सिगरेट जिसने मार्कवाटर्स को कैंसर के द्वार तक पहुँचाया

November 1975

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‘आज मेरी स्थिति बहुत खराब है। ठीक तरह से साँस लेने में भी मुझे कष्ट होता है। पलंग पर से उतर कर शौचालय तक जाना भी मेरे लिए मुश्किल है। ऐसा लगता है कि मेरा समय अब बिलकुल निकट है। मेरे जीवन के श्वाँस शीघ्र ही पूरे होने वाले हैं। ईश्वर करे मुझ जैसी बुरी दशा आप में से किसी की न हो।’ इन शब्दों में कितनी आन्तरिक वेदना है? कितनी मर्म भेदी पीड़ा है? यह शब्द मृत्यु से एक दिन पूर्व मार्क वाटर्स ने अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों तथा परिचितों से कहे थे।

मार्क वाटर्स की विवशता इस कथन से स्पष्ट झलक रही है, पर इस दुर्दशा तक पहुँचाने का श्रेय धूम्रपान की बुरी आदत की है।

मार्क की आयु जब 14 वर्ष से अधिक न थी- वह अपने पिता के कोट की जेब में से सिगरेट निकाल कर पीने लगा था। वह सोचता जब मेरे पिताजी अपने परिश्रम की गाढ़ी कमाई इस व्यसन पर खर्च करते हैं तब तो सिगरेट जरूर कोई अच्छी चीज होगी और उसने छिपे कश लगाने शुरू कर दिये।

सिगरेट पीने से प्रारम्भ में मार्क के हृदय में जलन होती थी, पर निरन्तर पीते रहने से इस कष्ट का अनुभव बाद को नहीं हुआ। पिता की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। सारे खर्चों में वह कटौती करने लगे। सिगरेट पीना कम कर दिया और अब कोट की जेब में सिगरेटें गिन कर रखी जाने लगीं। ऐसी स्थिति में सिगरेट चुराना बड़ा कठिन कार्य था। अतः वह अपने एक मित्र के साथ सड़क पर पड़ी हुई झूठी सिगरेटों को बीनकर एकत्रित करने लगा। उन सिगरेटों की तम्बाकू निकाल ली जाती और पतले कागज में उसे भरकर अपने हाथ से सिगरेट बनाई जाती।

संयोग से शिक्षा समाप्ति के बाद मार्क की नौकरी सिगरेट की कम्पनी में लगी। अब वह सिगरेट के और अधिक समीप आ गया था। यहाँ उसे किसी बात का डर नहीं था, न कोई देखने वाला था और न कुछ कहने वाला। अतः उसने दिन भर में दो पैकेट सिगरेट फूँकने शुरू कर दिये। इसी बीच उसकी नौकरी नौसेना में लग गई। अब उसके पास पैसा खूब था। ऐसी स्थिति में होना तो यह चाहिए था कि उस पैसे का सदुपयोग होता वह अपने तथा पत्नी के स्वास्थ्य का निर्माण में उसे खर्च करता। दूध, फल आदि पौष्टिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करता, पर ऐसा न कर उसने दो पैकेट से बढ़ाकर 3 पैकेट सिगरेट पीनी शुरू कर दीं। नौसेना की सेवा से अवकाश प्राप्त कर एक समाचार पत्र में संवाददाता का कार्य करने लगा। वह अकेले ही अनेक घटनास्थलों पर जाता और रात-रात भर समाचार तैयार करता रहता। जाने कितनी सिगरेटों के ठूँठ मेज के नीचे पड़े दिखाई देते।

