धोखा खाकर चलचित्रों में भगदड़ के दृश्य देखते हुए भ्रमग्रस्त बने रहते हैं।

जीवन संचालन अवयवों में ‘हार्ट’ बौर ‘ब्रेन’ का उल्लेख विशेष उत्साह के साथ किया जाता है, एक दूसरे से अविच्छिन्न रूप से संबद्ध और जीवन के लिए उत्तरदायी बताये जाते हैं। किन्तु देखा गया है कि हृदय के बन्द हो जाने पर कृत्रिम पंपिंग करके रक्त संचार जारी रखा जा सकता है और मस्तिष्क क्रियाशील रह सकता है। इसी प्रकार मस्तिष्क को मूर्च्छित कर दिने पर भी हृदय चालू रह सकता हे। दोनों के सहयोग का महत्व अवश्य है, पर इस संयोग पर ही जीवन निर्भर नहीं है। योगियों द्वारा ली जाने वाली समाधि में तो मस्तिष्क एवं हृदय दोनों ही लगभग अवरुद्ध स्थिति में पहुँच जाते हैं-सघन शीत से शरीर को जमा देने पर भी उसमें जीवन बना रहता है। अस्तु शरीर के अमुक अवयवों को जीवन के लिए उत्तरदायी ठहराने से भी काम नहीं चलता। भले ही वे अवयव कितने ही महत्वपूर्ण क्यों न हों।

वस्तुतः ‘ब्रेन’ और ‘माइण्ड’ में स्तरीय अन्तर है। ब्रेन को ‘मस्तिष्क’ कह सकते हैं और माइण्ड को ‘मानस’। मस्तिष्क शरीर का विकास क्रम के साथ जुड़ा होने के साथ-साथ वह आयु के साथ-साथ घटी और बढ़ी स्थिति में पहुँचता है। उसका विकास मेमोरी स्मरण शक्ति और एनवाइरनमेन्ट-इन्द्रियों की साँसारिक अनुभूति है। मानस भावना प्रधान है। उसे विवेक कहा जा सकता है। उसकी परिष्कृत स्थिति प्रज्ञा कहलाती है। उपनिषद्कार ने इस क्षेत्र की सुविकसित स्थिति को ऋतम्भरा, भूमा आदि नामों से सम्बोधन किया है। इसे कान्शसनेस अन्तःकरण कह सकते हैं। इन दोनों के समन्वय को ही चेतन सत्ता माना गया है।

मृत्यु के आघात से ब्रेन नष्ट हो जाता है किन्तु मानस बना रहता है, यही सूक्ष्म शरीर या प्राण है। मानस का कलेवर, आवरण एवं उपकरण मस्तिष्क है। उसे ऊपरी परत कह सकते हैं। सेल-कोशिका तथा उसका रासायनिक ढाँचा नष्ट होने से शरीर का क्रियाकलाप रुक जाता है किन्तु मानस नहीं मरता। हवा से पेड़-पौधे जीवित रहते हैं। वह उनमें जीवन संचार करती है किन्तु पौधों के मर जाने पर भी हवा जीवित रहती हे। ब्रेन को पौधा और माइण्ड की शृंखला इस मानस के साथ जुड़ी रहती है। परलोक और पुनर्जन्म के चक्र में यह मानस ही परिभ्रमण करता रहता है।

इसे प्राण अथवा जीव भी कह सकते हैं, यों जीव सत्ता की मूल स्थिति इससे भी कहीं अधिक गहरी है। यह मानस भी उसका एक वैसा ही कलेवर है जैसा कि मानस का मस्तिष्क।