मार्क अपनी कार द्वारा किसी घटनास्थल को देखने जा रहे थे। रात्रि का समय था। वह स्वयं ही कार ड्राइव कर रहे थे। अचानक उनकी दाँयीं पसलियों में दर्द होने लगा। वह ऐसा अनुभव कर रहे थे-मानो उन्हें कोई सुई चुभा रहा हो। वह जैसे-तैसे अपने निवास पर लौट आये। उतरते समय उनके पैर लड़खड़ाने लगे। पलंग पर लेटे-लेटे उन्होंने एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, चौथी और अनेक सिगरेटें एक साथ पी डालीं। वह अच्छी तरह समझ गये थे कि पसलियों के दर्द का मुख्य कारण धूम्रपान है फिर भी सिगरेट पिये जा रहे थे। मार्क की स्थिति तो उस व्यक्ति की तरह थी जो मृत्यु को जानते हुए, रोज अनेक शव यात्राओं में सम्मिलित होते हुए भी मौत की ओर से बेखबर रहता है।

अधिक सिगरेट पीने से मार्क का स्वास्थ्य खराब होने लगा था। पाचन शक्ति इतनी खराब हो गई कि हर समय खट्टी डकारें आती थीं। फेफड़े कमजोर हो जाने से साँस लेने में कठिनाई अनुभव होती थी। पेट में दर्द होता रहता। कुछ दिनों के बाद सख्त जुकाम हो गया। मुँह से इतनी दुर्गन्ध आने लगी कि कोई पास बैठना पसन्द नहीं करता था।

ऐसी स्थिति में मार्क ने अपने निजी चिकित्सक से परामर्श लिया उन्होंने परीक्षण के बाद एक्सरे कराने की सलाह दी। एक्सरे की रिपोर्ट में डाक्टर ने बताया कि फेफड़े बिल्कुल कमजोर हो गये हैं। इलाज में सैकड़ों रुपया खर्च होने लगा। डाक्टर के परामर्श पर सिगरेट छोड़नी पड़ी और फिर एक भी सिगरेट नहीं छुई। पर प्रकृति अपने नियमों की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों को क्षमा कब करती है, आज नहीं तो कुछ दिनों के बाद उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।

दीर्घ कालीन चिकित्सा के बाद स्वास्थ्य सुधरने लगा। दस पौंड वजन बढ़ गया। इससे मार्क को कुछ आन्तरिक शान्ति भी अनुभव होने लगी। कुछ दिनों के बाद मार्क को फिर उसी प्रकार की तकलीफें अनुभव होने लगीं उन्होंने अपने डाक्टर को घर पर ही बुलवाया। डाक्टर ने मरीज के अच्छी तरह देखने के बाद उनकी पत्नी को अलग ले जाते हुए कहा-”अब मार्क का समय निकट आता जा रहा है। एक वर्ष से अधिक जीवित रहना मुश्किल है। ‘इन्हें फेफड़े का कैंसर हो गया है जो बड़ा प्राण घातक रोग है, इस प्रकार के 100 रोगियों में बड़ी कठिनाई से 5 बच पाते हैं। यदि कोई व्यक्ति बीस वर्षों तक दो पैकेट सिगरेट रोजाना पीता रहे तो उसे कैंसर अवश्य हो जायेगा। कैंसर ही नहीं अनेक रोग उठ खड़े होते हैं। यही स्थिति मिस्टर मार्क की भी है। अतः मुझे अपने प्रयासों में कुछ सफलता मिलेगी इसका भरोसा नहीं होता।”

डाक्टर के चले जाने के बाद उनकी पत्नी सजल नेत्रों से, मौन पास के ही स्टूल पर आकर बैठ गई। मार्क भी चुप था वह क्या कहता। उसका शरीर साथ नहीं दे रहा था। क्या वह सिगरेट पीने से होने वाली हानियों से अपरिचित था? नहीं! नहीं!! वह अच्छी तरह जानता था, पर उसने ध्यान नहीं दिया। और इसकी इस उपेक्षा ने कैंसर के द्वार तक पहुँचाकर मृत्यु को समर्पित कर दिया।

ईश्वर न करे मार्क ने अपने अंतिम जीवन में शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से जो तबाही उठाई वह किसी अन्य धूम्रपान करने वाले को भी उठानी पड़े।


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