मानस का निवास शरीर में कहाँ हो सकता है? क्या वह मस्तिष्क की परिधि में ही अवरुद्ध है? इसका उत्तर अध्यात्मवादी, सूक्ष्मदर्शी बताते हैं कि यदि अन्तःकरण का किसी शारीरिक केन्द्र से विशेष सम्बन्ध जोड़ना हो तो वह वेगस नर्व-सुषुम्ना-ही हो सकता है। यद्यपि वह दूध में घी की तरह सम्पूर्ण चेतना में-समस्त शरीर में-किसी न किसी रूप में संव्याप्त है। साइनो आरीक्युलर नोड-प्राण ऊर्जा-प्रत्येक कोशिका को जीवित रखती है। शारीरिक विश्लेषण करने पर उसे ओषजन और पोषक तत्वों का सम्मिश्रण कह सकते हैं। मेड्यूला और हाइपोथैल के बीच साइनोआरिक्युलर नोड-एस॰ ए॰ एन॰ का स्थान सुरक्षित है। इसका संचालन केन्द्र मूर्धा का वह स्थल है जो उन दोनों को परस्पर जोड़ता है। इसे सुषुम्ना कह सकते हैं। यहीं से मूलतः समस्त शरीर का संचालन कह सकते हैं। यहीं से मूलतः समस्त शरीर का संचालन और शासन होता है। मन के बदलते हुए भावों की हलचल यहीं से संचालित होती है। इस सुषुम्ना केन्द्र पर हारमोनों का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सच तो यह है कि इसी केन्द्र से विभिन्न हारमोन ग्रन्थियों को प्रेरणाएँ मिलती हैं और वे तद्नुरूप स्राव निसृत करते हैं। हारमोनों की सिम्पेथेटिक संवेदनशील स्फुरणाएँ इसी सुप्रारीनल शासन केन्द्र से उत्पन्न होती हैं। इसे जीवसत्ता का शरीरगत केन्द्रस्थल कहा जा सकता है।

दिव्यदर्शियों का कहना है कि सुषुम्ना-बेगस और मूर्धा-मेड्यूला हाइपोथैलेमस के बीच एक हाथ के अँगूठे के बराबर विस्तार वाला जो स्थान है वही उस अव्यक्त प्राण ऊर्जा का स्रोत केन्द्र है। आत्मा का उद्गम वही है यों वह समस्त मस्तिष्क में संव्याप्त है और वहाँ से सुविस्तृत होकर काया के कण-कण में गतिशील है।

कणोंपनिषद् में आता है-वह अंगुष्ठ मात्र परिणाम का आत्मा संपूर्ण शरीर में संव्याप्त है। उसी का शासन है। वह निर्धूम ज्योति की तरह दीप्तिमान है। वही इस शरीर रथ का सारथी हे।

शरीर विज्ञान, फिजियोलॉजी और मनोविज्ञान, साइकोलॉजी के अनुसार भी मन और अहम् का अन्तर स्पष्ट रूप से बताया गया है। इन्द्रिय सम्बन्धित निम्न स्तरीय स्नायु मंडल-लोअर नर्वस सिस्टम कहलाता है। इसी में इन्स्टिक्ट, रिफ्लेक्सएक्शन आदि सम्मिलित हैं। यह मन अथवा चित्त भाग हुआ। अहम्-अन्तःकरण इससे भिन्न है, बुद्धि एवं विवेक उसके गुण हैं। भावनाएँ इसी केन्द्र से उद्भूत होती हैं। ईगो-सुपर-ईगो-को इसी से सम्बन्धित माना जा सकता है।

विज्ञान आगे बढ़ रहा है और वह प्रकृति के रहस्यों पर से एक-एक करके चढ़े हुए आवरण उतारता जा रहा है। भौतिक जगत की रहस्यमयी उपलब्धियाँ उसे मिल रही हैं। शोध की यह प्रवृत्ति हमें सत्य के अधिकाधिक समीप पहुँचा रही है। इस दिशा में चलते हुए अध्यात्म उपेक्षित नहीं कर सकता क्योंकि विज्ञान की अपेक्षा सत्य के अधिक निकट है। अणुओं की चलसत्ता, अचल पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है इसलिए उसे तो एकबार असत्य, भ्रामक और माया की कह सकते हैं, पर चेतना के लहलहाते हुए समुद्र को आँख से ओझल कैसे किया जाय? जिसकी लहरों का प्रतीक मनुष्य अपनी अद्भुत सत्ता का परिचय स्वयं ही दे रहा है। सत्य की शोध ने ही विज्ञान के क्षेत्र में सफलताएँ प्रस्तुत की हैं और उसी राह पर चलते हुए हम अध्यात्म की चमत्कारी शक्ति का भी दर्शन तथा अवगाहन करेंगे।

मनुष्य के व्यक्तित्व को परखने के लिए दो देवदूत आते हैं-एक का नाम है संकट दूसरे का वैभव। संकट हमारे धैर्य, पुरुषार्थ ओर साहस को जाँचता है। वैभव उदारता, नम्रता और संयम को खोजता है। जो दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो गया वह महामानव बनकर रहेगा।


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